पुस्तक परिचय
न्यायविनिश्चयविवरण
भारतीय न्याय साहित्य में अकलंकदेव (आठवाँ सदी) के ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके अब तक जिन ग्रन्थों का पता चला है उनमें 'लघीयस्त्रय', 'प्रमाणसंग्रह' 'न्यायविनिश्चय' और 'सिद्धिविनिश्चय' पूर्णतया न्याय के विषय हैं। उनके ग्रन्थ 'न्यायविनिश्चय' पर टीकाकार आचार्य वादिराज सूरि (बारहवीं सदी) द्वारा लिखा गया विवरण (न्यायविनिश्चय) अत्यन्त विस्तृत और सर्वांग सम्पूर्ण है। 'न्यायविनिश्चय' में अकलंदेव ने जिन तीन प्रस्तावों (परिच्छेदों) प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन में जैन न्याय के सिद्धान्तों का गम्भीर और ओजस्वी भाषा में प्रतिपादन किया है, व्याख्याकार वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयविवरण' में अपनी भाषा और तर्कशैली द्वारा उन्हें और भी अधिक स्पष्ट और तलस्पर्शी बनाया है। जैन दर्शन और न्याय के इस सदी के उद्भट विद्वान प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य ने बड़ी कुशलता और सावधानी से इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ दो भागों में निबद्ध है। इसका पहला भाग सन् 1949 में और द्वितीय भाग 1955 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। एक अरसे से अनुपलब्ध होने के कारण न्यायशास्त्र के क्षेत्र में इसका अभाव-सा खटक रहा था। भारतीय ज्ञानपीठ को हर्ष है कि वह जैन वाड्मय की इस अक्षयनिधि का नया संस्करण नये रूपाकार में प्रकाशित कर न्याय-साहित्य के अध्येता विद्वानों को समर्पित कर रहा है।
प्रस्तावना
दर्शन-संसार के यावत्पर अचर प्राणियों में मनुष्य की चेतना विशेष विकसित है। उसका जीवन अन्य प्राणियों की तरह केवल आहार निद्रा रक्षत और प्रजनन में ही नहीं बीतता किन्तु वह अपने स्वरूप, मरणोत्तर जीवन, जय जगत् उससे अपने सम्वन्ध आदि के विषय में सहज गति से मनन-विवार करने का अभ्यासी है। सामान्यतः उसके प्रश्नों का दार्शनिक रूप इस प्रकार है-आत्मा क्या है? परलोक है या नहीं? यह जब जगत् क्या है? इससे आत्मा का क्या सम्बन्ध है? यह जगत् स्वयं सिद्ध है या किसी चेतन शक्ति से समुत्पन है? इसकी गतिविधि किसी चेतन से नियन्त्रित है या प्राकृतिक साधारण नियमों से आवद्ध ? क्या असत् से सद् उत्पख हुआ? क्या किसी सत् का विनाश हो सकता है? इत्यादि प्रश्न मानव जाति के आदिकाल से बराबर उत्पन होते रहे हैं और प्रत्येक दार्शनिक मानस इसके समाधान का प्रयास करता रहा है। ऋग्वेद तथा उपनिवत् कालीन प्रश्नों का अध्ययन इस बात का साक्षी है। दर्शन-शास्त्र ऐसे ही प्रश्नों के सम्बन्ध में ऊहापोह करता आया है। प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थ की व्याख्या में मतभेद हो सकता है पर स्वरूप उसका विवाद से परे है किन्तु परोक्ष पदार्थ की व्याख्या और स्वरूप दोनों ही विवाद के विषय है। यह ठीक है कि दर्शन का क्षेत्र इन्द्रियगम्य और इन्द्रियातीत दोनों प्रकार के पदार्थ है। पर मुख्य विचार यह है कि दर्शन को परिभाषा क्या है? उसका वास्तविक अर्थ क्या है? वैसे साधारणतया दर्शन का मुख्य अर्थ साक्षात्कार करना होता है। वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान ही दर्शन का मुख्य अभियेय है। यदि दर्शन का यही मुरुष अर्थ हो तो दर्शनों में भेद कैसा? किसी भी पदार्थ का वास्तविक पूर्ण देहरूप ही आमा है तो किन्हीं ने छोटे बड़े शरीर प्रमाण संकोच-विकासशील आत्मा का आकार बताया। विचारा जिज्ञासु अनेक पनइण्डियों वाले इस शतराहे पर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हुआ या तो दर्शन शब्द के अर्थ पर ही पशंका करता है या फिर दर्शन की पूर्णता में ही अविश्वास करने को उसका मन होता है। प्रत्येक दर्शनकार यही दावा करता है कि उसका दर्शन पूर्ण और यथार्थ है। एक ओर मानव की मननशक्तिमूलक तर्क को जगाया जाता है और जब तर्क अपने यौवन पर आता है तभी रोक दिया जाता है और 'सकोंऽप्रतिष्ठः' 'तकांप्रतिष्ठानात्' जैसे बन्धनों से उसे जकड़ दिया जाता है। 'तर्क से कुछ होने जानेवाला नहीं है' इस प्रकार के तर्कनैराश्यवाद का प्रचार किया जाता है। आचार्य हरिभद्र अपने लोकतरवनिर्णय में स्पष्ट रूप से अतीन्द्रिय पदायों में तर्क की निरर्थकता बताते हैं
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