| Specifications |
| Publisher: Brihaspati Publications, Dwarka | |
| Author Acharya Brihaspati | |
| Language: Hindi and Sanskrit | |
| Pages: 353 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 590 gm | |
| Edition: 2024 | |
| ISBN: 9788195696154 | |
| HBD623 |
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संगीतशास्त्र की दृष्टि से भरत नाट्यशास्त्र का गंभीर अध्ययन वास्तव में १६५० के बाद आरम्भ हुआ और १६६४-६५ में बड़ौदा से अभिनव-भारती सहित नाट्यशास्त्र का चतुर्थ खण्ड जब प्रकाशित हुआ, तब से इस अध्ययन को विशेष बल मिला ।
नाट्यशास्त्र का २८वां अध्याय स्वर-विधि का प्रतिपादक है। गान्धर्व के तीन घटक स्वर, ताल और पद ही हैं, जिनमें से स्वर का प्रथम ही नहीं, प्रमुख स्थान भी है। इसलिए स्वर-विधि पूरे संगीतशास्त्र की नींव के समान है, और संगीत के विद्यार्थी के लिए उसका महत्त्व निविवाद है। भाषा सरल होने पर भी विषय की दुरूहता के कारण नाट्यशास्त्र का अध्ययन किसी व्याख्या के सहारे के बिना अत्यंत कठिन है। अभिनव-भारती के रूप में उपलब्ध एकमात्र व्याख्या का पाठ खण्डित और भ्रष्ट होने के कारण उस व्याख्या का सहारा सामान्य विद्यार्थी की पहुंच के बाहर है। अतः मूलग्रन्थ की नवीन व्याख्या की आवश्यकता सर्वसम्मत है। आचार्य बृहस्पति ने २८ वें अध्याय का स्वतन्त्र संस्कृत भाष्य और हिन्दी व्याख्या प्रस्तुत करके इस महती आवश्यकता की सशक्त पूति की है। मूल ग्रंथों का अध्ययन अब भी संगीतशास्त्र के क्षेत्र में शैशव की अवस्था में है। प्रायः बीस वर्ष पूर्व एक विदेशी विद्वान् ने यह लिखा था कि अभी तो इस शिशु का अन्नप्राशन भी नहीं हुआ है। नाट्यशास्त्र का प्रस्तुत भाष्य और टीका इस शिशु को किशोरावस्था तक पहुंचाने का द्वार या सन्धिस्थल समझा जा सकता है।
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