समकालीनता अपने आस-पास के परिवेश से होकर जब गुजरती है स्वाभाविक तौर पर उसे कुछ 'ज्यनूइन' प्रश्नों से जूझना ही पड़ता है। जूझते हुए, चुनौतियों से टकराकर ही यह अपना रास्ता तय करती है। एक प्रश्नाकुल अनुभव उसे हमेशा आत्ममंथन की स्थिति में रखता है। आत्ममंथन की यह अपरिहार्य प्रक्रिया ही उसे अपने प्रश्नों के उत्तर के नजदीक ले आती है। यह एक पहचान को सामने लाने और अस्तित्व को रेखांकित करने के अपने अथक प्रयत्नों का ही परिणाम है। यही कारण है कि आज, वे प्रश्न जो हमेशा से अनुत्तरित रहे थे-बेचैनी से उनके हल खोजे जा रहे हैं। ऐसे प्रश्न जिन्हें कभी केन्द्रीय नहीं माना गया, वे समय की सबसे बड़ी जरूरत के रूप में हमारे पास तक आना चाह रहे हैं। यह लोक जागरण की विचारभूमि की निर्मिति है जिसने हमें मनुष्य रिश्तों के पहचान की तमीज सिखायी है। हमने उस ओर भी मुड़कर देखा जिसे अब तक हमेशा नजरन्दाज किया गया था। चाहे वह किसानों, दलितों से जुड़े प्रश्न हो, चाहे स्त्रियों से जुड़े हों। यह अनदेखे अनुभव को पकड़ने की कोशिश है, जो अपने समय समाज के आत्ममंथन और उससे उपजी चुनौतियों एवं चिन्ता से निर्मित हैं ।
स्त्री विमर्श सिर्फ एक विमर्श भर नहीं, बल्कि देश की आधी आबादी के संघर्षमय जीवन को समेटने की कोशिश है। यह विमर्श इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने हाशिये पर जिन्दगी गुजार रही स्त्रियों के जीवन को पहली बार केन्द्रीयता प्रदान की। यह विमर्श स्त्रियों की स्वतंत्रता और उनके संघर्ष को रेखांकित कर देह मुक्ति से लेकर आत्ममुक्ति के सारे जरूरी सवालों को उठाता है। पारम्परिक संदर्भों में सिर्फ एक देह के रूप में देखी गयी स्त्री को हमेशा उसकी पहचान से दूर रखा गया है। अपने जन्म के साथ ही उन्हें जिन गतानुगतिक स्थितियों में रखा जाता है। वे हमेशा उसे सिर्फ अस्तित्वहीन सिद्ध करते हैं। मजे की बात है कि पारम्परिक तौर पर स्त्रियों के मुक्ति की जिस अवधारणा का निर्माण किया भी गया वे हमेशा संदिग्ध रहे और उनका उपयोग उसके विरूद्ध ही किया गया। समाज स्त्री के लिए एक निश्चित नियमावली तैयार करता है। जिसके अनुसार ही उसका सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है यदि कोई स्त्री इस नियमावली का उल्लंघन करती है तो वह समाज द्वारा पीड़ित और प्रताड़ित की जाती है। समाज अपने शब्द बाणों से उसे घायल करता है, इसलिए इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का जीवन सिर्फ दासता ही स्वीकार करता है और यही कारण है कि स्त्री इस पुरुष प्रधान समाज में न केवल अपना अस्तित्व खो देती है, बल्कि आधी आबादी की अस्मिता को भी मिटा देती है। इस विचारात्मक तथ्य को प्रकाशमान करने के लिए साहित्य ने पहल की और कथा साहित्य में नारी विमर्श का उदय हुआ ।
साहित्य का संसार विशाल है। इसमें लेखकों द्वारा सदैव ही अनुसंधान किए जाते रहे हैं। समाज और उसकी व्यवस्था सदैव ही लेखकों के विषय रहे हैं। भारतीय साहित्य और कला में नारी के अनेक रूप मिलते हैं। कुछ रूपों में वह सौंदर्य और भोग की वस्तु रही है तो कुछ रूपों में वह दासता की जंजीरों में जकड़ी सिर्फ एक देह रही है। आज के साहित्य में नारी के प्रति लेखक का नजरिया कुछ बदला है, नारी जिसे कभी मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा गया था आज लेखक उसे आधी आबादी का दर्जा दिलाने और मनुष्यता की श्रेणी में रखने की माँग कर रहे हैं। नारी के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए और उसकी पहचान को एक रूप देने के लिए हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श की आवश्यकता महसूस हुयी ।
हिन्दी उपन्यासों में नारी विमर्श का उदय नारी स्वन्तत्रता की एक मजबूत पहल है । स्वतंत्रता पूर्व के उपन्यासों में किसानों के बाद नारी समस्याओं को ही प्रमुख स्थान मिला है। इसका प्रमुख कारण उपन्यासकारों का नवजागरण की चेतना से प्रभावित होना था, किन्तु उस समय के उपन्यासकारों ने परम्परागत नारी संहिता के चौखटे में ही स्त्री उद्धार की बात की। स्त्री के लिए उस घेरे से बाहर निकलने का कोई द्वार नहीं सुझाया। प्रेमचन्द्र युग के उपन्यासों के नारी-पात्रों में एक नई शक्ति की संभावना अवश्य ही दिखाई देती है। वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने की दिशा में अग्रसर हैं और समाज को एक नई दिशा देने के लिए प्रस्तुत हैं।
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् और भारतीय संविधान लागू होने के बाद समाज में नारी की स्थिति में जबर्दस्त बदलाव दिखाई देता है। इसे नारी सम्बन्धी नवजागरण का दूसरा चरण कहा जा सकता है। इस काल में स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा हुई और भारतीय नारी को सदियों से चले आ रहे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पक्षपातों से मुक्ति मिली। इस बदलाव के परिणाम स्वरूप नारी अपने अधिकारों के प्रति अधिकाधिक सजग होने लगी।
अलका सरावगी के कथा साहित्य में नारी सम्बन्धी जिस नवीन जीवन दृष्टि और मूल्यबोध का परिचय मिलता है वह इस सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था का परिणाम है।
अलका सरावगी ने अपने समय के यथार्थ का पर्यवेक्षण समाज से किया है और यह अनुभव किया कि कमोवेश वैसी ही स्थितियाँ, परिस्थितियाँ पूरे देश में विद्यमान हैं। अलका सरावगी का कथा साहित्य निम्न, मध्य और उच्च वर्ग की नारियों से सीधा साक्षात्कार कराता है। इनके कथा साहित्य में घर-परिवार और दाम्पत्य जीवन व्यतीत करती लाचार स्त्रियों की उपस्थिति दिखाई देती है। पत्नीत्व और प्रेम का छुई मुई सा संसार इनके साहित्य में है। अलका सरावगी ने जो साहित्य का संसार रचा उसमें पति के प्रेम को पाती आदर्श नायिकायें हैं तो प्रेम के लिए व्याकुल विरहिणी नायिकायें भी हैं। अपने व्यक्तित्व के लिए लड़ती, झगड़ती, कुंठित स्त्रियाँ हैं तो बरसात में ठिठुरती, तपती और भगती, लजियाती नारियाँ भी हैं।
अलका सरावगी का कथा साहित्य नारी की विवशता, दीनता, शोषण, अत्याचार, संघर्ष और अदम्य साहस का मिला-जुला जीता जागता प्रमाण है। इसके बावजूद भी अलका सरावगी के कथा साहित्य में नारी विमर्श की खोज किसी शोधार्थी द्वारा नहीं की गयी है। "नारी विमर्श और अलका सरावगी का कथा साहित्य" इस अछूते विषय पर सामान्यतः शोधकर्ताओं की दृष्टि नहीं गयी है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से आलोचनात्मक ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं में अलका सरावगी के कथा साहित्य पर काफी विचार विमर्श हुआ है लेकिन उससे सम्पूर्ण अध्ययन की पूर्ति नहीं होती है। पहली बार इस विषय का समग्र विवेचन और आकलन इस कृति में किया गया है।
इस कृति को भूमिका, उपसंहार एवं परिशिष्ट के अतिरिक्त छः अध्यायों में नियोजित किया गया है।
प्रथम अध्याय "भारतीय साहित्य उद्भव और विकास" के अन्तर्गत 'साहित्य और नारी विमर्श', 'आधुनिकता और नारी विमर्श', 'उत्तर आधुनिकता और नारी विमर्श' तथा 'समकालीन नारी विमर्श' उपखण्डों द्वारा हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श की चर्चा की गयी है। इस अध्याय में नवजागरण कालीन परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर नारी जीवन को व्याख्यायित किया गया है।
'अलका सरावगी का कृतित्व एवं व्यक्तित्व' जिसके अन्तर्गत 'जन्म, जन्मस्थल, शिक्षा-दीक्षा, 'लेखन की प्रेरणा', 'साहित्य की समझ और नारी विमर्श' तथा 'अलका सरावगी की कृतियों का वर्णन द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत किया गया है। इस अध्याय में अलंका सरावगी के जीवन वृत्त के साथ-साथ उनके आस-पास के परिवेश का विवरण भी दिया गया है तथा लेखन की शुरुआत व प्रेरणा की भी चर्चा की गयी है।
तृतीय अध्याय के अन्तर्गत "अलका सरावगी की विविध कृतियों में नारी विमर्श" को प्रस्तुत किया गया है। जिसको 'उपन्यासों में नारी विमर्श', 'कहानियों में नारी विमर्श', 'उपन्यासों एवं कहानियों की भाषा शैली' तथा 'उपन्यासों एवं कहानियों का उद्देश्य' शीर्षाक में विभाजित किया गया है। इस अध्याय का विवेचन करने के लिए अलका सरावगी के सम्पूर्ण कथा साहित्य को आधार बनाया गया है।
"नारी विमर्श एवं उत्तर आधुनिकता का परिप्रेक्ष्य" के संदर्भ में विचार विमर्श चतुर्थ अध्याय में किया गया है। यह अध्याय 'कथा साहित्य में नारी विमर्श', 'साहित्य में नारी विमर्श और उत्तर आधुनिकता', 'नारी आरक्षण एवम् कथा साहित्य', 'नारी विमर्श की सार्थकता', उपखण्डों में विभक्त है। इस अध्याय में साहित्यकारों के रचनात्मक तेवर को समझने की कोशिश की गयी है, साथ ही स्त्रियों से जुड़े तमाम मुद्दों की भी चर्चा की गयी है।
पंचम अध्याय में "नारी विमर्श के सम्बन्ध में अलका सरावगी की रचना दृष्टि" को लेकर चिन्तन एवम् व्याख्या की गयी है। इस अध्याय को व्याख्यायित करने के लिए अलका सरावगी के उपन्यासों और कहानियों में वर्णित नारी पात्रों के संवादों को आधार बनाया गया है।
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