लेखक अपने सम्पादकत्व में गत २० वर्षों से चल रही विश्वेश्वरानन्द संस्थान की सांस्कृतिक, मुख-पत्रिका विश्व-ज्योति के माध्यम से, जन-जीवन की अनेक समस्याओं से सम्बन्धित अपने विचारों को विभिन्न विषयक विशेष लेखों के द्वारा प्रकट करता रहा है। उन्हीं में से १० लेखों के संग्रह के रूप में 'सत्संग-सार' ग्रन्य प्रथम बार १६५३ में प्रकाशित हुआ था। उसके वर्तमान सशोधित एवं परिधित संस्करण में अन्य लेखों का समावेश करके द्वितीय संस्करण १६७१ ई० में प्रकाशित किया गया है।
इन लेखों में वैयक्तिक और सामाजिक स्तरों पर स्वस्थ एवं सुन्दर जीवन के निर्माणार्थ, जिन प्रेरणात्मक विचारों का उपस्थापन हो पाया है, उनका कुछ और अधिक विस्तृत तथा स्थिर प्रसार होकर जन-साधारण को अधिकाधिक लाभ पहुँच सके, इसी भाव से प्रेरित होकर उपर्युक्तः ग्रन्थ के अन्तिम पांच निवन्धों को प्रस्तुत ग्रन्य में पृथक् रूप से अनुमुद्रित किया जा रहा है।
श्राशा है कि पाठक-वर्ग इस उद्देश्य की पूति में सहायक होंगे और इस पुस्तक में दिए गए जिन विचारों के साथ सहमत हों, उनका अधिकतम प्रचार-प्रसार करने-कराने में अपना पूर्णयोग देंगे । यह संभव है कि वे कई बातों में लेखक के साथ सहमत न भी हों। ऐसी परिस्थिति में, लेखक उन्हें बड़े श्रादर के साथ यह विश्वास दिलाना चाहता है कि यदि वे अपना कुछ विचार-विमर्श सूचित करने का कष्ट स्वीकार करेंगे, तो उसका सर्वदा स्वागत किया जायगा ।
लेखक की यह दृढ़ धारणा है कि प्रत्येक मानव को जो कुछ ज्ञान प्राप्त हो पाता है, वह सत्य, अर्धसत्य और असत्य का विमिश्रण-सा होता है। अतः, इसके सुधार के लिए सदा अवकाश विद्यमान रहता है, जिसे करने के लिए सबको अपने मन में उद्यत रहना चाहिए। उसी अवस्था में, सद्भाव-पूर्वक विचार-विनिमय होकर वैयक्तिक एवं सामाजिक सद्व्यवहार का स्तर उत्तरोत्तर उन्नति कर सकेगा ।
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