भाषा का सम्बन्ध मानव समाज के साथ होने से उसका सीधा सम्बन्ध उसकी संस्कृति से है। इसीलिए संस्कृति के विकास के साथ भाषा का विकास जुड़ा रहता है। विकास की इस अविदित गति से भाषा का एक इतिहास हो जाता है, जिससे उस भाषा में लिखे साहित्य के द्वारा हम अपने समाज की परिवर्तनशील प्रवृत्ति के साथ अपनी संस्कृति से भी परिचित होते हैं। मनुष्य की भाषा सृष्टि के आरम्भ से ही निरन्तर प्रवहमान रही है पर इस प्रवाह के आदि और अन्त का पता नहीं है। विश्व में करीब 250 परिवार की भाषाएँ विद्यमान हैं। प्राकृत भाषा के स्थान निर्धारण के लिए विद्वानों ने उनमें से मुख्य रूप से 12 प्रकार के भाषा परिवारों का उल्लेख किया है। ये हैं भारोपीय परिवार, सेमेटिक परिवार, हैमेटिक परिवार, चीनी परिवार, यूराल अल्टाई परिवार, द्राविड परिवार, मैलोपालीनेशियन परिवार, बंटू परिवार, मध्य अफ्रीका परिवार, आस्ट्रेलिया प्रशान्तीय परिवार, अमेरिका परिवार, शेष परिवार।
उपर्युक्त भाषाओं में प्राकृत भाषा का सम्बन्ध प्रथम भारोपीय परिवार से है। इस भारोपीय परिवार के भी 8 उपभाषा परिवार हैं आरमेनियन, बाल्टैस्लैबौनिक, अलवेनियम, ग्रीक, आर्य परिवार (भारत, इरानी), इटैलिक, कैल्टिक, जर्मन। इन 8 परिवारों में भी हमारी प्राकृत का सम्बन्ध आर्य परिवार से हैं। इस आर्य परिवार के भी 3 शाखा परिवार हैं ईरानी शाखा परिवार, दरद शाखा परिवार, भारतीय आर्य शाखा परिवार। प्राकृत भाषा का कौटुम्बिक सम्बन्ध इन तीन शाखा परिवारों में से भारतीय आर्य शाखा परिवार से है। प्राकृत भाषा को जानने हेतु भारतीय आर्य शाखा परिवार के विकास को जानना आवश्यक है। विद्वानों ने भारतीय आर्य परिवार के विकास को तीन युगों में विभक्त किया है
1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा काल (2000 या 1600 ई. पूर्व से 600 ई. पूर्व)
ऋग्वेद काल से सदियों पूर्व सिन्धु घाटी में विकसित मानव केन्द्रों की सभ्यता व संस्कृति उच्च कोटि की थी। सिन्धु सभ्यता के नागरिक साहित्यिक पाश से मुक्त जिस जन प्रचलित भाषा का कथ्य रूप में प्रयोग करते थे वही जन प्रचलित भाषा अपने अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में भारत देश की आद्य भाषा जानी जाती है। इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से ही वैदिक साहित्य की रचना हुई जो छान्दस् के नाम से जानी जाने लगी। जनप्रचलित भाषा से उद्भूत यह छान्दस् ही उस समय की साहित्यिक प्राचीन आर्य भाषा बन गई। इस छान्दस् भाषा में लोक भाषा के अनेक स्रोत मिश्रित थे। व्याकरण के नियम से रहित यह छान्दस् भाषा अपने मौलिक रूप में विद्यमान थी।
तदनन्तर उदीच्य प्रदेश गान्धार के 'शालातुर गाँव में जन्मे तथा तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त किये भारतीय संस्कृति के असाधारण विद्वान पाणिनी (ई. पूर्व 5वीं शताब्दी) ने अपनी अष्टाध्यायी के लगभग 4000 सूत्रों में व्याकरण का सर्वांगीण विवेचन कर छान्दस के आधार से तत्कालीन भाषा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर कर नई भाषा को जन्म दिया। यह नई भाषा लौकिक संस्कृत कहलाई। पाणिनि का जन्म एवं शिक्षा स्थान उदीच्य प्रदेश ही था, अतः पाणिनि कृत संस्कृत भाषा उदीच्य भाषा के नाम से भी जानी गयी। इस तरह वैदिक भाषा (छान्दस्) का उद्भव वैदिक साहित्य के समानान्तर की अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में कथ्य रूप से प्रचलित जन भाषा से तथा लौकिक संस्कृत का उद्भव वैदिक भाषा से हुआ। अतः इस प्रथम प्राचीन युग में आर्यों की तत्कालीन बोलचाल की भाषा, वैदिक छान्दस् एवं पाणिनी कृत लौकिक संस्कृत का अन्तर्भाव होता है।
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