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प्राचीन संस्कृत साहित्य में सौन्दर्य- Pracheen Sanskrit Sahitya Mein Saundarya (In Specific Reference to Valmiki, Vyasa, Kalidasa, Bhavabhuti, Bana, Sriharsha)

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Specifications
Publisher: Abhyudaya Prakashan, Delhi
Author Divya Tripathi
Language: Hindi
Pages: 293
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 440 gm
Edition: 2018
ISBN: 9788193433843
HBU029
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Book Description

प्राक्कथन

समीक्षकों ने साहित्य को जीवन का प्रतिबिम्ब कहा है। इसलिए यह अनिवार्य हो जाता है कि उसमें जीवन के विभिन्न पक्षों का वर्णन हुआ हो। वास्तव में साहित्य जीवन के विभिन्न मनोवेगों, अन्तः प्रवृत्तियों तथा भावों की व्याख्या है। मनुष्य के हृदय में प्रेम, घृणा, भय, क्रोध आदि भाव समय-समय पर प्रकट होते हैं। किसी वस्तु से आकर्षण होता है तो किसी से विकर्षण। इन सबका साहित्य में वर्णन अपेक्षित होता है। तभी उसे पूर्ण कहा जाता है।

विभिन्न मनोभावों में सबसे प्रबल भाव प्रेम है जिसने जड़-चेतन सभी को प्रभावित किया हुआ है। इसलिए कोई प्राणी ऐसा नहीं जिसके जीवन में प्रेम तथा काम का भाव विद्यमान न हो। वैदिक ऋषि ने तो काम को ही सृष्टि के आरम्भ का मूल माना है- 'कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्'। ऋ. 10.129.4

प्रेम कई कारणों से उत्पन्न होता है। यद्यपि भवभूति जैसे चिन्तक ने सच्चे प्रेम को अहेतुक माना है, तथापि साहित्यकारों ने उसका उदय दर्शन या श्रवण-जन्य आकर्षण से स्वीकार किया है। आकर्षण किसी सुन्दर वस्तु की ओर ही होता है। साहित्यशास्त्रियों ने इसीलिए प्रेम के उदय के कारण को आलम्बन विभाव के रूप में प्रतिपादित किया है। यह आलम्बन जितना ही अधिक सुन्दर होगा, उतना ही आकर्षण होगा। शृंगार चूँकि उभयनिष्ठ प्रेम में ही माना गया है, अतः प्रेमी एवं प्रेमिका दोनों ही एक दूसरे के प्रति आलम्बन विभाव के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं और इसलिए दोनों का ही आकर्षक व्यक्तित्व व कमनीय कलेवर उपयुक्त आलम्बन के रूप में अपेक्षित है। इसलिए सभी साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं में आलम्बन के रूप में असाधारण सौन्दर्यशाली व्यक्तित्वों की सृष्टि की है।

आदिकवि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में राम, सीता दोनों के ही आकर्षक व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है। यहाँ तक कि रावण और उसकी रानियों के व्यक्तित्व में भी सौन्दर्य के दर्शन किये हैं।

महर्षि व्यास अपनी रचनाओं-पुराणों एवं महाभारत में जहाँ-तहाँ अपने महान् पात्रों के असाधारण कार्यों के अतिरिक्त उनके लोकोत्तर सौन्दर्यशाली व्यक्तित्व का भी चित्रण करते हैं। श्रीमद्भागवत में उन्होंने भीष्म के मुख से जो श्रीकृष्ण की स्तुति गवाई है, उसमें उनके त्रिभुवन मोहन रूप की चर्चा की है। रासक्रीड़ा के प्रसङ्ग में उनको कामदेव के मन को भी मोहने वाला बतलाया है। इसके अतिरिक्त समुद्र-मन्थन के समय में लक्ष्मी और मोहिनी के असामान्य सौन्दर्य की चर्चा भी उल्लेखनीय है। बालक कृष्ण के व्यक्तित्व के अनेक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। महाभारत में यथावसर आदर्श पात्रों- पाँचों पाण्डवों के पराक्रम के साथ-साथ उनके सुन्दर व्यक्तित्व का भी वर्णन किया है। द्रौपदी, कुन्ती, माद्री ये नारी सौन्दर्य के प्रतिमान हैं।

इनके पश्चात् कालिदास आते हैं, जिनकी रचनाओं में एक से एक बढ़कर सौन्दर्यशाली व्यक्तित्व प्रस्तुत किये गये हैं। दिलीप, रघु, अज, पुरुरवा, अग्निमित्र, दुष्यन्त, शिव ये सभी पुरुष पात्र तथा पार्वती, इन्दुमती, सीता, उर्वशी, मालविका और शकुन्तला ये असाधारण नारी-प्रतिमाएँ हैं जो कि अपने सौन्दर्य से स्वयं कवि को भी विस्मित करने वाली हैं। उन्होंने जहाँ-तहाँ विस्तृत वर्णनों द्वारा या टिप्पणियों द्वारा उन अपनी सौन्दर्य प्रतिमूर्तियों की विशेषताओं की ओर संकेत किया है।

इसी प्रकार उनके उत्तरवर्ती कवियों में श्रीहर्ष ने अपने नायक-नायिका नल और दमयन्ती के असाधारण सौन्दर्य का वर्णन किया है। दमयन्ती के सौन्दर्य के वर्णन में तो वे अघाते नहीं हैं। जब कभी भी प्रसङ्ग आता है वहीं उसके नख-शिख का वर्णन करने लग जाते हैं। अतः दमयन्ती का कई बार सौन्दर्य वर्णन हुआ है। और इस प्रसङ्ग में वे भावातिरेक में बह कर सीमा का अतिक्रमण भी कर गये हैं।

सौन्दर्य-चित्रणों की परिकल्पना में बाण का अपना असाधारण स्थान है। वे पाठक को ऐसे अद्भुत सौन्दर्य-लोक में पहुँचा देते हैं जो उसके लिए सर्वथा अपरिचित है। महाश्वेता और पुण्डरीक तो उनके कल्पना-लोक के असामान्य जीव हैं ही। कादम्बरी के महल में सौन्दर्य की जिस अतिभूमि की कल्पना उन्होंने की है, हमारी दृष्टि में वह विश्व-साहित्य में दुर्लभ है। कादम्बरी की दासियाँ और सखियाँ भी उस अद्भुत-सौन्दर्य-लोक के नागरिक हैं। तब कादम्बरी जो कि उनकी इस विलक्षण सृष्टि की नायिका है या अधिष्ठात्री देवी है, उसके सौन्दर्य का तो अनुमान ही कौन लगा सकता है?

भवभूति ने भी अपने पात्रों राम, सीता, लव और कुश इन चारों के प्रसङ्ग में अपनी सौन्दर्य सम्बन्धी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। परन्तु वे इसमें इतने नहीं खुले हैं जितने कि मालती-माधव में। तो भी जहाँ-तहाँ उन्होंने प्रकृति और पात्रों के सौन्दर्य-वर्णन में अपने सौन्दर्य सम्बन्धी आदर्शों को प्रस्तुत किया है।

संसार की अन्यान्य समृद्ध भाषाओं के साहित्यकारों की सौन्दर्यानुभूति का विवेचन समय-समय पर होता आया है किन्तु संस्कृत साहित्य में जहाँ सौन्दर्य का एक निजी वैशिष्ट्य है, उसका वैज्ञानिक विधि से साङ्गोपाङ्ग विवेचन अभी तक किसी ने नहीं किया। विद्वानों ने संस्कृत वाङ्मय की आलोचना करने में कमी तो नहीं की, फिर भी उसमें वर्णित सौन्दर्य के विवेचन करने में जो कार्पण्य दिखाया गया है, उसे देखकर आश्चर्य होता है. इस दिशा में उनका प्रयत्न दिशावलोकन मात्र रहा है। उसका सर्वाङ्गीण वर्णन, वह भी एक स्थान पर सुदुर्लभ है। अवश्य ही दृष्टिपात कई स्थानों पर कई ढंग से किया गया है।

संस्कृत के कवियों की सौन्दर्य-चेतना उनकी रचनाओं में व्यापक रूप से सम्माहित है। उसका स्वरूप निर्धारण गवेषण का विषय बना रहा। उसी पर यहाँ विचार करने का प्रयास किया गया है। समस्त संस्कृत साहित्य का अवगाहन कर सौन्दर्य संकल्पना को निर्धारित करना एक ग्रन्थ की सीमा से कहीं अधिक है। फलतः प्राचीन संस्कृत साहित्य में विद्यमान सौन्दर्य की अवधारणा को खोज का विषय बनाया। यह इस लिए भी आवश्यक हो गया कि प्राचीन तथा अर्वाचीन साहित्य की सौन्दर्य संकल्पना में बहुत बड़ा अन्तर है। समस्त प्राचीन संस्कृत साहित्य में उद्भावित सौन्दर्य-भावना का अध्ययन भी ग्रन्थ के कलेवर को आवश्यकता से अधिक बढ़ा सकता था अतएव केवल प्रसिद्ध एवं मार्ग निर्माता कवियों की कृतियों को ही अध्ययन का विषय बनाना पड़ा।

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