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निराला और नव-वेदान्त: Nirala and Neo-Vedanta

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Bharati Prakashan, Varanasi
Author Ravish Kumar Singh
Language: Hindi
Pages: 148
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 310 gm
Edition: 2025
HBM560
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Book Description
भूमिका

वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है- 'वेदों का अन्त (अथवा सार) उपनिषद वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग है इसलिये इसे वेदान्त कहते हैं। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य को क्रमशः इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है। इसके अतिरिक्त भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं, जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बार्क, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु शामिल हैं। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, स्वामी शिवानन्द, स्वामी करपात्री और महर्षि रमण उल्लेखनीय हैं।

स्वामी विवेकानन्द जी ने 'वेदान्त' को इस तरह से प्रस्तुत किया कि यह सिर्फ धर्म और आध्यात्म तक ही सीमित न रहे, बल्कि आधुनिक समाज सापेक्ष प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपयोगी बने। स्वामी जी ने माना कि माया (अम) को पूरी तरह से अस्वीकार करना और संसार को भ्रम मानना व्यावहारिक नहीं है। स्वामी जी ने वेदान्त को व्यापक सन्दर्भों में स्वीकार किया है, उनके अनुसार "वेदान्त भारत के सभी सम्प्रदायों में प्रविष्ट है।... वेदान्त ही हमारा जीवन है, वेदान्त ही हमारी साँस है, मृत्यु तक हम वेदान्त के ही उपासक हैं।" वस्तुतः विवेकानन्द यह मानते थे कि वेदान्त के आदर्शों को व्यावहारिक स्वरूप देकर ही भारत विश्वगुरु-पद को पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। साथ ही साथ वे व्यावहारिक दर्शन के आधार पर मानव जाति को उसके समस्त संघर्षों से दूर कर बहुमुखी सम्पूर्णता के उस स्तर तक पहुंचाना चाहते है, जो मनुष्यता का प्राप्य है। उन्होंने वेदान्त की विभिन्न व्याख्याओं सहित उसके श्रेय को स्वीकार किया और भारतीय नवजागरण के उषा काल में उसकी नई वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या की। इससे वेदान्त का युगानुकूल और यथार्थ स्वरूप आम-जन के समक्ष आ पाया जिसे नव-वेदान्त कहते हैं। यह समकालीन भारतीय दर्शन और समाज सहित विश्व समुदाय को विवेकानन्द का उपहार है।

विवेकानन्द उस परम्परा के विरोधी थे जिसके अनुसार वेदान्त अत्यंत जटिल तत्व मीमांसीय सिद्धान्त है, जिसे जानने-समझने वालों की संख्या बहुत कम है।

इसीलिये वेदांत को लोकव्यापी और जन-मन के योग्य बनाने हेतु नव-वेदान्त की स्थापना की गयी है। विवेकानन्द का कहना है कि "साधारण जन को हमेशा पतन के सिद्धान्त सिखाए गए हैं। हम उन्हें आत्मसत्य सुनाएँ। अब सभी जानें कि प्रत्येक क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति में भी आत्मा है-अमर आत्मा, जिसे न तलवार भेद सकती है, न अग्नि जला सकती है और न ही हवा सुखा सकती है। सर्वथा निर्मल, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान आत्मा सबो में है।" विवेकानन्द के अनुसार "नव-वेदान्त के लिये सबसे पहले वेदान्त के उत्कर्षकारी विचारों को शास्त्रीयता के खोल से मुक्त करना है। "वेदान्त का ज्ञान दीर्घकाल से गुफाओं और वनों में कैद है.... अब उसे निर्वासन से निकालकर पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में पहुँचाऊँ।" इसी तरह हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अमूर्त अद्वैत का हमारे जीवन में काव्यात्मक हो जाना आवश्यक है। अत्यधिक जटिल पौराणिकता में से मूर्त नैतिक रूप निकलने चाहिये और भ्रांतिकारी योगवाद में से अत्यंत वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक मनोविज्ञान प्रकट होना चाहिये। विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में सिस्टर निवेदिता कहती हैं, "एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे जो अव्यक्त है।"

नव-वेदान्त के सम्पूर्ण चिन्तन का केन्द्र मनुष्य है और यही भारतीय नव जागरण की केन्द्रीय भावना भी है। वस्तुतः मनुष्य मुक्ति के पुर्नसृजन में लगे विवेकानन्द ने दर्शन के भीतर लोकधारा का संचार किया जिससे नवभारत का निर्माण हो सका और भारतीयता का विकास हुआ। भारतीय नव जागरण का प्रस्थान बिन्दु सन् 1857 ई0 के आसपास है। यह परम्परा और आधुनिकता का सन्धिकाल है जिसके गर्भ से हिन्दी नवजागरण की किरण फूटी। आधुनिक नवजागरण कालीन भारत जिस महान उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा है उस महान उद्देश्य रूपी आख्यान के रचयिता 'स्वामी विवेकानन्द' जी हैं। इसीलिये उन्होने कहा है 'मैं घनीभूत भारत हूँ।' स्वामी जी की वाणी से सिर्फ उनका समय और समाज ही नहीं प्रभावित हुआ बल्कि पूरी दुनिया ने आधुनिक भारत की नयी विश्व-दृष्टि को सराहा और स्वीकार किया।

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