| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author A. Prabhachandra | |
| Language: Sanskrit and Hindi | |
| Pages: 434 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9.00x6.00 inch | |
| Weight 580 gm | |
| Edition: 2018 | |
| ISBN: 9789326355810 | |
| HBX964 |
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न्यायशास्त्र मेरा आरम्भ से प्रिय विषय रहा है। बाल्यकाल से ही मेरे पूज्य पिताजी ने 'पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्' आदि व्याप्तियों का तथा प्रमाण और नय के भेद का ज्ञान खेल-खेल में ही सिखा दिया था। एक वो दिन थे और आज का दिन है, खेल-खेल में सीखी गयीं ये न्याय शास्त्र की शब्दावलियाँ कब मेरी रुचि, कार्य और अनुसन्धान का विषय बन गयीं, पता ही नहीं चला।
जैन-न्याय के धुरन्धर विद्वान् पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जी को देखने-सुनने का सौभाग्य तो मेरा नहीं रहा, किन्तु बाल्यावस्था में ही बनारस में जैन न्याय-परम्परा के अप्रितम मनीषी पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं. डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, पं. अमृतलाल जी शास्त्री, प्रो. उदयचन्द जी जैन आदि विद्वानों की गोद में खेलने और इन गुरुजनों का सान्निध्य, स्नेह प्राप्ति का मुझे सौभाग्य प्राप्त रहा है। विद्वानों की यह पीढ़ी अब संसार में नहीं है, किन्तु आज जब इनके साहित्य का अध्ययन करता हूँ तो मुझे अपने सौभाग्य पर गौरव होता है कि मैं इनके वात्सल्य-स्नेह का अभिन्न पात्र रहा हूँ।
जैन-न्याय के आरम्भिक शास्त्रों का अध्ययन मैंने जयपुर की जैन पाण्डित्य परम्परा से किया है। आदरणीय गुरुवर डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल जी, पं. अभयकुमार शास्त्री जी. पं. रतनचन्द भारिल्ल जी, प्राचार्य डॉ. शीतलचन्द जी जैन, प्राचार्य पं. शान्तिकुमार जी पाटील आदि विद्वानों के मुख से मुझे आप्तमीमांसा, परीक्षामुखसूत्र, न्यायदीपिका, प्रमेयरत्नमाला, आप्तमीमांसा तथा नयचक्र आदि ग्रन्थों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं में मुझे समणी मंगलप्रज्ञा जी, समणी चैतन्यप्रज्ञा जी, समणी ऋजुप्रज्ञा जी तथा डॉ. अशोक कुमार जैन, डॉ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी जी आदि विद्वानों से द्रव्यानुयोगतर्कणा, सन्मतितर्कप्रकरण, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, सप्तभंगीतरंगिणी आदि ग्रन्थ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मैंने जब आदरणीय गुरुवर प्रो. दयानन्द भार्गव जी के निर्देशन में नयवाद पर शोधकार्य प्रारम्भ किया, तब उनकी कृपा से मुझे भारतीय दर्शन के विविध मूलग्रन्थों को पढ़ने का विशेष अवसर प्राप्त हुआ। आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाण मीमांसा पर वे समणी वर्ग की विशेष कक्षायें लेते थे, उसमें मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। न्याय विषय पर उनके गम्भीर चिन्तन को सुनकर मेरी रुचि इस विषयक अनुसन्धान में निरन्तर बढ़ती ही गयी।
उसी दौरान मुझे शोधकार्य के उद्देश्य से जैनन्याय के गौरव ग्रन्थ आचार्य प्रभाचन्द्र कृत प्रमेयकमलमार्त्तण्ड को मूल पंक्तिशः अध्ययन करने की आवश्यकता महसूस हुयी। गुरु आज्ञा तथा पिताजी की प्रेरणा से इस ग्रन्थ को पढ़ने के लिए मैं पुनः काशी आया। यहाँ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के आचार्य गुरुवर्य आदरणीय सुधाकर दीक्षित जी ने न्याय पद्धति से आचार्य प्रभाचन्द्र का यह अप्रतिम ग्रन्थ पढ़ाने हेतु स्वीकृत प्रदान कर महती कृपा की। उन्होंने नित्य प्रातःकाल की बेला में अत्यन्त वात्सल्य स्नेहपूर्ण भाव से मुझे इस ग्रन्थ की पंक्ति लगाना सिखाया। तभी से मेरे मन में इस ग्रन्थ को छात्रों और अन्य सभी को सरल और सार रूप में प्रस्तुत करने का दृढ़ विचार निरन्तर बना रहा।
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