"शनैः पन्था शनैः कन्था शनैः पर्वतलङ्घनम् ।
शनैः विद्या शनैः वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ।।
उपर्युक्त श्लोक को चरितार्थ करते हुए यथाशक्ति परिश्रम करके आज मैं अपने शोधकार्य की पूर्णाहुति के समीप आ पहुँची हूँ। अगाध महासागर को पार करके किनारे पर खड़ा जहाज का कप्तान जैसे समुद्र की ओर देखता है और गर्व का अनुभव करता है, वैसे आज मैं भी अपने शोधकार्य की कालावधि पर दृष्टिपात कर रहीं हूँ। जैसे जहाज का कप्तान अपने सफर के शुरुआती दौर में आए तूफानों को याद करके मुस्कराता है. उसी तरह मैं भी मुस्करा रहीं हूँ, भावस्पन्दन अनुभव कर रही हूँ।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ बुनियादी तत्व होते हैं। समय-समय पर वह अपने विचार एवं तत्वों को अपने आप परिवर्तित करता है। शैशवकाल से मनुष्य में इन तत्वों का संचय परिवार, समाज एवं उसके आसपास के वातावरण से होता है। इन तत्वों के आधार पर ही व्यक्ति अपना अस्तित्व बनाये रखता है। जिस समय व्यक्ति में इन बुनियादी तत्वों का नाश होता है, वह जीवित होते हुए भी मृत-सा हो जाता है। जीवन बहते नीर की तरह होता है। अगर बहते पानी को किसी पात्र में एकत्रित करके रखा जाए तो कुछ दिन बाद उसमें से बदबू आने लगती है, उसी तरह मनुष्य का जीवन अगर गतिमय न हो तो वह निरर्थक माना जाता है। मनुष्य के जीवन को बनाने तथा उसे एक आदर्श मनुष्य बनाने का कार्य शिक्षा करती है। शिक्षा मनुष्य को निरन्तर चलना सिखाती है।
विद्या या ज्ञान ही एक ऐसी चीज है जो बाँटने से बढ़ती है। इसीलिए वैदिककाल से भारतीय संस्कृति एवं साहित्य, ज्ञानमयी पुस्तकों के भंडार से भरा हुआ है। ज्ञान ही एक ऐसी शक्ति है जो एक डाकू को 'वाल्मीकि' बना सकती है और उससे 'रामायण' जैसी कालजयी कृति की रचना हो सकती है।
"अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारती।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ।।"
क्षर और अक्षर में यही तो अन्तर है कि एक बाँटने से घटता है तो दूसरा बाँटने से बढ़ता है। एक स्थानांतरित होता है तो दूसरा विस्तृत होता है। एक भोग लाता है. तो दूसरा योग और मुक्ति। 'सा विद्या या विमुक्तये ।'
मेरा पारिवारिक माहौल शिक्षण से जुड़ा हुआ है, अतः बचपन से ही मेरी एक शिक्षक बनने की तमन्ना थी। मेरे पिता (विजयकुमार रसिकलाल शाह) हायर सेकेन्डरी स्कूल में विज्ञान एवं गणित के शिक्षक थे और मेरी माता (जयप्रभा- बहन विजयकुमार शाह) भी एक सेकेन्डरी स्कूल में गणित एवं समाजशास्त्र की शिक्षिका एवं आचार्या थीं।
मेरा लालन-पालन उन्होंने अपनी शैक्षणिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए किया।
स्कूल में जब कोई विद्यार्थी या उनके माता-पिता मेरे माता-पिता का आदर सम्मान करते थे तो मुझे बड़े गर्व का अनुभव होता था। स्कूल में मेरे माता-पिता हमेशा मेरे गुरू बन जाते थे और कभी भी मेरी गलती पर मुझे डॉटने से न कतराते थे। एक शिक्षक के उत्तरदायित्व को मैं अपने घर में बचपन से ही अनुभव करती थी। मेरी माता सुबह घर का सारा काम करके हमें तैयार करके स्कूल जातीं, जिसमें मेरे पिता उनकी यथायोग्य सहायता भी करते थे। अतः मैं कह सकती हूँ कि बचपन से ही मेरे मन में एक शिक्षक बनने की तमन्ना रही है। बचपन में मैं अपने मित्रों के साथ शिक्षक-शिक्षक के खेल खेला करती थी। जिसमें हम सारे मित्र शिक्षक बनकर एक दूसरे को पढ़ाते थे। बड़े होने पर अपने उस सपने को साकार करने के लिए मैंने विनयन प्रवाह (आर्ट्स) में अभ्यास करने का निर्णय लिया।
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय का नाम तो मैंने पहले से बहुत सुना था और वहीं पर पढ़ाई करने का मेरा सपना भी था। ईश्वर की कृपा से बिना किसी परेशानी के मुझे प्रवेश भी मिल गया। लेकिन समस्या थी विषय चयन की। इस मोबाइल युग में लोगों की लाइफ बहुत फास्ट हो गई है. हमारी मानसिकता कुछ ऐसी बन गई है कि हमें जल्द से जल्द परिणाम चाहिए। ऐसे समय में आर्ट्स का चयन सबको अवास्तविक-सा लगा और उसमें भी साहित्य का चयन ? किन्तु शिक्षक माता-पिता की सन्तान होने के कारण घर में हमेशा मैंने पढ़ाई का माहौल पाया था। स्कूल की छुट्टियों के दौरान मेरा समय प्रायः साहित्य वाचन में गुजरता। अतः उसी अध्यवसाय को आगे बढ़ाने हेतु मैंने हिन्दी भाषा साहित्य को मुख्य विषय के रूप में चुना। मुझे अनुमान था कि यह राह इतनी आसान और सहज नहीं हैं। लेकिन मैंने ठान लिया था कि मैं अपना पूरा जीवन सरस्वती की सेवा में ही लगाऊँगी। यही कारण था कि मुझे अपना अभ्यास और शोधकार्य कभी भाररूप नहीं लगा।
मैंने हिन्दी मुख्य विषय के साथ महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। एम. ए. करने के दौरान मेरी तीव्र इच्छा थी कि मैं पी-एच.डी. करूँगी। इसी इच्छा के तहत मैंने अपने गुरू डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय सर से बात की और उन्होंने मुझे पूरा आश्वासन भी दिया। एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के बाद मुझे मेरे परिवारीजन और डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय सर के कहने पर मैंने बी. एड. किया। बी.एड. में भी मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई। बस अब क्या था मुझे अपने सपने को साकार करने के लिए केवल मेरे परिवारीजनों की अनुमति ही चाहिए थी। डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय सर उसी समय व्याख्याता बने थे इसलिए उनके प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में मैं पी-एच.डी. नहीं कर सकतो थी।
इसलिए मैं थोड़ी निराश भी हुई, पर मेरी यह निराशा क्षणिक साबित हुई। डॉ. मायाप्रकाश पाण्डेय सर के सुझाव पर मैंने डॉ. लता सुमन्त मेडम के सामने अपनी पी-एच.डी. करने की इच्छा प्रकट की।
हलॉकि मैं लता सुमन्त मेडम को पहले से ही जानती थी। वह मुझे बी.ए. में भी पढ़ाती थीं। उनके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। वे एक सहजता, आदर्श एवं सादगी की मूर्ति हैं। उनके अन्दर ज्ञान एवं ममत्व का असीम समुद्र समाया हुआ है। उन्होंने मेरी इच्छा को सहर्ष स्वीकारा तथा जल्द से जल्द पञ्जीकरण करवाने का आश्वासन भी दिया।
प्रारंभ से ही मेरी रुचि भारतीय इतिहास एवं ऐतिहासिक घटनाओं पर अधिक रही है। ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक है। इसलिए डॉ. सुमन्त मेडम और डॉ मायाप्रकाश पाण्डेय सर ने आपसी परामर्श से मेरी पी-एच.डी. का अध्ययन मेरी रुचि को ध्यान में रखते हुए 'नवजागरण काल' रखा। नवजागरण काल एक ऐसा काल है जहां से हमारे देश की रूढिगत मान्यताओं का खण्डन प्रारंभ होता है। इस काल के प्रवर्तक राजाराम मोहनराय माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सन् 1829 में लार्ड विलियम बैन्टिक की मदद से सती प्रथा जैसी कुरीतियों पर प्रतिबन्ध लगाया था। नवजागरण काल के विषय में मुझे हिन्दी साहित्य के इतिहास एवं हिन्दी साहित्य में उसके ऊपर किया गया काम स्पष्ट रूप से न मिला। तब मैंने भारतीय इतिहास की पुस्तकों का चयन किया।
शुरुआती दौर में मुझे काफी दिक्कतें आईं जैसे कौन सी पुस्तक में से मुझे नवजागरणकाल की जानकारी मेरी संतुष्टि के अनुसार मिलेगी इसके लिए मैंने हंसा मेहता लाइब्रेरी एवं आई.ए.एस. की परीक्षा की तैयारी कर रहे अपने कुछ मित्रों की मदद ली। जिनकी मदद से भारतीय इतिहास पर आधारित कई पुस्तकों का चयन किया। पुस्तकों के चयन से मुझे 'नवजागरण काल' जो सन् 1857 ई. के बाद माना जाता है, का सही ज्ञान प्राप्त हुआ। हमारे देश में फैले हुए अंधविश्वास, कुरीति-रिवाज, आडम्बर, शोषण एवं सर्वत्र फैले हुए अंधकार आदि की जानकारी प्राप्त हुई। नवजागरण काल में इन दूषणों का न केवल विरोध हुआ बल्कि लोगों को सही और गलत का पता भी चला।
इसी तरह पुस्तकों के चयन से मुझे ज्ञात हुआ कि हिन्दी साहित्य में इसी दौरान गद्य विधा का प्रारंभ हुआ जिसके प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द जी थे। हिन्दी साहित्य को पढ़ते-पढ़ते यह बात निश्चित हो गई कि 'मुंशी प्रेमचंद' एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपने साहित्य में भारतीय समाज की कुरीतियों को दर्शाया है। मैंने उनके उपन्यास और कुछ कहानियाँ पढ़ीं। जिसमें उन्होंने उस समय के प्रत्यक्ष भारत को प्रस्तुत किया था। मैंने उनकी कहानियों का चयन किया जिसमें मैंने कई प्रकार का वैविध्य पाया था। बस फिर क्या था? मैंने प्रेमचंद की कहानियों को 'नवजागरण' के आधार पर अपने शोध का विषय बनाने का निश्चय किया। गुरुजनों के साथ वार्तालाप करने के बाद यह निश्चित किया गया कि मेरे शोध-प्रबन्ध का विषय "नवजागरण काल एवं प्रेमचन्द की कहानियाँ" रहेगा।
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