श्रीमद्भगवद्गीता जो अपने इस रूप में पांच हजार वर्ष पुरानी कृति है का प्रचार-प्रसार सर्वसाधारण में बहुत कम हो पाया है। इसका कारण उसका देववाणी में होना तथा उसका अनुवाद और टीकाएं जो लिखी गयी हैं वे इतनी बोझिल हैं जो विद्वजन तथा ज्ञानियों को ही ग्राह्य हैं।
रसिक शिरोमणि योगिराज कृष्ण की वाणी में रसपुट देने की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।
आज के व्यस्ततम भौतिकता के समय में जनसामान्य क्या अब तो इस अपने तनावयुक्त जीवन में सभी जन सीधा, सहज, सुबोध और मनोहारी शब्दों को ही सुनना चाहता है। इसी उद्देश्य से यह रचना चौपाई, दोहा, सोरठा और छन्द के पारम्परिक भक्ति साहित्य की विधा में की गयी है जिससे सब सुपरिचित हैं। इससे श्रीमद्भगवद्गीता का व्यापक प्रचार होगा। पुनश्च इसके जानने के पश्चात् गूढ़ ज्ञान की जिज्ञासा स्वतः उत्पन्न होती रहेगी। रचना मुख्यतया अवधी भाषा में की गयी है जिससे काव्य का लालित्य एवं मनमोहक बनाने का प्रयास किया गया है।
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