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प्राचीन भारतीय साहित्य एवं कला में आयुध पुरुष: Ordnance Man in Ancient Indian Literature and Art

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Specifications
Publisher: Bharati Prakashan, Varanasi
Author O. P. Singh, Swastik Singh
Language: Hindi
Pages: 184 (Throughout B/w Illustrations)
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 390 gm
Edition: 2024
ISBN: 9789391297770
HBR988
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Book Description
पुस्तक परिचय

गुप्तवंश के इतिहास पर विद्वानों ने अनेक ग्रन्थ और लेख प्रकाशित किये। समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय पर रचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं। परन्तु गुप्तकाल के इतिहास के पृष्ठों में सर्वांगीण अभ्युत्थान हेतु गौरवान्वित स्थान विलक्षण योग्यता वाले स्कन्दगुप्त ने न केवल युद्धों में विजय पताका फहरायी अपितु सांस्कृतिक पल्लवन किया। वह अपने वंश का अंतिम महान शासक था जिसने अपनी आशयमयी उपलब्धियों द्वारा समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे प्रतिभाशाली पूर्वजों की याद की पुनर्जीवित कर दिया।

स्कन्दगुप्त की उपलब्धियां और देदीप्यमान हो जाती हैं जब उनका मूल्यांकन और अवलोकन उसके सम्मुख कठिनाइयों की चुनौतियों की पृष्ठभूमि में करते हैं। स्कन्दगुप्त 'क्रमादित्य' प्रतिभा संपन्न, गुप्त नरेश ने अपनी दिग्विजय एवं व्यवहारिक जीवन की विशेषताओं द्वारा नूतन आदर्शों को प्रस्तुत किया जो कालान्तर की पीढ़ियों के लिए अनुकरण के विषय थे। जव कुमारगुप्त प्रथम, निर्वल वृद्धावस्था में, शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य की अपमानजनक पराजय को करुणामयी मूक दृष्टि से देखता रहा तभी स्कन्दगुप्त ने अपने शीर्य से साम्राज्य की रक्षा की।

पूर्व मध्यकालीन यशस्वी नरेश पृथ्वीराज तृतीय ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा में अदूरदर्शिता व्यक्त की, जिसके कारण उसे अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। परन्तु स्कन्दगुप्त की दूर दृष्टि और पैनी निगाहों ने पश्चिमोत्तर सीमा नीति की कभी भी अनदेखी नहीं की।

स्कन्दगुप्त कालीन राज्य व्यवस्था, आर्थिक, धार्मिक तथा कलात्मक पहलुओं पर अभी भी सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन की आवश्यकता है। अतः प्रस्तुत ग्रंथ में इनकी सूक्ष्म विवेचना की गई है। भारतीय इतिहास के प्राचीन युग में कुछ नरेश सौभाग्यशाली थे जिन्होंने कौटिल्य, मेगस्थनीज, बाण तथा हेनसांग की सेवाएँ प्राप्त की। उन्होंने अपने समकालीन नरेशों की छवि की एक रुपरेखा को एक रंग प्रदान किया। परन्तु अनेक राजाओं की भांति स्कन्दगुप्त ऐसा सौभाग्यशाली नहीं था। वास्तव में यह दुर्भाग्य है कि उसके शासन काल सभी अभिलेख दरबारी संरक्षण में नहीं तैयार किये गए थे। फिर भी इन अभिलेखों के आधार पर स्कन्दगुप्त को राजन्य आदर्श, राज्य व्यवस्था, सामाजिक, आर्थिक पहलू, धार्मिक सहिष्णुता एवं कला के कतिपय पक्षों की विवेचना की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ में उत्तराधिकार प्राप्त करने की कठिनाइयों, पुष्पमित्रों और हूणों के साथ संघर्ष तथा अन्य विजयों के अतिरिक्त, सांस्कृतिक पक्षों की समीक्षा की गई है। इतिहासकारों के इस मत की आलोचनात्मक समीक्षा की गई है कि क्या स्कन्दगुप्त के शासन काल के उत्तरार्द्ध में आर्थिक ह्रास हुआ

लेखक परिचय

डॉ. ओ.पी. सिंह (जन्म 1945), लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्त्व में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। स्व. प्रोफेसर उपेन्द्र ठाकुर, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया के निर्देशन में "A Cultural Study of Early Indian Coins (From Earliest Times Up To Gupta Period)" पी.एच.डी. उपाधि (1975) में प्राप्त की। वह तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर के प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के अवकाश प्राप्त रीडर एवं अध्यक्ष रहे। आपने ' Religion and Iconography of early Indian Coins,' 'Iconography of Gaja Lakshmi' तथा 'प्राचीन भारतीय समाज एवं शासन' कृतियों का लेखन किया। भारतीय मुद्रा परिषद्,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी की पत्रिका का सम्पादन 1976 से 1985 तक किया. 2009 में भारतीय मुद्रा परिषद् द्वारा अल्तेकर पदक प्रदान किया गया। भारतीय मुद्रा परिषद् द्वारा प्रदत्त शिक्षा मंत्रालय प्रोजेक्ट 'Coins of India' को पूर्ण किया। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स एवं पत्रिकाओं में मुद्राशास्त्र, बौद्ध धर्म तथा क्षेत्रीय इतिहास से सम्बंधित 75 शोध लेख प्रकाशित । आपके निर्देशन में 25 शोधार्थियों को पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त हुई।

डॉ. स्वस्तिक सिंह (जन्म 1979), वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से स्नातक (स्वर्ण पदक प्राप्त) तथा स्नातकोत्तर (प्राचीन इतिहास) में प्रथम श्रेणी से प्राप्त की। 2002 में वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से पी. एच. डी. उपाधि 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय पर प्राप्त की। उच्च शिक्षा आयोग, उत्तर प्रदेश द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए चयनित। गाँधी शताब्दी स्मारक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कोयलसा, आजमगढ़ में प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पद पर कार्यरत। आपके तीन दर्जन शोध लेख राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स / पत्रिकाओं में प्रकाशित ।

प्राक्कथन

विगत बीसवीं तथा इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों में कला, वास्तुकला तथा प्रतिमा विज्ञान से सम्बन्धित विपुल साहित्य का प्रकाशन हो चुका है, फिर भी प्रतिमा विज्ञान से सम्बन्धित एक भिन्न दृष्टिकोण और अवधारणा की विवेचना अति आवश्यक है। यह है, आयुध पुरुषों की प्रतिमाएँ। दुर्भाग्यवश ख्याति प्राप्त कलाविद् इनके गहन अध्ययन के प्रति उदासीन रहे हैं। आर०सी० अग्रवाल तथा नी०पु० जोशी ने अवश्य अपने कुछ शोध लेखों द्वारा पाठकों को कतिपय आयुध पुरुषों के विषय में अवगत कराया। टी०ए० गोपीनाथ राव ने आयुध पुरुषों के प्रतिमा लक्षणों का उल्लेख किया है। बी० आर० मणि ने 'दि कल्ट ऑफ वीपन्सः दि आइकोनोग्राफी ऑफ आयुध पुरुषाज' नामक एक लघु मोनोग्राफ, दिल्ली, 1985 में प्रकाशित किया।

इसके अतिरिक्त डब्ल्यू० ई० बेग्ली ने 'विष्णु'ज फ्लेमिंग ह्वील : दि आइकोनोग्राफी आफ दि सुदर्शन चक्र' तथा सी० शिवराम मूर्ति ने 'दि वीपन्स ऑफ विष्णु' प्रकाशित किया। बेग्ली, मुख्यतः विष्णु के सुदर्शन चक्र पर ही केन्द्रित रहे हैं। नी०पु० जोशी तथा आर०सी० अग्रवाल ने भी केवल कुछ ही आयुध पुरुषों तक अपने को सीमित रखा। बी०आर० मणि ने रोचक मोनोग्राफ तो अवश्य प्रकाशित किया है लेकिन उत्तर भारतीय कला में आयुध पुरुषों का गहन अध्ययन प्रस्तुत करने में असफल रहे हैं। उन्होंने दक्षिण भारतीय कला को अपना केन्द्र बिन्दु बनाया। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में इन कमियों को दूर कर 'प्राचीन भारतीय साहित्य एवं कला में आयुध पुरुषों' का सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन करने का प्रयास किया गया है।

सर्वप्रथम कलाकृतियों में इनके विकास तथा भौगोलिक विस्तार की विहंगम चर्चा करने का प्रयास हुआ है।

भारत में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और सम्प्रदायों के उदय और विकास के इतिहास में देवताओं से सम्बन्धित अनेक आयुधों की उपासना और पूजा अत्यधिक रोचक और महत्वपूर्ण है क्योंकि इनकी उपासना में ऐसा विश्वास निहित है कि दैवी तत्व केवल देतवा के स्वरूप में ही निहित नहीं होते, परन्तु उससे सम्बन्धित लांछनों अथवा आयुधों में भी वे विद्यमान होते हैं। ऋग्वैदिक काल से ही पदार्थों के मानवीकरण की प्राचीनता देखी जा सकती है परन्तु आयुधों की अर्चा और उनके मानवीकरण का निश्चित स्वरूप परवर्ती युगों में निर्धारित हुआ। इसकी पुष्टि महाभारत तथा रामायण से होती है।

प्रस्तुत मोनोग्राफ को चार अध्यायों में विभक्त किया गया है-

अध्याय प्रथम भूमिका है। इसमें मूर्ति विज्ञान के क्षेत्र और उसकी उपादेयता का विवेचन है। मूर्तिकार साधारण कलाकार की अपेक्षा विषय का चुनाव, अंकन पद्धति, ताल-माप, मुहूर्त विचार, वर्ण विचार, परम्परा, व्यक्तिगत साधना और तपस्वी जीवन आदि कई बन्धनों से बंधा होता है। मूर्त्तिकार ने इसी सीमित परिधि के अन्दर कला में आयुध पुरुषों का विकास प्रस्तुत किया।

सभी आयुध उपासना के योग्य हैं किन्तु विष्णु तथा वामन पुराणों में सुदर्शन अन्य आयुधों की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया है। विष्णु पुराण में अत्यन्त महत्वपूर्ण आयुधों से सम्बन्धित उत्पत्ति के मिथक की प्रतिध्वनि प्राप्त होती है। विष्णु का सुदर्शन, शिव का त्रिशूल, कार्त्तिकेय का वज्ज्र तथा अन्य आयुधों का निर्माण सूर्य से विश्वकर्मा ने किया। डब्ल्यू० ई० बेग्ली तथा टी०ए० गोपीनाथ राव ने अन्य पुराणों के आधार पर सुदर्शन की उत्पत्ति शिव से बतायी है।

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