प्रभाकर माचवे कवि एवं गद्यकार दोनों ही रूपों में हिंदी जगत में प्रतिष्ठित हैं। वे वास्तव में अहिंदी भाषी, अनेक भाषाओं के ज्ञाता, विशिष्ट प्रयोगधर्मी साहित्यकार तथा प्रथम तारसप्तक के कवि हैं। डॉ. माचवे देश के ऐसे लेखकों में से हैं, जो पचास वर्षों से सृजन कर्म करते आये हैं। किसी भी साहित्यकार के जीवन में 50 वर्ष की साहित्य-तपश्चर्या का रचनाकाल बहुत लम्बा समय होता है, जिसमें वह यश की ऊँचाइयों का स्पर्श कर लेता है। और युगीन चेतना से अनुप्रमाणित होता है। अपने साहित्य में समाज के शाश्वत् जीवन मूल्यों, युग जीवन की चेतना एवं मूलभूत सामाजिक समस्याओं के साथ सांस्कृतिक तत्वों, उपादानों में साहित्य के शब्द चित्र निर्मित करता है। सामाजिक चेतना के उपन्यासकार प्रभाकर माचवे जी इन्हीं रूप-रेखाओं से हिंदी उपन्यासों के चित्रपट का निर्माण करने वाले महाराष्ट्रियन कलाकार हैं।
माचवे जी ने भारतीय साहित्य के साथ पाश्चात्य साहित्य दर्शन एवं समाज का मनन मंथन किया है। वे वहां की समसामयिकता एवं सामाजिक चेतना के चढ़ाब-उतार से अंसपृक्त नहीं रहे। अतः डॉ. माचवे का कवि रूप ही अधिक प्रसिद्ध रहा किन्तु उपन्यासकार का रूप हिंदी साहित्य के इतिहास में अभी तक खुला नहीं। संवेदनशील साहित्यकार किसी भी साहित्यिक विधा का क्यों न चयन करे समसामयिक सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति उस सर्जक द्वारा होती ही है। सर्जनागत् भेद एवं विधागत भेद होते हुये भी वहां साहित्यकार तटस्थ चिंतक की तरह होता है।
डॉ. प्रभाकर माचवे जी के उपन्यासों का सामाजिक पक्ष की दृष्टि से विचार किया जाए तो उपन्यास मानव एवं समाज की अनेक गुत्थियों तथा भाव वीथियों का संग्रह है। उपन्यासों में मानवीय संवेदना तथा मानवीय मूल्यबोध की अनुगूँज व्याप्त है। वैयक्तिक, सामाजिक, राजनैतिक, भूमिकाओं में अभिव्यक्त उनका विद्रोहात्मक स्वर उनके सामाजिकता के भावबोध का परिचायक है।
सिप्रभाकर माचवे उपन्यास साहित्य में कथ्य एवं रूप शैली में प्रयोग तथा नवीनता के पुजारी रहे हैं, किन्तु वे साहित्य एवं जीवन में भी बंधन मुक्त हैं। यह बंधनमुक्तता उन्हें उच्छृंखल तथा संयमहीन नहीं बनाती, बल्कि सृजनात्मक बनाती है। सृजन के अनुशासन में बंधकर भी वे विभिन्न विधाओं का नया प्रयोग एवं पारस्परिक सम्मिश्रण करने में सक्षम तथा स्वतंत्र रहे हैं। उपन्यास साहित्य की संरचना एवं सृजन में यही नवीनता विद्यमान है। साहित्य की सृजन प्रेरणा उनकी दृष्टि से जीवन एवं जगत से सीधे प्रेरणा या दोनों के प्रति प्रेरणा में कोई विरोध नहीं। एक उत्कट अनुभूति के उत्स की तत्कालीन प्रतिक्रिया है, तो दूसरी उसकी समुचित बौद्धिक पूर्वाग्रह युक्त समीक्षा द्वारा कट कर की हुई जाँच का परिणाम है। इसी जगत् एवम जीवन के प्रेरणा स्वरूप उन्होंने उपन्यास-साहित्य में जो व्यक्त किया वहाँ समकालीन चतुर्दिक परिस्थितियों में जो घटित है, उसे भी उद्धृत किया है। वह उद्धृत आधुनिक युग के महानगरीय जीवन की विडम्वना तथा तत्कालीन समकालीनता है। पत्रकार-व्यक्तित्व के परिणामस्वरूप माचवे जी ने किसी भी सामाजिक आक्रोश को बेझिझक बेबाक दूर दृष्टिकोण में रखकर सामाजिक चेतना एवं उसके पहलुओं को जिस रूप में रूपायित किया वह भारतीय आधुनिक समाज एवं हिंदी साहित्य तथा एक महाराष्ट्रियन अहिंदी-भाषी साहित्यकार की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। अतः इन तथ्यों का, पहलुओं का अध्ययन, अनुसंधान होना अनिवार्यथा ।
आधुनिक युगीन महानगरीय सामाजिक समस्याओं को उपन्यासों के माध्यम से परखने के लिए डॉ. माचवे का उपन्यास साहित्य प्रासंगिक तथा प्रयोजनात्मक रहा है, यह अभिव्यक्त होना भी अत्यावश्यक था। यही तथ्य एवं विषयों की विविधता नवीनता के साथ व्यक्त है। अतः इस प्रकार के भावगत्, कलागत, बहुमूल्य योगदान के बावजूद भी डॉ. प्रभाकर माचवे एवं उनके उपन्यास साहित्य के समुचित मूल्यांकन की अपेक्षा, उपेक्षा की दृष्टि से देखकर अनेक असंगत धारणाएं भी रूढ़ हो चुकी हैं, इस प्रकार का एक अहिंदी भाषी साहित्यकार का महान कार्य असंगत कैसे हो सकता है?।
प्रस्तुत पुस्तक में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर डॉ. प्रभाकर माचवे के उपन्यास साहित्य का सामाजिक पक्ष की दृष्टि से समग्र विवेचन हुआ है। ग्रन्थ में डॉ. माचवे के उपन्यासों को सामाजिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में देखने का विनम्र प्रयास किया गया है। डॉ. माचवे का उपन्यास साहित्य भाव एवं शैली की प्रयोगशाला है, उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व में मानव मन की मूलभूत प्रवृत्तियाँ, द्वंद्व, अन्तर्द्वन्द्व, संघर्ष, विद्रोह, युवकों- युवतियों की आशा-निराशा, नारियों की अन्यान्य सामाजिक समस्याएं, अभिलाषा, निराशा आदि का प्रसार है। इन्हीं सामाजिक पहलुओं को सामाजिक चेतना में उद्घाटन करने की दिशा में प्रयास है। डॉ. माचवे के उपन्यास साहित्य में संलग्न इस ग्रन्थ में सामाजिक चेतना के अन्यान्य रूपों का अन्वेषण एवं विश्लेषण मेरा अभीष्ट रहा है। इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्याय अग्रलिखित रूप में है-
इसमें सामाजिक चेतना संकल्पना, स्वरूप, परिभाषा, समाज-अंग आदि की विवेचना करने के पश्चात चेतना शब्द का अर्थ स्वरूप विश्लेषण करते हुए चेतना के गुणों का विचार किया गया है तथा साहित्य की सामाजिक चेतना पर प्रकाश डाला गया है।
दूसरे अध्याय में- डॉ. प्रभाकर माचवे जी का व्यक्तित्व है, इसे आठ उपशीर्षकों
में विभाजित किया गया है। पहले उपशीर्षक में माचवे जी के जन्म-स्थान, जाति एवं पारिवारिक जानकारी का उल्लेख किया गया है। दूसरा शीर्षक-शिक्षा है, स्कूल की शिक्षा से लेकर पी-एच. डी. की उपाधि तकतथा शिक्षा लेते समय समस्यायें, अनेकानेक भाषाओं का अध्ययन आदि अध्ययनशील वृत्ति को सृजित किया गया है। विवाह तथा पारिवारिक जानकारी शीर्षक में महात्मा गाँधी जी की उपस्थिति में विवाह, विवाह खर्च तथा उनके पारिवारिक सदस्यों की जानकारी को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। चौथे उप शीर्षक में डॉ. माचवे का सम्बन्ध अध्ययन उपजीविका से रहा था उनका परिचय दिया गया है। पाँचवाँ उप शीर्षक-साहित्य सृजन है प्रारम्भिक रचना से लेकर अन्तिम रचनात्मक विभिन्न साहित्यिक विधाओं का परिचय दिया गया है। छठे उप शीर्षक में डॉ. माचवे जी के विदेश यात्राओं का विवरण दिया गया है। पुरस्कार में माचवे जी के जीवनकाल में उन्हें साहित्य सेवा के लिए प्रदान अनेक देशी-विदेशी पुरस्कारों का विवेचन है। डॉ. माचवे जी के साहित्यिक, सामाजिक व्यक्तित्व के अंतर्गत उनके व्यक्तित्व से संबंधित अनेक गुणों को स्पष्ट करने का भरसक प्रयास किया गया है।
तीसरे अध्याय में डॉ. माचवे जी के उपन्यासों के प्रतिपाद्य में अध्ययनार्थ उपन्यासों का सामाजिक चेतना की दृष्टि से चिंतन व्यक्त है ।
चौये अध्याय में- डॉ. प्रभाकर माचवे के उपन्यासों में सामाजिक चेतना समाज उपशीर्षक में निम्नवर्ग, मध्यमवर्ग, उच्च वर्ग के महानगरीय स्वरूप को व्यक्त किया गयाहै।
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