शताब्दियों से राम का चरित्र भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के शिक्षित-अशिक्षित, बालक-वृद्ध सब के अदम्य आकर्षण का केंद्र रहा है। राम भारत के सांस्कृतिक वातावरण में इस कदर घुले-मिले हुए हैं कि उनके जीवन और चरित्र के बारे में जानने के लिए कभी किसी को प्रयास नहीं करना पड़ता। वह उसे सहज रूप से संस्कार के रूप में मिलता है। किसी को यह याद नहीं रहता कि उसे पहली बार कब राम के बारे में कुछ जानने या सुनने को मिला था। होश सँभालते ही उसके मस्तिष्क में राम के जीवन के विविध प्रसंग कब और कैसे घर कर जाते हैं, यह कोई नहीं बता सकता।
कवियों, कथाकारों और पुराणिकों में प्राचीन काल से राम की कथा कहने की बहुत समृद्ध और विविध परंपरा रही है। राम कथा अनगिनत बार अनगिनत कवियों की लेखनी और वाणी से सृजित-पुनसृजित हुई। फिर भी, कभी न इसका आकर्षण कम हुआ और न ही इसकी रचनात्मक संभावनाएँ समाप्त हुईं। शास्त्रीय और लोक, दोनों काव्य-परंपराओं में राम सतत रूप से ऐसे नायक के रूप में मौजूद रहे हैं जिनकी कथा कहने से कवियों को यश-लाभ मिलता रहा है। उनकी लेखनी अपने को धन्य मानती रही है। उनके लिए राम काव्य का निकष रहे हैं।
यह राम का आकर्षण ही रहा है जिसकी वजह से अनगिनत भाषाओं में अनगिनत रामकथाओं का सृजन होता रहा है। एक ही कथा को अनेक भाषाओं और काव्य-परंपराओं में इतनी विविधता और विशदता के साथ कहने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। तमाम शोधों के बावजूद यह निर्धारित करना आज भी बहुत मुश्किल काम है कि राम के कितने चरित तैयार किये गये हैं और राम-कथा कहने की कितनी शैलियाँ रही हैं। महाकाव्य, उपन्यास, आख्यायिका, कविता, नाटक, कहानी और अन्य सभी कला-रूपों में राम की कथा कही जाती रही है। इसका पूरा हिसाब लगाना बहुत दुष्कर है। रामकथा की विविधता और बहुलता के कारण ही तुलसीदास ने कहा होगा- 'हरि अनंत हरि कथा अनंता'। बेशक राम का चरित्र अनंत है और उनका चरित-गान भी।
आधुनिक इतिहासकारों और अकादमिक बुद्धिजीवियों में राम कथा की विविध परंपराओं और शैलियों के शोध व निर्धारण का आकर्षण कम नहीं रहा है। इतिहासकार एके रामानुजन ने रामकथा की बहुलता का अध्ययन करनेवाले अपने प्रसिद्ध लेख का नाम ही 'श्री हंड्रेड रामायनाज' रखा है। वे रामकथा की शैली और परंपरा की बहुलता और विविधता को इतिहास के अनुशासन में रखकर रेखांकित करते हैं।। 'रामायन सत कोटि अपारा' तो स्वयं तुलसीदास कह गये हैं।
प्रेमचंद सामयिकता के कथाकार थे। इतिहास और पुराण के साहित्यिक पुनर्लेखन में उनकी कोई खास रूचि नहीं थी। इसका कारण उनकी यह धारणा थी कि इतिहास का साहित्यिक रूपांतरण ठीक-ठीक सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है, "... न जाने क्यों मेरी यह धारणा हो गयी है कि हम आज से दो हजार वर्ष पूर्व की बातों और समस्याओं का चित्रण सफलता के साथ नहीं कर सकते। मुझे यह असंभव-सा मालूम होता है।" दूसरा कारण यह है कि इतिहास की तुलना में वे वर्तमान समस्याओं पर लिखने को अधिक उपयोगी और लाभदायक मानते थे। जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक 'स्कंदगुप्त' की अपनी समीक्षा में वे उन्हें परामर्श देते हुए लिखते हैं, "हम प्रसाद जी से यहाँ निवेदन करेंगे कि आपको ईश्वर ने जो शक्ति दी है, उसका उपयोग वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के हल करने में लगाइए। स्टेज का आज यही ध्येय माना जाता है। इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने में आज कोई फायदा नहीं है।" प्रेमचंद की इतिहास की इस उपयोगितावादी समझ की अपनी समस्याएँ हैं। फिर ये कुछ प्रकट कारण हैं जिनकी वजह से वे अपने समय और समाज की ही कथा कहने को प्राथमिकता देते थे। उपन्यास और कहानी उनकी दो प्रिय विधाएँ थीं। इन्हीं में उनका लगभग संपूर्ण साहित्य रचा गया है। कहने की जरूरत नहीं कि उपन्यास अपनी प्रकृति में ही वर्तमान केन्द्रित साहित्य रूप है।
किसी भी साधारण भारतीय हिंदू की तरह प्रेमचंद के मन में भी राम के लिए अत्यंत सम्मान और आकर्षण था। बचपन में रामलीला के माध्यम से वे राम के चरित्र के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े थे। इस जुड़ाव की अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी 'रामलीला' नामक कहानी में की है। हो सकता है कि बचपन में वे राम को ईश्वरीय चरित्र मानते रहे हों और उनके प्रति उसी के अनुरूप आस्था और भक्ति रखते रहे हों लेकिन उनके लेखन से यह स्पष्ट होता है कि राम के प्रति उनके आकर्षण का कारण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक है। वे 'रामायण' और 'महाभारत' को दुनिया की श्रेष्ठतम साहित्यिक कृतियाँ मानते हैं। इनके रचयिताओं के चरित्र-विधान की वे प्रशंसा करते हैं। इन कवियों ने मनुष्यता के विविध तनावों और रूपों से संवलित ऐसे चरित्र गढ़े हैं जो विश्व साहित्य की अक्षय निधि हैं। 'रामायण' और 'महाभारत' के कवियों की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं, "उन्होंने हमारी आँखों के सामने, इसलिए कि हम उन्हें अपने जीवन का आदर्श बनाएँ, पूर्ण मनुष्य उपस्थित कर दिये हैं जो केवल निर्जीव-निस्पंद चित्र नहीं बल्कि जीते-बोलते पूर्ण मनुष्य हैं। ऐसे पूर्ण मनुष्य शेक्सपियर और दाँते, होमर और वर्जिल, निजामी और फिरदौसी की कल्पना की परिधि से बहुत ऊँचे हैं।" इतनी महानतम् रचनाओं के इतने महानतम् पात्रों के प्रति प्रेमचंद की ही नहीं किसी का भी भावनात्मक जुड़ाव और आकर्षण स्वाभाविक ही है। इसी आकर्षण से ओत-प्रोत होकर प्रेमचंद राम के विराट और महान चरित्र के बारे में एक जगह और लिखते हैं, "रामचंद्र निश्चय ही उच्चतम मानवता के उदाहरण थे।" 'रामचर्चा' के अंत में पूरा-का-पूरा एक अनुच्छेद ही वे राम की महिमा के बारे लिख पड़ते हैं, "उनके जीवन का अर्थ केवल एक शब्द है, और उसका नाम है 'कर्तव्य' । यह उनकी कर्तव्य-परायणता का प्रसाद है कि सारा भारत उनका नाम रटता है और उनके अस्तित्व को पवित्र समझता है। इसी कर्तव्य-परायणता ने उन्हें आदमियों के समूह से उठाकर देवताओं के समकक्ष बैठा दिया। यहाँ तक कि निन्यानवे प्रतिशत हिंदू उन्हें आराध्य और ईश्वर का अवतार समझते हैं।
ऐसी व्यापक और लोकप्रिय रामकथा और राम के ऐसे महानतम् चरित्र से हिंदी जाति का सबसे बड़ा कथाकार अछूता रह जाता, यह कैसे संभव था! किसी-न किसी रूप में राम उनकी रचनात्मकता में आने ही थे। उन्होंने कोई उपन्यास तो नहीं लिखा और न ही नाटक या कहानी लिखी पर बाल-साहित्य के अंग के रूप में उन्होंने 'राम-चर्चा रू श्री रामचंद्रजी की अमर कहानी' नाम से राम का संक्षिप्त गद्यबद्ध चरित जरूर लिखा। जो पुस्तक के आकार के करीब सौ पन्नों में फैला है। 'राम-चर्चा' 1938 में सरस्वती प्रेस, बनारस से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक को लिखने के पीछे उनका उद्देश्य था, नयी पीढ़ी, विशेषरूप से बच्चों को राम की कहानी से परिचित कराना। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं, "तुम वाल्मीकि या तुलसीदास की किताबें अभी नहीं समझ सकते। इसलिए हमने रामचंद्र के हालात तुम्हारे लिए आसान इबारत (लेख) में लिखे हैं।" प्रेमचंद राम को एक 'लासानी बुजुर्ग' कहते हैं, जिसे हिंदी में 'अद्वितीय पूर्वज' कह सकते हैं। वे मानते थे कि नयी पीढ़ी को राम की कहानी से शिक्षा मिल सकती है। प्रेमचंद के लिए राम के चरित्र से सबसे बड़ी शिक्षा कर्तव्य-परायणता की मिलती है। 'राम-चर्चा' के अंत में वे बच्चों से राम के चरित्र से कर्तव्य-परायण होने की शिक्षा लेने की अपील करते हैं, "लड़को ! तुम भी कर्तव्य को प्रधान समझो। कर्तव्य से कभी मुँह न मोड़ो।
तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' को सात कांडों में विभाजित किया है- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड।
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