| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author Edited And Translated By Damodar Shastri | |
| Language: Sanskrit Text with Hindi Translation | |
| Pages: 1349 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 10x7.5 inch | |
| Weight 2.54 kg | |
| Edition: 2021 | |
| ISBN: 9788126355636 | |
| HBX565 |
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आचार्य श्री कुंदकुंद देव और उनका कृतित्व व व्यक्तित्व
प.पू. गणाचार्य विरागसागर जी महाराज
दिगम्बर जैन श्रमण-परम्परा में प.पू. आचार्य श्री कुंदकुंद देव का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यही कारण है कि उन्हें भगवान् महावीर स्वामी तथा गौतम गणधर के बाद स्मरण किया जाता है। यथा-
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदार्यों, जैनधर्मोस्तु मंगलम् ।।
अतः हम इन अध्यात्म-मानसरोवर के राजहंस आचार्य श्री कुंदकुंद के, संक्षिप्त में किन्तु प्रामाणिक तौर पर, जीवन-झरोखे का दर्शन करेंगे।
आचार्य कुंदकुंद देव का समय डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में, श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने 'समंतभद्राचार्य' की प्रस्तावना में, डॉ. ए. चक्रवर्ती ने 'पञ्चास्तिकाय' की प्रस्तावना में, पं. श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने 'कुंदकुंद प्राभृत संग्रह' में आचार्य कुंदकुंद को प्रथम शताब्दी का माना है। श्री पी.वी. देसाई का भी यही मत है। विशेष जानने के इच्छुक अवश्य ही उन उन ग्रंथों को देखें। संक्षेप में मात्र इतना ही जानना चाहिए कि कुंदकुंद स्वामी के समय की निर्धारणा विषयक अनेक मत हैं।
प्रथम मत के अनुसार प्रो. हार्नले ने नंदिसंघ की पट्टावलियों के आधार पर आ. कुंदकुंद देव को विक्रम की प्रथम शताब्दी (वि.सं. 49) का आचार्य माना है। अन्य मत के अनुसार, कुछ पट्टावलियों के आधार पर ये विक्रम की द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा तीसरी शताब्दी के आचार्य थे। इस बात का समर्थन पं. श्री नाथूराम जी प्रेमी तथा पं. जुगलकिशोर मुख्तार आदि ने किया है।
कृतित्व व व्यक्तित्व के झरोखे में दिगम्बराचार्य कुंदकुंद :
श्रमण संस्कृति के उन्नायक, आगम, सिद्धान्त और अध्यात्म के सेतु, आगमनिष्ठ, पंचगुरु के परमाराधक, अन्यमत-विभंजन के लिये केसरी, स्थितिकरण और वात्सल्य की अप्रतिम मूर्ति, संघ, गण, गच्छ परम्परा के श्रेष्ठ संवाहक, दिव्यातिशयसम्पन्न आचार्य श्री कुंदकुंद देव को कौन नहीं जानता है? हाँ! नाम से तो जानते आये हैं, हम उन्हें जीवन झरोखे में भी देखने का एक लघु-प्रयास करें।
आचार्य श्री कुंदकुंद देव पूर्णभव में 'कोकोंडेश' नाम का ग्वाला था (उम्र 15 वर्ष), जो गायों को चराया करता था। एक दिन उसे शिला पर विराजमान दिगम्बर जैन मुनि के दर्शन हुए। उसने दूर से ही मुनिराज के प्रवचन सुने और घर चला गया। कालान्तर में उस वन में आग लग गई। इससे जंगल के सारे वृक्ष जल गये, किन्तु एक वृक्ष नहीं जला। उसे देख ग्वाला उस वृक्ष के पास पहुँचा और उसने वृक्ष की कोटर में एक ताड़पत्र को देखा और प्रसन्न हो गया। वह विचार करने लगा कि इसी धर्मशास्त्र का प्रभाव है कि यह वृक्ष नहीं जला। अतः ग्वाले ने ग्रन्थ को बड़े सम्मान से उठाया और लाकर उक्त मुनिराज को भेंट किया। कालांतर में सर्पदंश से उस ग्वाले की मृत्यु हो गई, और अगले भव में उसने कोंडकुंदपुर में जन्म लिया।
ग्राम श्री पी.बी. देसाई ने 'जैनिज्म इन साउथ इंडिया' में आंध्र प्रदेश के जिला अनंतपुर के गुट्टी तहसील के गुन्टकल रेलवे से लगभग चार मील दूर कोन्कोण्डल (कोन्मण्डल) ग्राम है, जिसका मूलनाम कौण्डकुंद था। 'कौण्ड' कनड़ शब्द है जिसका अर्थ पहाड़ी है। पहाड़ी के निकट होने के कारण ही इस ग्राम का नाम 'कौण्डकुन्द' प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि यह ग्राम आन्ध्र और कर्नाटक की सीमा पर स्थित है, अतः आंध्रपदेश में भी 'कन्नड़' का यह नाम प्रचलित हो सकता है अथवा संभवतः पहले यह ग्राम कर्नाटक की सीमा में आता हो। ए. पन्नालाल सरस्वती भवन, मुम्बई से प्राप्त एक गुटके में कौण्डकुंदपुर को जिला पोदधनाडु में बताया है। उक्त गुटके में ऐसा भी उल्लेख है कि ये पाँचवें स्वर्ग से चय करके माता के गर्भ में आये थे।
माँ के स्वप्न पर भविष्यवाणी :
जब ये (आ. कुंदकुंद) अपनी माँ के गर्भ में थे, तब माता ने रात्रि के समय एक स्वप्न देखा, और उसके फल को नगर में विराजमान अष्टांगनिमित्त के ज्ञाता श्री जिनचन्द्राचार्य से जानना चाहा। आचार्य श्री जिनचंद्र ने कहा कि-
हे सौभाग्ये। तेरी कुक्षी से कालान्तर में निकटभव्य जीव जन्म लेगा, जो तीर्थंकरोपदिष्ट वीतराग धर्म का प्रवर्तन करेगा। भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद उसका नाम लिया जायेगा। पूर्वभव में उसने कोण्डेश ग्वाले के रूप में किसी मुनिराज को शास्त्र दान दिया था, जिसके फलस्वरूप वह महाविद्वान् होगा। आज से नौ माह बाद माघशुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) को उसका जन्म होगा। सूर्यप्रकाश ग्रंथ में भी ऐसा ही कहा है और अन्य प्रतियों में पौष कृष्ण 8 का भी उल्लेख मिलता है।
आचार्य कुंदकुंद का जन्म नाम :
पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में श्री जयसेनाचार्य ने आचार्य श्री कुंदकुंद सहित वक्रगीव, ऐलाचार्य, गृद्धपिच्छ तथा पद्मनंदी - इन पाँच नामों का उल्लेख किया है। षट्प्राभृत के टीकाकार श्री श्रुतसागर जी ने भी उक्त पाँच नामों का उल्लेख किया है। नन्दीसंघ की पट्टावली में भी उक्त पाँच नामों का उल्लेख है। विजयनगर के शिलालेख में भी आपके पूर्वोक्त पाँच नाम ही हैं। किन्तु अन्य शिलालेखों में केवल पद्मनंदी तथा कोण्डकुंद व कुंदकुंद इन दो नामों का ही उल्लेख मिलता है। अन्य ग्रंथों में महामति और तिरुवल्लूर-इन दो नामों का भी उल्लेख मिलता है। किन्हीं विद्वानों की मान्यता है कि इन पाँच नामों में "पद्मनंदी" यह आपके बचपन का नाम था तो किन्हीं विद्वानों का मत है कि पद्मनंदी यह नाम बचपन व मुनि अवस्था का है। प्राचीनकाल में नाम-परिवर्तन की परम्परा नहीं थी, अथवा किन्हीं विद्वानों का मानना है कि दक्षिण भारत में जन्म-ग्राम पर भी नाम रखने की परम्परा रही, जैसे अंकलीकर स्वामी, भौसेकर स्वामी आदि। इसी कारण आपका नाम कौण्डकुंदपुर के निवासी होने के कारण इंद्रनंदि आचार्य उन्हें कौण्डकुंद कहते हैं। श्रवणबेलगोला के कितने ही शिलालेखों में भी यही नाम उत्कीर्ण है। कहीं कोण्डकुंदे भी नाम मिलता है। आज भी उक्त ग्राम के वासी कोण्डकुंदि कहते हैं। अतः यह प्रतीत होता है कि 'कुन्दकुन्द' यह उनका जन्म नाम रहा है।
किन्हीं विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि दक्षिण में पुत्र का माता-पिता के संयुक्त नाम रखने की भी पद्धति रही है, जैसे उमास्वाती, 'उमा' माँ 'स्वाति' पिता और 'उमास्वाती' या उमास्वामी उनके पुत्र। इसी प्रकार 'कुंद' पिता, 'कुंदलता' इनकी माँ, अतः दोनों कुंद कुंद कुंदकुंद नाम पड़ा। कुछ विद्वानों का कहना है कि उनके बचपन का तथा मुनिदीक्षा का नाम पद्मनंदी है तथा कुंदकुंद यह उपनाम है।
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