भूमिका
मुक्तिबोध की कहानियाँ कोई क्यों पड़े? मुक्तिबोध यानी वैचारिकता, दार्शनिकता और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल, गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की बेतरह उलझी महीन परतों की सतत जाँच करती हठपूर्ण, अपराजेय, संकल्प-दृढ़ता। न. रसलोलुप पाठक उत्खनन और अनुसंधान की श्रमसाध्य प्रक्रिया से जुड़कर पसीने-पसीने नहीं होना चाहता। वह चाहता है सीधी-सादी कहानियाँ-पान की गिलौरी-सी मीठी और घुलनशील रस, गंध, रंग और जायके से जुबान को सराबोर करतीं। मुक्तिबोध को ऐसे रसलोलुप पाठकों से परहेज है। उनके लिए साहित्य एक दृष्टि और संस्कार है-जीवन की पड़ताल के बहाने अपनी भीतरी संरचना के कारकों और अन्तर्विरोधों को कई-कई कोणों से निरखने-गुनने का निर्भीक सामर्थ्य देता संस्कार। यानी आत्मसाक्षात्कार और आत्मपरिष्कार की अनिवार्य प्रक्रिया। अपनी मनुष्यता को चीन्हे बिना और 'मनुष्य' की गौरवमयी आभा से दीप्त हुए बिना क्या व्यक्ति दूसरे की मनुष्यता की रक्षा कर पाएगा? मुक्तिबोध बस इतना ही तो करते हैं कि व्यवस्था और जीवन के खटराग से बंधे बेतहाशा दौड़ते बदहवास व्यक्ति को बॉर्ह फैलाकर धाम लेते हैं और ले चलते हैं मन के उन बीहड़ निर्जन भुतहे अँधेरों की ओर जहाँ से पीठ मोड़कर उजालों की तलाश में अपने से दूर होता चलता है व्यक्ति। यह लौटना पलायन नहीं, जीवन और व्यक्तित्व के उद्दाम स्रोतों को खोजना है; व्यवस्था के बरक्स अपनी नियति और स्थिति को समझना है। भविष्य के नाम पर समूचे समाज और समय के निर्माण में अपनी सर्जनात्मक भूमिका का संधान करना है। नून-तेल- लकड़ी की दुश्चिन्ताओं में घिरकर अपनी उदात्त मनुष्यता से गिरते व्यक्ति की पीड़ा और बेबसी, सीमा और विराटत्व से परिचित नहीं कराती? मुक्तिबोध की कहानियाँ अखंड उदांत आस्था के साथ आम आदमी को उसके भीतर छिपे इस स्रष्टा महामानव तक ले जाती हैं। यह जीवन का अभिषेक है-निस्सीम अनन्त जीवन का अभिषेक जिसे मूल्य और व्यवस्था प्रदूषित और प्रतिबंधित नहीं कर सकते। सृजनशीलता का अर्थ अपने से बाहर कुछ नया रचने की अभिमानपूर्ण उत्कंठा नहीं, 'प्रूफ कॉपी में टूटे हुए अक्षर' सरीखी अपने भीतर की गढ़त को बेहतर और मानवीय करते रहने की सतत व्याकुलता है। अजीब अन्तर्विरोध है कि मुक्तिबोध की कहानियाँ एक साथ 'विचार कहानियाँ' हैं और आत्मकथात्मक भी। 'आत्म' की घनघोर संलग्नता और 'विचार' की निःसंग निर्लिप्तता । भोक्ता और द्रष्टा एक साथ। लेकिन टकराव का यह बिन्दु मुक्तिबोध की कहानियों का केन्द्रीय स्वर नहीं। ऐसा होता तो टकराव तोड़-फोड़ करते ठहराव का महिमामंडित स्थल बनकर कहानियों को जड़ीभूत कर देता। मुक्तिबोध एक गहन अन्तर्दृष्टि और गगनभेदी दूरदृष्टि के साथ टकराव की अनिवार्य स्थिति का अतिक्रमण करते हैं। सिर्फ विश्लेषण नहीं, संश्लेषण भी; निष्क्रिय दार्शनिकता नहीं, वैचारिक सक्रियता भी। इसलिए उनकी कहानियों में न घटनाओं का मकड़जाल है, न बेवजह पात्रों की भीड़; न बड़बोलापन है, न संकोच। है तो बीहड़ नीरवता और नीम अँधेरे से बुना रहस्यमय वातावरण जो तमाम चौंधियाते प्रलोभनों और भ्रमित करते आलोक-वृत्तों से दूर व्यक्ति और व्यवस्था, जीवन और जगत को कठघरे में खड़ा कर देता है। जाहिर है अगली स्वाभाविक परिणति के रूप में शेष रहता है आत्मविश्लेषण और आत्मस्वीकार। लेकिन यह अँधेरा अवसाद, हताशा और निरुपायता का चरम संकट नहीं, वरन् अँधेरे में छिपे जीवन, राग, गति.
पुस्तक परिचय
मुक्तिबोध यानी वैचारिकता, दार्शनिकता और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल, गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की वेतरह उलझी महीन परतों की सतत जाँच करती हठपूर्ण, अपराजेय, संकल्प-दृढ़ता। नून-तेल-लकड़ी की दुश्विन्ताओं में घिरकर अपनी उदात्त मनुष्यता से गिरते व्यक्ति की पीड़ा और बेबसी, सीमा और संकीर्णता को मुक्तिबोध ने पोर-पोर में महसूसा है। लेकिन अपराजेय जिजीविषा और जीवन का उच्छल उद्दाम प्रवाह क्या 'मनुष्य' को तिनके की तरह बहा ले जानेवाली हर ताक़त का विरोध नहीं करता? जिजीविषा प्रतिरोध, संघर्ष, दृढ़ता, आस्था और सृजनशीलता बनकर क्या मनुष्य को अपने भीतर के विराटत्व से परिचित नहीं कराती? मुक्तिबोध की कहानियाँ अखंड उदात्त आस्था के साथ आम आदमी को उसके भीतर छिपे इस स्रष्टा महामानव तक ले जाती हैं। अजीब अन्तर्विरोध है कि मुक्तिबोध की कहानियाँ एक साथ 'विचार कहानियाँ' हैं और आत्मकथात्मक भी। मुक्तिबोध की कहानियाँ प्रश्न उठाती हैं-नुकीले और चुभते सवाल कि' ठाठ से रहने के चक्कर से बँधे हुए बुराई के चक्कर' तोड़ने के लिए अपने-अपने स्तर पर कितना प्रयत्नशील है व्यक्ति? मुक्तिबोध की जिजीविषा-जड़ी कहानियाँ आत्माभिमान को बनाए रखनेवाले आत्मविश्वास और आत्मबल को जिलाए रखने का सन्देश देती हैं-भीतर के 'मनुष्य' से साक्षात्कार करने के अनिर्वचनीय सुख से सराबोर करने के उपरान्त।
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