भारतवर्ष जिस प्रकार अनेक विद्याओं का भण्डार है इसी प्रकार यहाँ की नीतिप्रणाली भी अद्वितीय है, संसार मे रहकर जो नीतिशास्त्र से वंचित हुआ है मानो उसने बहुत कुछ नहीं जाना और एक प्रकार से संसार मे उसका आगमन निरर्थक ही है, हमारे इस देश के पूर्वज दिव्यस्वभाव त्रिकालज्ञ आचार्यों ने जन्म ग्रहण करके अपने अनन्त ज्ञान की महिमा से इस जगत् को अनन्त अनादि जानकर अपने अप्रतिहत योगबल से ब्रह्म और ब्रह्मविषयक सम्पूर्ण तन्त्र निरूपण कर दिये है, तब से लेकर इस पृथ्वी पर कितने ही राजाओं का आविर्भाव और तिरोभाव तथा वसुंधरा पर कितनी बार विश्व और विपर्यय हुआ है तथा जनसमूह का कितनी बार परिवर्तन हुआ है किन्तु उन महर्षियों के योगबल से निर्मित वह सकल ग्रन्थ ध्रुव के समान प्रकाशमान हो रहे हैं, उनके इन ज्ञानपूर्ण रत्नों के कारण आजतक यह भारत भूमि जगत् में रत्नभंडार नाम से विख्यात है उन्हीं अमूल्य रत्नो में से यह नीतिमय ग्रन्थ 'पञ्चतन्त्र' एक अनुपम रत्न है, इसके निर्माण करने वाले महापण्डित विष्णुशर्मा हैं यह अति प्राचीन काल के महापण्डित है। इन्होने अति प्राचीन समय के महर्षि मनु, बृहस्पति, शुक्र, वाल्मीकि, पराशर, व्यास, चाणक्य प्रभृति महात्माओं के बहुत काल पश्चात् जन्म ग्रहण किया है, मधुमक्षिका जिस प्रकार अनेक पुष्पों से रस ग्रहण कर अपूर्व मधु की रचना करती है, विष्णुशर्मा ने भी इसी प्रकार अपने पूर्ववर्ती पण्डितो के शास्त्र से सार ग्रहण करके पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ निर्माण किया है, इसके उपदेश सब ही अवस्था मे मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी है, क्या योगी, क्या भोगी सबके लिए यह समान उपकारक है। इससे योगी योगसिद्धि, भोगी पवित्र भोगशक्ति, रोगी रोगशान्ति, शोकार्त शोकशान्ति को प्राप्त होता है। राजा, प्रजा, गृहस्थ, सन्यासी, पण्डित, मूर्ख, धनी, निर्धन, बालक, वृद्ध, युवा, आतुर सबको ही यह ग्रन्थ स्नेहमयी माता की समान सुखदायक है।
राजनीति एक बड़ा शास्त्र है सबको परिश्रम से भी कठिनता से आ सकता इन महात्मा विष्णुशर्मा ने इसको इस चतुराई से निर्माण किया है कि, छोटी से छोटी बुद्धि के मनुष्य भी सरलता से इसके आशय को समझ सकते है, सम्पूर्ण नीति कथाओं मे लाकर इस प्रकार से वर्णन की है कि जिससे पढ़ने वाले की बुद्धि चमत्कृत हो जाती है।
कालक्रम से इस ग्रन्थ का सौरभ जब देश-विदेश मे विकर्णि हुआ तब परदेश के अनेक गुणबाही इस देश में आकर इस अपूर्व मधु को ग्रहण करने लगे, क्रम से यह और इनका दूसरा ग्रन्थ हितोपदेश पृथ्वी के नाना देशों में अनेक भाषा और अनेक आकार से प्रचलित हुए । इसकी नीतिगर्भित कथायें असभ्य जातियों में भी अनेक नाम से प्रचलित हुई है।
पञ्चतन्त्र के कर्ता किस समय किस स्थान में प्रादुर्भूत हुए विष्णुशर्मा उनका प्राकृत नाम है कि नहीं, यह सम्पूर्ण ऐतिहासिक वृत्तान्त स्पष्ट रूप से जानने का कोई उपाय नहीं, कारण कि भारतवर्ष के प्राचीन आचार्यों ने कही अपने ग्रन्थों में अपना लौकिक परिचय नहीं दिया है, वह किस समय, किस देश, किस कुल, किस अवस्था में प्रादुर्भूत हुए थे, क्या आकृति थी इत्यादि, आधुनिक ऐतिहासिक परिचय कुछ भी नहीं जाना जाता और उन्हें आत्मपरिचय देने की आवश्यकता भी क्या थी। वे सम्पूर्ण रूप से अपने को भुलाकर तन्मय भाव से ज्ञानचिन्ता में मग्न थे। वह महायोगी सिद्धि लाभ करके ही आत्मा को चरितार्थ ज्ञानमय करते थे। ग्रन्थ में ग्रन्थकार का नाम धाम आदि परिचय देने में उनकी इच्छा ही नहीं होती थी; रामायण, महाभारत, हरिवंशादि ग्रन्थों में भी अपरिमित प्रभाशाली इन ऋषियों ने अपना नाम धामका उल्लेख नहीं किया है, वाल्मीकि व्यास यह प्रकृत नाम नहीं हैं किन्तु वल्मीक से प्राप्त होने से वालिमकि और वेद विभाग करने से वेदव्यास 'व्यास' नाम हुआ है। इन महर्षियों के निर्माण किये ज्ञानकाण्ड की ब्रह्मा से स्तम्बपर्यन्त व्याप्त होने वाली विशालता देखकर तथा उनमें एक-एक की आकृति का ध्यान करके सन्मुख एक एक महानुभाव की विशाल मूर्ति आविर्भूत होती है। यद्यपि उन्होंने अपना लौकिक परिचय नहीं दिया है परन्तु जो मनुष्यों का यथार्थ परिचय है वह उस अलौकिक ज्ञानका परिचय प्रदान कर गये हैं, वे जीवलोक के कल्याण करने को यह अमूल्य ज्ञानधन संचय कर गये हैं, इस कारण उनका आत्मपरिचय तो चन्द्र सूर्य की स्थिति पर्यंत है महावीर कर्ण ने कहा है-
सुतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम् ।
दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तन्तु पौरुषम् ।।
अर्थात् चाहे सूत हूँ, चाहे सूतपुत्र हूँ जो कोई भी मैं हूँ इससे क्या ? कुल मे जन्म दैवाधीन है परन्तु पुरुषार्थ तो मेरे आधीन है। अर्थात् पुरुषार्थ ही हमारा परिचय है। इस कारण पञ्चतन्त्र के कर्ता का नाम धाम वंश का परिचय न पाने से मनुष्य जाति को कोई हानि नहीं, उनका यह पञ्चतन्त्र ही अनन्त काल पर्यंत जीव लोक का महा उपकार साधन कर उनके मनुष्यत्व का परिचय प्रदान करता रहेगा।
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