संस्कृति ट्रायलोजी का तृतीय पुष्प । भव्य भारतवर्ष के पूर्वी प्रवेश झारखंड का पश्चिमी जनपव है पलामूं। अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य का जीवन्त प्रतिमान है पलामूं। ऐतिहासिक पलामूं किले का अधिष्ठान है पलामूं। महाराज मेविनीराय के यशस्वी गौरव का आख्यान है पलामूं। कोयल, ओरंगा और अमानत के पवित्र जल से अभिसिंचित स्थान है पलामूं। पलास, लाह और महुआ का सुरभित उद्यान है पलामूं। नेतरहाट पठार के सूर्यास्त और सूर्योदय का अंशुमान है पलामूं। बेलला नेशनल पार्क में मृगछीनों का नृत्य और कोकिल का मधुरिम गान है पलामूं। पूर्वी भारत के गोवा के रुप में प्रसिद्ध फिल्मस्थान है पलामू। रामचरितमानस के नवाह्न पारायण का अनुष्ठान है पलामूं। ""पूर्वजों की पुण्य-भूमि"" इसी पलामूं जनपद का पैनोरमा है। पधारो म्हारे देश !! जामुन्डीह, गाँव बड़ा सुहावन; सादर आमंत्रण । प्रत्येक आलेख पठनीय भाषा-शैली ऐसी कि पढ़ना प्रारंभकिया, तो अध्याय समाप्त किए बिना ठहरने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आपने पुस्तक पढ़ लिया तो भारतीय ज्ञान-गौरव से परिपूर्ण बौद्धिकता के शिखर पर होंगे आपआत्म-विश्वास से भरा हुआ।
डॉ. विनोद कुमार तिवारी प्राच्यविद्या के आचार्य एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद हैं। एक अध्यापक, एक मोटिवेटर, एक प्रोफेशनल एडवाइजर, एक प्रखर राष्ट्रवादी और एक उत्कृष्ट वक्ता, आपके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं। आप इंडियन नालेज सिस्टम, भारतीय ज्ञान परंपरा के सुधी वक्ता हैं।
डॉ. तिवारी ने अंग्रेजी साहित्य में डाक्ट्रेट किया तथा राष्ट्रपति के कर कमलों से सम्मानित हुए। आपकी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ""The Essence of Gandhian Philosopy: Its Impact On Our Literature"" की प्रस्तावना जम्मू कश्मीर के पूर्व महाराजा डॉ. कर्ण सिंह जी ने लिखा है। विचारों की गहराई और सन्दर्भों की व्यापकता आपके शोध आलेखों की विशेषता है, जिन्हें राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल्स में पढ़ा जा सकता है। आप आकाशवाणी के राष्ट्रीय व विदेशी प्रसारण सेवा में नियमित वक्ता हैं।
डॉ. तिवारी विगत तीन दशकों से नेतरहाट विद्यालय सहित शिक्षा मंत्रालय के प्रतिष्ठित संस्थानों में अध्यापक रहे हैं, लेकिन आपकी विद्वता कक्षाओं की चारदीवारी तक कभी सीमित नहीं रही। आप वेभ्स; वर्ल्ड असोसिएशन औफ वैदिक स्टडीज, साहित्य अकादमी सहित कई एकेडमिक संस्थानों से जुड़े हैं जिनके राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय काफ्रेंस में वक्ता के रुप में आपकी सक्रिय सहभागिता देखी जा सकती है। भारतीय ग्रंथों और पाश्चात्य साहित्य से आपके उद्धरण श्रोताओं को मुग्धता प्रदान करते हैं। सरकारी और कार्पोरेट कार्यालयों में अपने अधिकारियों में कार्य-कुशलता अभिवृद्धि के निमित्त मोटिवेशन व्याख्यान के लिए आपको आमंत्रित किया जाता है। डॉ. तिवारी का लेखन और व्याख्यान युवा पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान करते हैं।
डा. विनोद कुमार तिवारी प्राच्यविद्या के आचार्य और यशस्वी लेखक हैं, तथा उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक, ""पूर्वजों की पुन्य-भूमि"" की प्रस्तावना लिखने का सम्मान मुझे प्राप्त हुआ है। सर्वप्रथम इस श्रेष्ठ कृति के लिए मैं लेखक डा. तिवारी को हृदय से बधाई देता हूं।
आधुनिक भारतीय राष्ट्र के पितृ-पुरुष महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया है। वेदों की ओर लौटने से महर्षि का तात्पर्य अपने पूर्वजों से प्राप्त अपनी महान संस्कृति और राष्ट्र की जड़ों की ओर लौटने से है। डा. तिवारी द्वारा लिखित कृति ""पूर्वजों की पुन्य-भूमि"" महर्षि दयानंद के इसी आह्वान का जीवन्त प्रतिमान है।
लेखक डा. तिवारी भारतीय ज्ञान परंपरा 'इंडियन नौलेज सिस्टम' के आधिकारिक विद्वान हैं। अपनी सद्य-प्रकाशित कृति ""रामायण कथा की विश्व-यात्रा"" में डा. तिवारी ने विश्वभर के देशों में रामायण कथा अर्थात् भारतीय संस्कृति के गहरे प्रभाव का अन्वेषण किया है। ""हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता"" नामक एक अन्य पुस्तक में डा. तिवारी ने अन्तर्राष्ट्रीय विद्वत मंचों पर प्रस्तुत किए गए अपने शोध-पत्रों में भारतीय ज्ञान के विविध पक्षों का विषद विवेचन किया है। डा. तिवारी कृत ""द इंसेंस और गांधीयन फिलोसॉफी (इट्स इम्पैक्ट ओन अवर लिटरेचर)"" एक विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है। जम्मू कश्मीर के महाराजा और भारतीय वांग्मय के प्रख्यात विद्वान डा. श्रीमान कर्ण सिंह जी ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है। यह सुखद संयोग है कि डा. तिवारी पलामू के यशस्वी भूमि-पुत्र हैं। ""पूर्वजों की पुन्य-भूमि"" वस्तुतः पलामू की ही पुन्य-भूमि है। समझा जा सकता है कि इस पुस्तक में लेखक ने पलामू को एक राष्ट्रीय फलक प्रदान किया है।
- ""पलामू की प्रस्तावना"" पुस्तक का प्रथम ही नहीं अपितु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। यह वह पाइवट है, जिसके परितः ग्रंथ का सम्पूर्ण कलेवर गुथित है। लेखक ने बड़े ही मनोयोग से पलामू की प्राकृतिक सुषमा, पलामू का इतिहास, चेरो महाराजाओं का इतिवृत्त, पलामू का नाम-विवेचन, पलामू के महापुरुषों, पलामू के शिक्षण संस्थान, पलामू की समाज व्यवस्था, पलामू का भू-राजनीतिक परिदृष्य, पलामू का उज्जवल भविष्य इत्यादि विविध आयामों का विषद विवेचन किया है।
रामायण कथा की विश्व-यात्रा, हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता, और पूर्वजों की पुण्य-भूमि संस्कृति ट्रायोलोजी की तीनों पुस्तकों के आधान की पृष्ठभूमि चूंकि एक ही है, अतएव कृतज्ञता ज्ञापन एवं प्राक्कथन का लेखकीय वक्तव्य भी मैंने संयुक्त ही रखा है।
मेरी औपचारिक उच्च शिक्षा अंग्रेजी साहित्य में हुई, डाक्ट्रेट हुआ, अध्यापक भी अंग्रेजी साहित्य का बना। अलबत्ता मेरी प्रवृति सदैव प्राच्यविद्या के अध्ययन और शोधकार्य की रही। कालेज के दिनों में प्राच्यविद्या विशारद प्रोफेसर डा. हरवंश लाल ओबरॉय का सानिध्य प्राप्त हुआ। डा. ओबरॉय प्रो. चमनलाल और आचार्य डा. रघुवीर की परंपरा में प्राच्यविद्या के अधिष्ठाता थे। भिक्षु चमनलाल ने दक्षिण तथा उत्तर दोनों अमेरिका में प्राचीन सभ्यता के अवशेषों का अन्वेषण करके ""हिन्दू अमेरिका"" जैसे ग्रंथ का प्रणयन किया तथा यह स्थापित किया कि मात्र एक हजार वर्ष पूर्व अमेरिका भारतीय संस्कृति के प्रभावों से आप्यायित रहा। प्रो. डा. रघुवीर संविधान सभा तथा पुनः राजसभा के माननीय सदस्य रहे, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी इत्यादि के विद्वान तथा दर्जनों देशी, विदेशी भाषाओं के जानकार, पुरातत्वविद्, और अद्भुत शब्दकोशकार। आचार्य रघुवीर ने यह सिद्ध किया कि संस्कृत के मात्र कुछ धातुओं में उपसर्ग और प्रत्यय लगाकर हिन्दी और सभी भारतीय भाषाओं में लाखों शब्द बनाए जा सकते हैं। उन्होंने स्वयं लगभग डेढ़ लाख सांविधानिक, प्रशासनिक तथा वैज्ञानिक शब्दावली का निर्माण किया। बहुत कम लोगों को यह पता है कि संसद, लोकसभा, राज्यसभा, सचिव, सचिवालय, अध्यक्ष, आकाशवाणी, दूरदर्शन इत्यादि सांविधानिक शब्दावली के जनक डा. रघुवीर हैं, जिनकी संस्तुति से संविधान सभा द्वारा इन्हें स्वीकृत किया गया। डा. रघुवीर ने चीन, मंगोलिया, मंचुरिया, रशिया सहित अगणित देशों की यात्राएं की तथा विश्व भर में भारतीय संस्कृति के गहरे प्रभाव का आख्यान करती पुरातत्व सामग्री सैकड़ों कास्त सन्दुकों में संजोकर भारत लाए। भारतीय ज्ञान के विविध आयामों पर शोध एवं अध्ययन के निमित्त डा. रघुवीर ने सरस्वती विहार (International Academy of Indian Culture) की स्थापना की।
प्रो. हरवंश लाल ओबरॉय को डा. रघुवीर का बौद्धिक उत्तराधिकारी कहा जा सकता है। जन्म रावलपिंडी में, पंजाब और दिल्ली विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक रहे, युनेस्को की एक संविदा पर यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भारतीय संस्कृति पर व्याख्यान के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया। सैकड़ों विश्वविद्यालयों में डा. ओबरॉय के सहस्त्रों व्याखान हुए। इसी क्रम में एक महती घटना का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक है जो डा. ओबरॉय की जीवन यात्रा में एक प्रस्थान बिन्दु साबित हुआ।
11 सितंबर, 1963, संयुक्त राज्य अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय का विशाल सभागार, दर्शकों में अद्भुत उत्साह, अवसर था विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के सम्बोधन की सप्तदश वर्षपूर्ति समारोह। मुख्य वक्ता द्वितीय विवेकानंद के रूप में लोकप्रिय डा. हरवंश लाल ओबरॉय। दर्शकों में उपस्थित थे भारतीय हिन्दू संस्कृति के संरक्षक और प्रतिष्ठित बिड़ला परिवार के शिखर पुरुष श्रीमान युगल किशोर बिड़ला भी। अभिभूत हुए डा. ओबरॉय को सुनकर। बिड़ला जी ने उन्हें डा. रघुवीर की एक पुस्तक भेंट की, उन्हें बिड़ला संस्थानों में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया तथा सम्प्रति झारखंड की राजधानी और तत्कालीन दक्षिणी बिहार के वनवासी बहुल क्षेत्र के मुख्यालय रांची को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का आग्रह किया। 1964 में डा. ओबेरॉय रांची आए और बी.आई.टी. बिड़ला प्राद्यौगिकी संस्थान, मेसरा, रांची में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनुरूप मानवीकि संकाय की स्थापना हुई तथा डा. ओबरॉय उसके प्रधान बनाए गए।
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