अनादिनिधने वा शब्दतचं यदक्षरम्।
विवत्र्त्ततेऽर्वभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥ शब्द-ब्रह्म की महिमा अत्यन्त विचित्र है। भाषा परम्परागत सम्पत्ति होने के नाते शब्द-ब्रह्म को अज और अनन्त निःसंकोच कहा जा सकता है परन्तु विकास-शील होने के नाते उसे अव्यय मानने में संदेह होने लगता है। कुछ भी हो, ज्ञानी लोग जैसे ब्रह्मसत्ता की खोज में, उसके स्वरूप को पहचानने में, तन-मन की वित्त-वृत्तियों को एकाग्र करके लगे रहते हैं वैसे ही भाषा-विज्ञानी लोग अपने शब्दब्रह्म की सत्ता पहचानने में लगे रहते हैं। प्रस्तुत निबन्ध शब्द-ब्रह्म के एक जिज्ञासु का अपनी जिज्ञासा शान्ति के निमित्त किया गया बाल-प्रयत्न है।
हिन्दी का वर्तमान स्वरूप संस्कृत गर्भित शब्दावली से इतना प्रच्छन्न हो गया है कि इसने अपनी वास्तविक सत्ता को, अपने असली स्वरूप को, भुला दिया है। परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि हिन्दी के वास्तविक स्वरूप का ह्रास हो चुका है घथवा वह स्वरूप आज विद्यमान ही नहीं है। इसकी वास्तविक शक्ति अपने तद्भव शब्दों में निहित है और वह आज भी उत्तर भारत के करोड़ों लोगों के मुखारविंद में छिपी बैठी है। हिन्दी की इस तद्भव शब्द-शक्ति को पहचानने के लिए इन करोड़ों लोगों की बोलियों का अध्ययन नितान्त आवश्यक है, इसके बिना इसके स्वरूप का सही ज्ञान संभव नहीं है।
आधुनिक खड़ी बोली, हिन्दुस्तानी अथवा हिन्दी का आविर्भाव दिल्ली और आगरे के आस-पास के इलाके की कई एक बोलियों के सहयोग से हुआ है। इसमें हरियाणा प्रदेश की बोली का योगदान सर्वप्रमुख रहा है। प्रारंभिक हिंदी अथवा हिंदवी के प्राचीनतम नमूने दक्खिनी हिंदी में पाए जाते हैं। इस भाषा में हरियाणवी के पर्याप्त तत्त्व आ गए हैं। अतः हिन्दी के स्वरूप को समझने के लिए इसकी आधार-भूत उपभाषा हरियाणवी का अध्ययन बहुत आवश्यक है।
हरियाणवी स्कूल रूप से जिला रोहतक, जिला हिसार के पूर्वी भाग और दिल्ली के समीपवर्ती इलाके की भाषा है। इसका परिचय सर जार्ज ग्रियर्सन के 'लिग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' में बांगरू, हरियाणी अथवा जाटू नाम से मिलता है। यहां इसकी प्रमुख विशेषताओं का ज्ञान तो दूर रहा, अपितु इसमें हरियाणी अथवा बांगरू सम्बन्धी, परस्पर विरोधी विभिन्न मतों को पढ़ कर मनुष्य भ्रांति में पड़ जाता है। सर्वे के कार्य को सुगम बनाने के लिए जिला रोहतक के तात्कालिक डी० सी० महोदय श्री ई० जोसफ ने जादू गलासरी बनाई और उसके साथ भाषा का संक्षिप्त व्याकरण भी लिखा । 'सर्वे' के परिचय का बापार जाडू ग्लासरी और इसका संक्षिप्त व्याकरण है। हरियाणवी भाषा के देशी शब्दों के सर्वप्रथम अध्ययन के नाते इस पुस्तक का ऐतिहासिक मूल्य अवश्व है अन्यया एक विदेशी होने के माते जोसफ महोदय कई एक शब्दों के शुद्ध उच्चारण तक को और इसी प्रकार उनके सही अर्थ को नहीं समझ सके हैं। इसी प्रकार व्याकरण में 'साहब नै मन्नै मार्या' का उदाहरण इस बात का द्योतक है कि वे भाषा की प्रवृत्ति अववा प्रकृति से परिचित नहीं हो पाए थे। व्याकरण के विचार से यह वाक्य घुद्ध होते हुए भी भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से अस्पष्ट है। साहब ने मारा या मैंने साहब को मारा जैसी अस्पष्ट अभिव्यक्ति जन मानस में नहीं ठहर सकती और उपभाषा मूलतः जनमानस की बहु-मूल्य निधि होने के कारण ऐसे खोटे सिक्कों को नहीं रख सकती। संक्षेप में उक्त दोनों विद्वानों ने भागीरथ प्रयत्न किया फिर भी हमें हरियाणवी के स्वरूप का सही-सही परिचय नहीं मिलता ।
'हरियाणवी' पर 'बांगरू का संरचनात्मक अध्ययन' के नाम से डा० जगदेव सिंह ने अमरीकी पद्धति पर बहुत सारा काम किया है। इस ग्रन्य की विश्लेष्य भाषा सामग्री के लिए डाक्टर महोदय स्वयं ही सूचक (informant) हैं और उनके कथनानुसार उनकी भाषा भगवतीपुर ग्राम (जिला रोहतक) की प्रतिनिधि भाषा है। डा० साहब का ग्रन्थ हरियाणवी का सर्वप्रथम वैज्ञानिक अध्ययन है। यह भाषा का विश्लेषणात्मक अध्ययन है, पर हमारे विचार में विश्लेषणात्मक अध्ययन के साथ-साथ भाषा के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन भी नितान्त आवश्यक है। यह ठीक है कि विश्लेषण से पूर्व हम उसके प्राचीन इतिहास क्रम की ओर झांकने में असमर्थ रहते हैं, परन्तु यह भी एक कठोर सत्य है कि विश्लेषण करते समय शब्द के प्राचीन विकास-क्रम पर दृष्टिपात कर लेने से विश्लेषण में रहने वाली सामान्य सी भूल सहज ही पकड़ में आ जाती है और उसका स्वयं ही निराकरण हो जाता है।
हरियाणवी के प्रस्तुत अध्ययन में दो बातों का विशेष ध्यान रखा गया है:-
पहले इस बात का कि इसके अन्तर्गत हरियाणा प्रदेश में प्रचलित सभी रूपों का समावेश हो सके जैसे 'कहां' के लिए इस इलाके में' कित्', 'कड़े', 'कठे', 'कींधे', 'कॉहूँ', 'को' आदि रूप प्रचलित हैं। इस दृष्टि से स्थान-स्थान पर घूम कर हमने विभिन्न प्रचलित रूपों को एकत्रित करने का प्रयत्न किया है और उन्हें अपनी पुस्तक में शामिल कर लिया है।
दूसरे यह कि भाषा-संरचना का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए इस के अन्तर्गत शब्दों के विकास-क्रम पर भी दृष्टिपात कर लिया जाए ताकि प्रस्तुत अध्ययन एक ओर तो यथा-संभव स्वत्तः पूर्ण बन सके और उसके पदग्रामों के अध्ययन में कोई त्रुटि न रह जाए, तथा दूसरी ओर इस भाषा के प्राचीन रूप इसकी अर्थ-विकास-पद्धति का कुछ दिग्दर्शन करवा सकें जिस ने भविष्य के सोच-कर्ताओं को इस ओर ध्यान देने की प्रेरणा मिल सके। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए दो एक उदाहरण प्रस्तुत करना असंगत न होगा। हरियाणवी के 'विन्', 'विन् जा' और 'गसी वर्ग से' आदि का अध्ययन संस्कृत वल् के ज्ञान पर अधिक रोचक बन जाता है। फिर वल्म् के मूल अर्थ पर ध्यान जाते ही 'गली बर्ग से' की रचना कितनी विचित्र प्रतीत होती है और इसी प्रकार 'विन्जा' में 'विन्' का स्वतंत्र अस्तित्व विलीन हुआ दिखाई देता है। इसी प्रकार 'गूदड़िना मरकोल् हुर्मत् मरें जडाई लोकोनित का सही वर्ष 'मरकोल' का इतिहास समझे बिना नहीं लगाया जा सकता। अतः किसी जन-भाषा को पूरी तरह समझने के लिए इसका ऐतिहासिक अध्ययन नितान्त आवश्यक है।
उपर्युक्त दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने हरियाणवी के अध्ययन के लिए अपेक्षित सामग्री जुटाने का प्रयत्न किया है। हरियाणवी में लिखित साहित्य का अभाव रहा है, फिर भी प्राचीन हरियाणवी के नमूने इकट्ठे करने के लिए इधर-उधर पर्याप्त दौड़-धूप की गई परन्तु इसमें सफलता नहीं मिल सकी। डा० मसऊद हुसैन ने अपनी पुस्तक 'तारीख जवाने उर्दू' में कुछ प्राचीन हरियाणवी भाषा के लेखकों का उल्लेख किया है और उनकी रचनाओं से कुछ उद्धरण भी दिए हैं। इन उद्धरणों की भाषा से पता चलता है कि वे लोग विद्युद्ध हरियाणवी के लेखक नहीं हैं। उनकी भाषा धीरे धीरे पनपने वाली साहित्यिक भाषा है जिसमें प्रादेशिक भाषा के शब्द मिल जाते हैं। इन रचनाओं की अपेक्षा परम्परागत लोक-गौतों में विशेषतः ऐसे लोक गीतों में जो देवी-देवताओं के पूजने के निमित्त गाए जाते हैं, पर्याप्त प्राचीनता के दर्शन होते हैं। डा० मसऊद हुसैन ने जिन लेखकों का उल्लेख किया है, उनकी भाषा गलत ढंग के परिणाम पर पहुंचाएगी, उदाहरणार्थ डाक्टर साहब इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि हरियाणवी की 'सूं', 'सां' आदि सहायक क्रियाएं बाद में पंजाबी के प्रभाव से आई हैं (तारीख जबाने उर्दू पृष्ठ २४८) । ध्यान रहे कि पंजाबी में 'सां', 'सो' आदि सहायक क्रियाएं भूतकाल में प्रयुक्त होती है जब कि हरियाणवी में इनका प्रयोग वर्तमान काल में होता है। चूंकि 'सूं', 'सां' नादि सहायक क्रियाओं का प्रयोग इन लेखकों की शहरी और अर्धसाहित्यिक भाषा में नहीं मिलता अतः डाक्टर साहब ने उपर्युक्त निष्कर्ष निकाल डाला। इन लेखकों की रचनाओं में मिलने वाले 'लाय कर', 'खाय कर' आदि रूपों की अपेक्षा परम्परागत लोक गीतों में मिलने वाला रूप 'खपाए के" इन रूपों के विकास क्रम पर अधिक प्रकाश डालता है।
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