साहित्य की विविध विधाओं में मानवीय मन को चुंबकीय गुणों से बाँधकर रखने वाली विधा उपन्यास विधा है। मैं भी इससे अछूती नहीं रही। जब मैं बी.ए. की छात्रा थी तब मुझे पाठ्य पुस्तक के रूप में 'सारा आकाश' पढ़ने का मौका मिला था। उस उपन्यास के निडर बयान (स्वतंत्र विचार) ने मुझे उपन्यास के रचयिता राजेन्द्र यादव की रचना धर्मिता ने प्रभावित किया और मैं उनकी अन्य कृतियों से भी अनायास आकर्षित होती रही। परिणामस्वरूप राजेन्द्र यादव के उपन्यास मेरे अध्ययन का केन्द्र बिन्दु एवं शोध-प्रबन्ध का विषय बन गया।
मैंने देखा कि राजेन्द्र यादव केवल सृजनशील उपन्यासकार ही नहीं अपितु जागरूक आलोचक भी हैं। समकालीन हिन्दी कथा साहित्य की पहचान जिन कथाकारों से बननी शुरू हुई, उनमें राजेन्द्र यादव अग्रणी हैं। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास साहित्य की दिशा और दशा को समझने के लिए राजेन्द्र यादव की रचनाओं से जुड़ना अनिवार्य हो गया। स्वतंत्रता आंदोलन एवं आजादी के बाद न केवल राजनीति अपितु समाज भी क्षत-विक्षत हो उठा। सम्पूर्ण समाज अनेक विसंगतियों का शिकार बन गया। धनाभाव, आर्थिक संकट, बेरोजगारी, अनमेल विवाह, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि अनेक समस्याएँ उद्भूत हुई। परम्परा वर्णभेद, ऊँच-नीच की भावना को प्रोत्साहन मिलने लगा। समाज के प्रति मानव मन में विद्रोह का बीजारोपण हुआ।
युवा वर्ग एक विशिष्ट पीड़न से गुजर रहा था। परम्परा मुक्ति की छटपटाहट उसमें स्पष्ट देखी जा सकती है। रूढ़िबद्ध संस्कारों में आबद्ध व्यक्ति की बेचैनी भी नवयुवक वर्ग को यातना दे रही थी। जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में निराशा, कुंठा, असुरक्षा, असंतोष, मृत्युभाव, मानसिक तनाव, अविश्वास एवं दायित्व हीनता जैसी विघटनकारी प्रवृत्तियों ने अपने आप से विलग कर दिया। स्वतंत्रता के बाद संयुक्त परिवारों का विघटन प्रारम्भ हुआ। संयुक्त परिवार में सदस्यों का पारस्परिक मनमुटाव, ईर्ष्या-द्वेष, अर्धाभाव किसी को एक क्षण के लिए मानसिक और शारीरिक सुख प्रदान करने में समर्थ न हो सका। इस प्रकार परिवार टूटने लगे।
राजेन्द्र यादव का नाम स्वातंत्र्योत्तर युग के उपन्यासकारों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। राजेन्द्र यादव साठोत्तरी भारत की सही तस्वीर प्रस्तुत करनेवाले ऐसे रचनाधर्मी हैं जिनमें आजादी के बाद आए बदलाव की सही तस्वीर तो है ही, उसके साथ राजनीतिक परिवर्तनों के बजाय नाकारापन के विरुद्ध आक्रोश भी है। ऐसा आक्रोश जिसमें कुंठा के स्थान पर संघर्ष चेतना है, संघर्षशीलता है, एक क्रांतिकारिता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य में सामाजिक चेतना को जो उभार मिला है। वह साहित्य की अन्य विधाओं में नहीं मिलता। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर 'राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिक चेतना' की दृष्टि से समग्र विवेचन करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के छः अध्याय अग्रलिखित रूप में हैं।
प्रथम अध्याय 'राजेन्द्र यादव व्यक्तित्व व कृतित्व' का है। इस अध्याय के अन्तर्गत उनके जन्म, बचपन, किशोरावस्था, शिक्षा, विवाह रुचि एवं प्रभाव पर विचार किया है। राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व की विशेषताओं का चित्रण किया गया है। राजेन्द्र यादव के कृतित्व के परिचय में उनका साहित्य से लगाव, साहित्य सर्जना का प्रारम्भ व उनके उपन्यास साहित्य, आलोचना एवं संपादन कार्य, कहानी साहित्य आदि समग्र साहित्य का संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
द्वितीय अध्याय 'विषय का स्पष्टीकरण एवं विषय प्रवेश' है इस अध्याय के अन्तर्गत 'युग' शब्द की परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ व स्वरूप, 'चेतना' शब्द की परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ व स्वरूप, युग चेतना का महत्व, युग चेतना और साहित्यकार का दायित्व। साहित्य विधा के रूप में उपन्यास मानव जीवन के निकटतम होने से समाज जीवन को अपेक्षाकृत अधिक यथार्थता से प्रस्तुत कर सकता है। राजेन्द्र यादव की युगीन परिस्थितियों को परिभाषित करने का प्रयास किया है।
तृतीय अध्याय - 'स्वतंत्रतापूर्व के उपन्यासों में सामाजिक चेतना' का है। इस अध्याय के अन्तर्गत नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव एवं राष्ट्रीय जागरण और सामाजिक जीवन से सम्बन्धित साहित्य में समाजोन्मुख जीवन दृष्टि का प्रतिबिम्ब है। समाज सुधार के यत्न स्वदेशी आंदोलन, मानवीय समता के लिए परम्पराओं व अन्धविश्वासों के विरुद्ध विद्रोह समष्टि के आतंक से पीड़ित व्यष्टि की मुक्ति आदि को परिभाषित करने का प्रयास किया है। यह काल स्वतंत्रता आंदोलनों का युग था। देश में नव जागरण का बोध तेजी से उभर रहा था। साहित्यकार उससे निर्लिप्त नहीं रह सका। उनकी रचनाओं में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय परिस्थितियों के दर्शन होते हैं।
चतुर्थ अध्याय - 'राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिक चेतना' (कथ्य विश्लेषण) पर केन्द्रित है। इस अध्याय के अन्तर्गत राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में सामाजिकता के विशिष्ट आयाम, पारिवारिक विघटन, हीनता, कुंठा, अहंबोध, आर्थिक समस्या, सामाजिक समस्याएँ एवं व्यक्ति चित्रण, सांस्कृतिक जीवन का महत्व समाज जीवन का यथार्थ, रूढ़ समाज व्यवस्था व उसमें परिवर्तन, आकांक्षा, धार्मिक यथार्थ, सामाजिक नैतिक मूल्य आदि इन सभी तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
पंचम अध्याय 'उपन्यासों में समाजोन्मुखी जीवन दृष्टि' के अन्तर्गत मध्यवर्गीय समाज की अवधारणा, मध्यवर्गीय मानसिकता, साहित्य और समाज, व्यक्ति और समाज के संदर्भ में समाजोन्मुखी जीवन दृष्टि एवं राजेन्द्र यादव की औपन्यासिक दृष्टि से परिचित कराने की कोशिश की गई है।
षष्ठ अध्याय उपसंहार का है, जिसमें राजेन्द्र यादव की सामाजिक धारणा के साथ उनके साहित्य के विविध रूपों की चर्चा की गई है, साथ ही सम्पूर्ण शोध प्रबन्ध में समाविष्ट समस्त विषयों के समन्वित अनुशीलन का प्रयास किया गया है। अंत में संदर्भ सूची एवं विभिन्न पत्रिकाओं की सूची दी गई है।
मैं अपने मार्गदर्शक मान्यवर डॉ० वीराभाई पी० चौहान के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिनके असीम स्नेह और अनन्त धैर्य ने इस शोध-प्रबन्ध को आकार प्रदान किया। उनके हमेशा समय-समय पर महत्वपूर्ण सुझाव एवं दिशा निर्देश के कारण ही शोध-प्रबन्ध संपन्न हो पाया। इस दिशा में जिन लोगों के अनुग्रह पूर्ण हाथों का अवलंब मिला, उन लोगों का नाम गिन-गिनकर धन्यवाद ज्ञापन में नया रंग भर देना तो मैं नहीं चाहती। इतना ही कहूँगी कि मैं उनके आगे नतमस्तक हूँ। इस नेक कार्य के लिए आत्मीय सहयोग देने वाले अपने हितैषियों, आत्मीयों को कैसे भुला सकती हूँ, उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करना मैं अपना परम कर्तव्य समझती हूँ। मैं अपने परिवारवालों के प्रति ऋणी रहूँगी, जिन्होंगे मेरे संकल्प को सिद्धि तक पहुँचाने की शक्ति दी है।
मैं अपनी संस्था के प्राचार्य डॉ० अजयभाई के० पटेल एवं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ० शामलभाई जे० चौहान तथा अन्य साथी मित्रों की आभारी हूँ, जिनकी कृपा से मुझे अपने शोध कार्य के लिए सहायक ग्रंथों को अन्यत्र खोजने की नौबत नहीं आयी। इस शोध प्रबन्ध को पूरा करने में जिन महानुभावों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में आत्मीय सहयोग दिया है, उन सभी को शुभेच्छाओं के प्रति विनम्रभाव से हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करके मैं यह शोध-प्रबन्ध परमात्मा को समर्पित करती हूँ।
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