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'पथहारा' की खोज में- Pathahara Ki Khoj Mein (Samiksha: Pathahara)

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Specifications
Publisher: Rachanakar Publishing House, Delhi
Author Sunita Pandey
Language: Hindi
Pages: 143
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 330 gm
Edition: 2020
ISBN: 9789387932395
HCA049
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Book Description

आमुख

पुण्यसलिला सरयू की तरह प्रवहमान 'पथहारा' की रचनाओं पर लेखिका की यह टीका, दरअसल उसी वेगवती सरिता से उत्पन्न कोलाहल है, जो लेखिका की लेखनी से स्वतः प्रस्फुटित हो उठा है।

मूल कवि डॉ. स्वामीनाथ पाण्डेय की कविताओं पर मैं कुछ लिख सकूँ, ऐसा न तो साहस है और न सामर्थ्य ही। हालाँकि मूलकवि और टीकाकार दोनों ही मुझे सदा यह बोध कराते रहे हैं कि मुझमें भी कोई रचनाकार है, परन्तु अभी तक मेरी उससे भेंट हुई नहीं, जाने कभी होगी भी या नहीं। लेखिका की इस कृति पर कुछ भी लिखना मुझ अकिंचन के लिए एक दुस्साध्य कार्य इसलिए हो गया है, क्योंकि मूल कवि और टीकाकार के रक्तप्राण से सिंचित मेरा जीवन है, जिनकी छाँव में मैं आज तक पूर्ण वयस्क भी न बन पाया। यदि मूल कवि सुकरात जैसा गुरु है, तो उसकी परम शिष्या यानी टीकाकार को प्लेटो कहना अतिशयोक्ति न होगी, ऐसे में खद्योत सम मैं क्या लिख सकूँगा, ईश्वर ही जाने। मूलकवि डॉ. स्वामीनाथ पाण्डेय ही मेरे निराला हैं और उनकी कविताओं की खोज में भटकती (भीतर से यायावर) लेखिका डॉ. सुनीता पाण्डेय ही मेरी महादेवी।

लेखिका की यह कृति मूल कवि की कविताओं का गद्यानुवाद मात्र कतई नहीं है, यह तो ठीक उसी प्रकार है, जैसे कोई अभिनेता अपने अभिनय द्वारा दर्शकों की रसानुभूति में माध्यम बनता है। लेखिका का भी यही प्रयास है कि महाकवि की कविताओं के रसास्वादन से मुझ जैसे लोग भी क्यों वंचित रह जायें? यदि मुझसे सच पूछा जाय तो मैं यही कहूँगा कि लेखिका ने शुरू तो किया था कविताओं को खोजना, फिर उन कविताओं में वह कवि को खोजने लगी और खोजते-खोजते वह स्वयं भी कब उन्हीं वीथियों में खो गई, जान ही न पाई।

अब यह तो पाठकों को तय करना है कि लेखिका 'पथहारा' की खोज में कहाँ तक सफल हुई है। जो कोई भी मूल कवि के सम्पर्क में आये हैं, उन्हें यह पुस्तक पढ़ते हुए निश्चय ही महसूस होगा कि जैसे वे कवि के साथ उन क्षणों को फिर से जी रहे हैं।

कवि होना निश्चय ही ईश्वर का अनुपम वरदान है। कविता लिखना-पढ़ना, गुनना-धुनना यह भी वरदान सदृश ही है, परन्तु इन सबसे अलहदा अगर कुछ है, तो वह है, कविताओं को जीना। सुनने में जरूर यह अचम्भित कर सकता है, परन्तु कविताओं को ताउम्र जीने वाला कवि अगर देखना है, तो 'पथहारा' के कवि को देखिए! जीना, वह भी ऐसे वैभवशाली ढंग से, कि स्वयं वैभव भी शरमा जाये। ऐसा कौन-सा सांसारिक सुख था, जो कवि अपने या अपने परिजनों के लिए खरीद नहीं सकता था, पर नहीं, वह तो लुटाने में आनन्दित हुआ है-

"सब कुछ खोकर जो हाथ लगी, उस उलझन को तुम क्या जानो"

कवि का वैभव बसता है कविता के आँचल में, बंगाल में, मातृभूमि बलिया के एक छोटे-से गाँव में। बलिया और बंगाल तो कब के छूट गये, परन्तु कवि से उनको छुड़ा पाना कहाँ सम्भव है। न भूतो, न भविष्यति। कवि के जीवन में अगर स्त्रियों की बात की जाय तो बलिया माँ है और बंगाल प्रेयसी। जहाँ माँ ने जन्म दिया, लालित-पालित कर बड़ा किया, वहीं प्रेयसी ने बाहें पसार कर उसका स्वागत किया।

कवि अनेक कविताओं में लुटा हुआ-सा महसूस करता है, उसका एक कारण यह भी है कि कवि से माँ भी छूट गयी और प्रेयसी भी। यद्यपि कवि ने आज भी उन दोनों का दामन नहीं छोड़ा है, परन्तु वह जानता है कि यह छलावा है, अब मिलन संभव नहीं। इन दोनों स्त्रियों का आँचल थामे अपने दारुण दुःख को अपनी कविताओं में पिरोता जाता कवि स्वयं को किसी राजा-महाराजा से कम नहीं आँकता। निश्चय ही ऐसा ऐश्वर्य, जिसमें सब कुछ लुटाकर ही वैभवशाली हुआ जा सकता है, कितनों के नसीब में है! तभी तो कवि कई बार अभिमान से भर उठता है, क्योंकि जब वह अपने चारों ओर नज़र घुमा कर देखता है तो उसे कोई भी अपने समान वैभवशाली नज़र नहीं आता। इस टीका की रचनाकार तो मात्र इतने से ही गौरवान्वित हो उठती है, कि उसने कवि को इन कविताओं को जीते हुए देखा है। निश्चय ही उसने कवि का शिशु-रूप भी देखा होगा और दुर्वासा रूप भी। गौरवान्वित होने के लिए इतना कम है क्या?

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