यह पुस्तक कुछ जिज्ञासुओं के आग्रह पर लिखी गई है, जिनका विचार था कि विगत २८ वर्षों में भारत के कुछ सच्चे संतों के साथ मेरी जीवन-यात्रा और अनुभव, साधकों के लिए रुचिकर व लाभदायक होंगे। यह सुनकर मुझे एक संत का कथन याद आया कि किसी आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति को ही अध्यात्म पर कोई पुस्तक लिखनी चाहिए। उससे पूर्व यदि कोई लिखेगा तो वह आत्म-प्रवंचना का शिकार हो जायेगा और उसका पतन हो जायेगा। यही बात मैंने साधकों से कही, फिर भी वे आग्रह करते रहे। आखिर मैंने उनसे कहा कि यदि अम्मा कहें तो ही मैं पुस्तक लिखूँगा। बाद में जब इन मित्रों ने अम्मा से निवेदन किया तो अम्मा ने मुझे साधकों की सहायता के लिए पुस्तक लिखने को कहा।
यद्यपि इस पुस्तक ने आत्मकथा का रूप ले लिया है परन्तु मेरा एक मात्र उद्देश्य भारत के महात्माओं की महानता और उनके द्वारा साधना प्रशिक्षण देने के तरीकों पर प्रकाश डालना है। यदि इसे पढ़कर किसी को उन महात्माओं का सत्संग लाभ पाने की प्रेरणा मिले तो समझो कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ। महर्षि नारद ने भक्ति सूत्र में कहा है -
'महात्माओं का सत्संग दुर्लभ एवं अप्राप्य है, परन्तु प्राप्त होने पर निश्चयात्मक रूप से सदा सफल है। ऐसा सत्संग केवल ईश्वर-कृपा से ही प्राप्त होता है।'
यह सत्य है कि संतों के वेश में पाखंडी, पहले भी थे और अब भी हैं और आज शायद कुछ ज्यादा ही होंगे, परन्तु यदि सत्य की खोज में किसी की निष्ठा सच्ची है, तो वह निश्चय ही एक सच्चे महात्मा को पा लेगा। और वे तलवार की धार पर चलने जैसे आध्यात्मिक पथ पर, उसकी रक्षा व मार्ग दर्शन करेंगे, एवं उसे गिरने से बचाएँगे। जब तक धरती पर मानव जाति का अस्तित्व है, उसे मार्गदर्शन देने तथा उसकी आत्मज्ञान पाने की भूख मिटाने के लिए तथा मानसिक शांति प्रदान करने के लिए ऐसे महात्मा सदा उपलब्ध रहेंगे। ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि नामी महात्मा ही महान होते हैं। कई महात्माओं को बहुत कम लोग जानते हैं। धन्य हैं वे महात्मा जो स्वयं आत्मानन्द में रहते हैं और दूसरों को भी आनन्द प्रदान करते हैं।
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