प्राक्कथन
यह पुस्तक 1995 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) द्वारा प्रदान की गई पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च प्रोजेक्ट का परिणाम है। मूलतः इसका विषय 'संयुक्त प्रान्त में स्त्री शिक्षा एवं राजनीतिक लामबन्दी, 1916-1942′ (एजुकेशन एन्ड पॉलिटिकल मोबिलिजेसन ऑफ विमेन इन द यूनाइटेड प्रोविन्सेस, 1916-1942) था, किन्तु प्रोजेक्ट ने जैसे-जैसे पुस्तक का स्वरूप ग्रहण किया इसका क्षेत्र एवं विषय-वस्तु विस्तृत होते गये। बिल्कुल शुरू से ही मेरी शोध निर्देशिका प्रो. रेखा जोशी, विभागाध्यक्ष, मध्यकालीन तथा आधुनिक इतिहास विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, ने तत्समय मुझे अपने विचारों के अनुग्रहपूर्वक अनुगमन की स्वतंत्रता दी। मैंने अपने विस्तृत अध्ययन में संयुक्त प्रान्त के चार जिलों- इलाहाबाद, लखनऊ, आगरा तथा अल्मोड़ा-का चयन किया है जो प्रान्त के क्रमशः पूर्वी, केंद्रीय, पश्चिमी तथा उत्तरी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रान्त में स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे सक्रिय चरण में, यह महिलाओं के राजनीतिक सक्रियता, संगठन तथा सहभागिता का काफी हद तक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। प्रत्येक जिले में मुझे स्थानीय संपर्क सूत्रों, पुस्तकालयों तथा अभिलेखागारों से अपेक्षित सहायता प्राप्त हुई। नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय, नई दिल्ली, में इस प्रकार के शोध विषय पर विस्तृत व समृद्ध सामग्री उपलब्ध है और मुझे यहाँ महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त हुई, विशेषकर 'ओल्ड न्यूज़पेपर सेक्शन' तथा 'माइक्रोफ़िल्म विभाग' से। गृह विभाग की फाइलों तथा सरकार की पाक्षिक रिपोर्टों को देखने के लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, की भी सहायता प्राप्त हुई। यहाँ भी विशाल शोध संसाधन उपलब्ध हैं तथा यहाँ के कर्मचारी शोधार्थियों की अपेक्षा से अधिक सहायता भी करते हैं। मेरे शोध से संबंधित संयुक्त प्रान्त की विधान सभा की विधायी कार्यवाहियों की सामग्री काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के केंद्रीय ग्रंथालय से प्राप्त हुई। ग्रंथालय में पांडुलिपि विभाग के मूल्यवान स्रोत सामग्री हैं जिसका संरक्षण के दृष्टिकोण से डिजिटलीकरण करना जरुरी है। यह काम अब शुरू हो गया है। पांडुलिपियों के परीक्षण में मेरे पूर्व छात्र तथा कालान्तर में विभागीय सहयोगी, डॉ. सत्यपाल यादव ने भरपूर मदद की। मेरे परिवार व मित्रों, विशेषकर मेरे पति विनय चन्द्र पाण्डे, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, ने मुझे पुस्तक लेखन में अमूल्य सहायता एवं सहयोग दिया। इसके लिए मैं उनका हृदय से आभार व्यक्त करती हूं। मूल पुस्तक का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद, काशी हिन्दू विश्विद्यालय, इतिहास विभाग के, शोध छात्र, श्री पप्पू कुमार यादव (पी. के. यादव) ने बहुत निपुणता से किया है।
प्रस्तावना
ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं के महत्वपूर्ण व निर्णायक योगदान को इतिहासकारों ने, प्रायः, मान्यता नहीं दी है। सामान्यतः विद्वान इस बात से सहमत है कि उनकी सहभागिता, संगठन तथा सक्रियता ने उनकी अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया, बहुत ऐसे भी है जो आज़ादी की लड़ाई में महिलाओं के विशिष्ट भूमिका को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार नहीं करते।' इसी प्रकार, प्रसिद्ध विद्वान ज्ञानेंद्र पांडेय ने अपने श्रेष्ठ प्रबंध (मोनोग्राफ़) जो 1920 तथा 1930 के दशकों में संयुक्त प्रान्त (वर्तमान, उत्तर प्रदेश) में कांग्रेस की 'प्रभुत्व स्थापना' से संबंधित है, में एक पैरा भी इस विषय को समर्पित नहीं किया है। विख्यात इतिहासकार विपन चंद्र ने भी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष पर आधारित अपनी विश्रुत रचना में भी इस पक्ष पर विशेष प्रकाश नहीं डाला है। शिक्षा और राजनीतिक गतिविधि के बीच संबंध स्वतः स्पष्ट है तथा इसे समूचे विश्व में स्वीकार किया गया है। ब्रिटिश भारत में, 20वीं सदी के प्रारंभिक दशक तक, संयुक्त प्रान्त शिक्षा तथा राजनीतिक संगठनों के मामले में बंगाल, बॉम्बे तथा मद्रास प्रेसिडेंसियों से पिछड़ा हुआ था। इन तीनों प्रेसिडेंसियों में महिलाओं की शिक्षा तथा उनकी राजनीतिक सहभागिता के बीच अंतर्संबंधों पर पर्याप्त शोध हुआ है परंतु संयुक्त प्रान्त में इस विषय पर हाल ही में शोध-कार्य शुरू हुआ है। इसलिए संयुक्त प्रान्त में महिला शिक्षा के विस्तार तथा उनकी राजनीतिक सहभागिता के विशेष संदर्भ पर केंद्रित परीक्षण आवश्यकप्रतीत हुआ। बंगाल, बॉम्बे तथा मद्रास प्रेसिडेंसी, संयुक्त प्रान्त से दशकों पहले प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए थे। ब्रिटिश शासन की पूर्व संध्या पर, स्वदेशी शिक्षा प्रणाली देश के कुछ अन्य भागों में जीवंत होते हुए भी, संयुक्त प्रान्त में जर्जर अवस्था में ही थी। ब्रिटिश प्रशासन की राजस्व नीतियों तथा शिक्षा क्षेत्र में देशी प्रयासों के प्रति ब्रिटिश सरकार की उपेक्षा के कारण भी स्वदेशी शिक्षा व्यवस्था का और अधिक पतन हुआ। इसके अतिरिक्त, राज्य द्वारा स्थापित या सहायता प्राप्त प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था का विकास अत्यंत धीमी गति से हुआ क्योंकि शिक्षा कभी भी औपनिवेशिक शासन की प्राथमिकता नहीं थी, भले ही उनकी घोषित नीति इसके विपरीत थी। परिणामस्वरूप, संयुक्त प्रान्त में शैक्षणिक शून्यता की स्थिति बन गयी। एक तथ्य यह भी था कि ब्रिटिश शासन के पहले के सामाजिक रवैये के कारण से भी स्त्री शिक्षा की अवहेलना की जाती थी। अतः नारी शिक्षा को समर्पित अत्यल्प संसाधनों को इस शून्यता में और धक्का लगा। इस मामले में, ब्रिटिश हुकूमत का विचार भी यहाँ के शासित पितृसत्ता के सामाजिक दृष्टिकोण से भिन्न नहीं था। उत्तरोत्तर जनसंख्या विवरण में महिला-पुरुष साक्षरता दर में अंतर से यह तथ्य निरंतर एवं स्पष्ट परिलक्षित होता है। इससे स्पष्ट होता है कि सभी सामाजिक तथा वर्ग अवरोधों के कारण महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति एक समान नहीं थी और सामान्यतः शहरी क्षेत्रों के धनी व सम्पन्न परिवार, महिला शिक्षा तथा इसके लाभ के प्रति तुलनात्मक रूप से ज्यादा सकारात्मक थे। फिर भी यदि समग्रता में देखें तो महिलाओं की सामाजिक तथा शैक्षणिक गतिहीनता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सामान्य रूप से सार्वजनिक जीवन में तथा विशेष रूप में राष्ट्रवादी आन्दोलन में, महिलाओं की भागीदारी पर इसका स्वाभाविक प्रभाव पड़ा। राष्ट्रवादी आन्दोलन के प्रारंभिक चरण से ही सामाजिक सुधार तथा राष्ट्र- उद्धार के प्रमुख व्यक्तित्व यथा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, ज्योतिबा फूले, गोपाल हरि देशमुख, जी०वी० जोशी, जी० जी० अगरकर, पंडिता रामाबाई तथा अन्य ने इन परिस्थितियों के प्रति दुःख व्यक्त किया था तथा शैक्षणिक व अन्य प्रयासों से महिलाओं को सामाजिक और राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने का आह्वान किया और पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में महिलाओं को यथासंभव समान साधन तथा अवसर उपलब्ध कराया। 1880 के दशक के अंत से इस क्षेत्र में जैसे-जैसे राष्ट्रवादी गतिविधियाँ तेज हुई, राजनीति में पुरुष आधारित संरचना और स्पष्ट होती गयी जिसमे महिलाओं का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व भी नहीं था। प्रश्न केवल महिला शिक्षा के बदतर विस्तार का नहीं था, इसका चरित्र जटिल था- महिलाओं की सामाजिक स्थिति के बारे में प्रचलित धारणा इसका बुनियादी कारण था। फिर भी 20वीं सदी के प्रथम दशक के अंत तक परिवर्तन के तत्व साफ दिखाई देने लगे थे। यधपि यह बदलाव शहरी अभिजात वर्ग तक ही सीमित था जो परंपरागत बौद्धिक समूह था जिसे आंग्ल-देशी शिक्षा एवं अंग्रेजी शिक्षा से लाभ उठाया था व इसमें योगदान भी दिया था। संयुक्त प्रान्त में तीन पारंपरिक साक्षर समूहों मुसलमान उच्च वर्ग, कायस्थ समुदाय तथा सुधारवादी आर्य समाज के अनुयायियों की लड़कियों, प्रान्त में प्रचलित सामाजिक परिस्थितियों की तमाम कमियों व अपर्याप्तताओं के बीच, कुछ हद तक शिक्षित हो पाई। मुसलमान परिवारों में तो पर्दा प्रथा भी व्याप्त थी; अतः जो भी शिक्षा उपलब्ध थी वह घर की चहारदीवारी के अंदर ही था क्योंकि लड़कियों को घर से बाहर निकलने पर ही सख्त पाबन्दी थी, सार्वजनिक शिक्षा तो दूर की बात थी। मुसलमान परिवारों की लड़कियों को कुरान पढ़ने भर के लिए अरबी भाषा अध्य्यन को प्रोत्साहित किया जाता था किंतु उन्हें लेखन कला सीखने से रोका जाता था क्योंकि यह भी डर था कि इसके बाद वे उनके लिए निर्धारित सीमाओं को पार कर सकती थी। जैसा कि गैल मिनॉल्ट ने औपनिवेशिक भारत में मुसलमान महिला शिक्षा पर अपने महत्वपुर्ण अध्ययन में समीक्षा किया है- '
पुस्तक परिचय
प्रस्तुत पुस्तक संयुक्त प्रान्त में महिलाओं के राजनीतिक सक्रियता, संगठन, तथा सहभागिता को नवीन दृष्टिकोण के साथ देखने का एक प्रयास है। पुस्तक में संयुक्त प्रान्त के संदर्भ में महिलाओं के शिक्षा स्तर तथा राष्ट्रवादी गतिविधियों में उनके सक्रियता के सम्बंध का अध्ययन किया गया है। इसके साथ ही तीव्र राष्ट्रवादी आन्दोलन के दौर एवं शैक्षणिक उपलब्धि के अन्दव एवं विस्तार के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन भी शामिल किया गया है। पुस्तक में उल्लेखित दृष्टांतो से राष्ट्रवादी आंदोलन की सामाजिक गहराई, विशेषकर साधारण व मध्यम वर्ग के परिवारों और कुछ अंशों में 'अछूत' परिवारों, तक इसकी पहुंच स्पष्ट रूप से रेखांकित होती है। पुस्तक में वर्णित संयुक्त प्रान्त में महिला राजनीतिक सक्रियता की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इसमे प्रान्त के चार जिलों- इलाहाबाद, लखनऊ, आगर। और अल्मोड़ा का विशेष विस्तृत अध्ययन भी है। संयुक्त प्रान्त के यह क्रमशः चारों क्षेत्रों-पूर्वी, केंद्रीय, पश्चिमी व उत्तरी भागों को दर्शाते हैं। पुस्तक का एक महत्वपूर्ण भाग महिलाओं द्वारा 1937-1939 के मध्य, प्रांतीय विधान सभा में किये गए वैचारिक व विधायी कार्यों को समर्पित है। एक स्वीकृत धारणा के विपरीत कि उन्होंने विधान सभा में कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया, यह पुस्तक रेखांकित करती है कि उनका कार्य असाधारण रहा, विशेषकर राष्ट्रवादी विचारधारा को परिभाषित और पोषित करते हुए नीति-निर्माण में उनका अतुलनी य योगदान रहा। 228 सदस्यीय विधान सभा में केवल 13 महिलाएं थी, यह देखते हुए उनका यह योगदान और भी उल्लेखनिय और सराहनीय प्रतीत होता है। यह पुस्तक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में संयुक्त प्रान्त की महिलओं के सकारात्मक भागीदारी को भी प्रकाशित करती है।
लेखक परिचय
डॉ० मालाविका पांडे 2006 से इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में कार्यरत थी और सितम्बर 2021 में प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुई। गांधी के सामाजिक सिद्धांत एवं प्रयोग में उनकी गहरी रुचि है तथा उनसे सम्बंधित सैद्धान्तिक तथा सक्रियतावादी मुद्दों से वह स्वयं दो दशकों से अधिक समय से जुड़ी रही है। साक्षरता, दहेज, यौन उत्पीड़न, साम्प्रदायिकता, संचार मीडिया तथा चुनाव सुधारों जैसे सामाजिक विषयों पर सार्वजनिक अभियानों के द्वारा जागृति फैलाने को समर्पित एक संगठन से अपने जुड़ाव तथा स्वयं के लेखनों द्वारा उन्होंने महिला विकास एवं लैंगिक न्याय के मुद्दों की भी पड़ताल की है। इससे पहले प्रकाशित उनकी पुस्तक गांधीज विजन ऑफ सोशल ट्रांसफॉर्मेशन (2011), भारत के विशेष सन्दर्भ में गांधी के सामाजिक चिंतन के समग्र स्वरूप का परीक्षण करता है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist