जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ।।
काशी प्राचीन काल से सर्व विद्याओं के अध्ययन-अध्यापन की अध्ययनस्थली, साधनास्थली व तपोस्थली रही है। प्राचीनकाल से लेकर अद्यतन युग तक काशी में ऐसे कई विद्वान हुए हैं जो अपने प्रातिभ प्रकर्ष से अधीत विद्या में नैपुण्य एवं वैचक्षण्य को प्राप्त हुए हैं। ऐसे विद्वानों की सुदीर्घ शृङ्खला काशी में उपलब्ध होती है। 'काशी की पाण्डित्य परम्परा' नामक पुस्तक में बलदेव उपाध्याय जी ने ऐसे सभी विद्वानों का उल्लेख किया है। प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य जी का वंशवृक्ष भी काशी की इसी विद्वत्परम्परा का निदर्शनभूत हैं- ज्येष्ठ तात महामहोपाध्याय वामाचरण भट्टाचार्य (नव्यन्याय), पिता साहित्याचार्य ताराचरण भट्टाचार्य (साहित्यशास्त्र), अग्रज भ्राता विभूतिभूषण भट्टाचार्य (न्यायशास्त्र) तथा प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य (साहित्यशास्त्र) के ये रत्नचतुष्टय काशी की पण्डित्य परम्परा के चतुरस्र महोदधि है। प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य जी का कुल गुरुकुल परम्परा में श्रुति परम्परा से अहर्निश शास्त्रों की साधना में संजुष्ट रहा है। प्रो. भट्टाचार्य जी अद्यावधि श्रुति परम्परा में ज्ञान के अधिष्ठानभूत है। हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी, संस्कृत, चतुर्विध भाषाओं में निपुण आपको चतुर्मुख ब्रह्मा सदृश कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। चतुर्विध भाषाओं मैं आपके ज्ञान का वैविध्य भी विलक्षण प्रकार का है। चतुर्मुख ब्रह्मा की सृष्टि सदृश आप में भी उत्कृष्ट कोटि की काव्य सृष्टि की सम्भावनायें विद्यमान रही हैं किन्तु आपने काव्य सृष्टि में गड्डलिका प्रवाह का अनुसरण न कर परिमित श्लोकों एवं ग्रन्थों की सर्जना की है। अपनी विद्वत्ता के प्रभविष्णुत्व पर ही आप भारतवर्ष के हर विश्वविद्यालय में विशिष्टातिथित्व एवं मुख्यवक्तृत्व को प्राप्त हुए है। आपके वैदुष्य से आकृष्ट हो 'अखिल भारतीय पण्डित महापरिषद्' वाराणसी ने आपको 'साहित्य शिरोमणि' की उपाधि से अलंकृत किया है।
ऐसे गुरुप्रवर के अन्तेवासित्व में मैंने शोधकार्य कर पीएच्.डी. की उपाधि प्राप्त की है। जब मैं कला संकाय, संस्कृत विभाग में अध्ययनरत थीं तदानीन्तन काल से ही गुरु जी के अध्ययन-अध्यापन की शैली से अभिभूत थीं। गुरु जी की वक्तृत्व शैली बड़ी ही मनमोहक प्रतीत होती थीं। उनके वचन बड़े ही पूर्वाग्रहरहित, अद्भुत तथा मन को आकृष्ट करने वाले होते। मेघदूत पढ़ाते समय प्रत्येक श्लोक का चित्र अपनी वाग्मिता से उपस्थित कर देते। विषयानुकूल वाणी के सदृश ही मुखाकृति की भावभंगिमा भी तदनुसार होती। ज्ञान राशि के अधिष्ठानभूत होते हुए भी, यदा-कदा अध्यापन के समय विषय का प्रवर्तन होने पर, विद्यार्थियों द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर गुरु जी का कथन होता मुझे नहीं पता है जाकर अमुक पंडित से पूछो ऐसा कहकर वे किंचित् क्षण के लिए विरत हो जाते तथा पृष्ट वर्ण्य विषय पर हिन्दी, बंगला व आंग्ल भाषा के हास-परिहास से युक्त सन्दर्भों एवं रोचक कथाओं को मध्य-मध्य में उदाहृत करते जाते। ऐसे विलक्षण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रो. विश्वनाथ भट्टाचार्य के वक्तृत्व कौशल से प्रभावित होकर मैंने उनके निर्देशन में शोध कार्य करने का मनः संकल्प किया था जो बाबा विश्वनाथ की कृपा से सफलीभूत हुआ।
मध्यप्रदेश सागर के दैनिक भास्कर के एक अङ्क में 'सागर की सारस्वत साधना' नामक शीर्षक से दिसम्बर १९९६ में प्रकाशित १२वें न. के लेख में प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने भट्टाचार्य जी के व्यक्तित्व एवं अध्ययन-अध्यापन की मुक्त कंठ से भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
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