एक सज्जन बड़े दिनों बाद मुझसे घर पर मिलने आए। उनके हाथ में पातंजलि योग सूत्र पुस्तक देखकर मैं चौंका और सहसा मेरे मुँह से निकला, "आप तो 'खाओ, पिओ और मौज करो' सिद्धान्त वाले हैं न ! फिर यह योग की पुस्तक आपने क्यों रखी है। क्या खरीद कर लाए हैं, या कि किसी ने पढ़ने को दे दी।"
वे मुस्कराते हुए बोले, "पुस्तक तो खरीद कर ही लाया हूँ किन्तु, इस पुस्तक में आसन-प्राणायाम-ध्यान कैसे किया जाए, इसका उल्लेख नहीं मिला। सोचा ! आपसे चर्चा करूं तो शायद कुछ हल निकले।"
मैंने कहा, "कबीर ने ठीक ही कहा है-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।
महोदय ! कहीं पुस्तक पढ़ने से भी ज्ञान मिलता है। सांसारिक ज्ञान तो विधियों पर टिका है किन्तु, कबीर जिस ज्ञान की बात कर रहे हैं, वह विषय के प्रति लगाव रखने से अपने-आप आ जाता है। आप जिस पुस्तक को अपने हाथ में रखे हैं, वह 'पातंजलि योग-सूत्र' मूल है। उसमें विधियाँ कहाँ से मिलेंगी। विधियाँ तो व्याख्याकारों ने बाद में जोड़ी हैं। आज पातंजलि के नाम से अनेक योग-केन्द्र चल रहे हैं। वहाँ जाइए और विधिपूर्वक योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करिए।"
मेरी बात सुनकर पिछले दिनों का स्मरण करते हुए, वे बोले- “मैं जानता हूँ कि आप वर्षों से योग करते हैं और पचासी वर्ष की आयु में भी आप में स्फूर्ति देखने को आ रही है। आज के युवकों में वैसी स्फूर्ति देखने को नहीं मिलती। तो मैंने सोचा जो योग का व्यापार कर रहे हैं, उनकी अपेक्षा जो नित्य योग में जी रहे हैं, उनके अनुभव का लाभ मिलना चाहिए, तो आपसे मिलने की जिज्ञासा बनी। मेरा अनुरोध है कि आप इस विषय पर भी कुछ लिखें, ताकि नई पीढ़ी की भी पातंजलि योग की दिशा में एक नई सोच बने। सोच से मेरा आशय है- उनका व्यक्तित्व आकर्षक बने। क्या योग में व्यक्तित्व निर्माण के तथ्य भी खोजे जा सकते हैं।" उनकी जिज्ञासा थी। "योग द्वारा व्यक्तित्व निर्माण की कल्पना करने से पूर्व आपने सोचा - व्यक्तित्व से आशय क्या है?" मैंने उन सज्जन से पूछा।
वे बोले, "नहीं। फिर भी मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि प्रत्येक धातु, प्रत्येक पौधा, प्रत्येक प्राणी का एक व्यक्तित्व होता है और मनुष्य में यह व्यक्तित्व अधिक विस्तृत होता है क्योंकि, उसके पास ज्ञान का भंडार है।"
मैंने कहा, "व्यक्तित्व की भौतिक अवधारणा हाड़-माँस की गठरी को लेकर की गई है किन्तु, योग में जिस व्यक्तित्व की कल्पना की गई है, वह है- 'मानवीय व्यक्तित्व का दिव्य व्यक्तित्व में रूपान्तरण।' याद रखिए, भौतिक व्यक्तित्व का विकास करना बुरी बात नहीं है किन्तु, उसके अधीन हो जाना हानिकारक है। सांसारिक मूल्यों पर आधारित व्यक्तित्व को विकसित करने से क्या मिलेगा? वह तो नित्य परिवर्तनशील है। भारत के ऋषियों ने मानव जाति के लिए योग द्वारा ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना की है कि, जिससे आप एक व्यक्ति के नाते ही न पहचाने जायें बल्कि उस चेतना के द्वारा पहचाने जायँ जो दिव्य ज्ञान के साथ विस्तृत होती जाती है। इद्रियों और अनुमान की शक्ति द्वारा प्राप्त व्यक्तित्व अन्तिम नहीं होता। वह व्यक्तित्व तो केवल सँवारा हुआ और आंशिक व्यक्तित्व होता है। सच्चे व्यक्तित्व का निवास तो हमारे अन्तर में है। इस प्रकार के व्यक्तित्व-निर्माण में प्राणायाम का विशेष महत्त्व रहता है।
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