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आग का दरिया: River of Fire (Novel)

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Specifications
Publisher: KITAB MAHAL
Author Qurratulain Hyder
Language: Hindi
Pages: 524
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 470 gm
Edition: 2022
ISBN: 9788122501513
HBQ179
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Book Description
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लेखक परिचय

कुमारी हैदर का जन्म उत्तर प्रदेश के एक प्रतिछित परिवार में हुआ। उनके पूर्वज सैयद जलालुद्दीन बुखारी 1236 में बुखारा से आये थे और जाने-माने सूफी थे। उनके पोते मखदूम-जहानियाँ-जहाँगश्त का उनके-अपने युग में महान् आध्यात्मिक संत के रूप में बड़ा आदर था, और सुल्तान मोहम्मद तुगलक और फीरोज शाह तुगलक दोनों ही उनके मुरीद थे। उनके रहस्यवादी दर्शनमूलक विचारों और उपदेशों का संकलन 1379 में फारसी में किया गया, और बाद में उसका अनुवाद 'अल-दुर-उल-मनजूम' (सचे मोतियों की माला) के नाम से उर्दू में हुआ।

कुरअतुलऐन हैदर के परनाना मीर मासूम अली अवध की रियासत में वजीर थे और इन्शा-ए-मासूम' नामक प्रसिद्ध फारसी-कृति के लेखक थे। कुमारी हैदर के एक दूसरे पूर्वज सैयद इब्राहीम ने, उन्नीसवीं सदी में, सैयद अहमद बरेलवी के एक मुजाहिद के रूप में अंग्रेज़ों से लोहा लेते-लेते वीरगति प्राप्त की। परबाबा मीर अहमद अली बिजनौर जिले के जागीरदार थे, और उन लोगों में से थे जिन्होंने जून, 1857 में रुहेलखंड में बागी-सरकार कायम की।

कुरअतुलऐन हैदर के पिता सैयद सझाद हैदर यलदरम (1882-1943) आधुनिक उर्दू-लघु कथा के जनक माने गये। वे गद्य के क्षेत्र में असाधारण शैलीकार के रूप में स्वीकारे गये और उनकी ललित शैली का प्रभाव उर्दू की पूरी की पूरी पीढ़ी पर पड़ा। सैयद सआद हैदर साहब ने अलीगढ़ से स्नातक होने के बाद यूरोप और तुर्की में कितने ही वर्ष बिताये और तुर्की-भाषा का गहन ज्ञान अर्जित किया। उन्होंने अपना तखल्लुस यतदरम' रक्खा (तुर्की में बिजली को 'यलदरम' कहते हैं)। उन्होंने तुर्की के कई प्रसिद्ध उपन्यासों और नाटकों का उर्दू में अनुवाद भी किया। इलाहाबाद की 'हिन्दुस्तानी अकादमी' के 1936 के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से उन्होंने उर्दू-हिन्दी समस्या के सम्बन्ध में जो कुछ कहा, यह आज भी अपनी जगह सच है, और इस समस्या का कोई न कोई तर्क संगत और विवेकपूर्ण हल ढूँढ़ निकालने वालों के लिए आज भी उसी तरह शमआ का काम दे सकता है।

कुरअतुलऐन हैदर की मी नज़र सआद-हैदर भी स्वयं एक ख्यातनामा लेखिका रही है। उन्हें उर्दू नारी-साहित्य में 'जेन ऑस्टिन' का दर्जा दिया जाता है, और उर्दू-कथा-साहित्य के सुधारवादी रोमानी युग में उनके सुधारवादी उपन्यास महिला-समाज के बीच बहुत ही लोकप्रिय रहे हैं।

कहना न होगा कि अभी कुछ दशको पूर्व तक नजर-सजाद-हैदर की बुआ अकबरी बेगम का उपन्यास गूदड़ का लाल' हर जागरूक पाठक के गले का हार रहा है।

स्वयं कुरअतुलऐन हैदर का जन्म अलीगढ़ में हुआ। उस समय इनके पिता मुस्लिम युनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार थे। कुमारी हैदर ने कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया, और 1947 में, उन्नीस वर्ष की अवस्था में, अंग्रेज़ी साहित्य लेकर एम.ए. पास किया। पर, उस समय तक भी अफसाना-निगार, यानी कहानी-लेखिका के रूप में इनका खासा नाम हो चुका था। इसी वर्ष इन्होंने 'मेरे भी सनमखाने' नामक उपन्यास आरम्भ किया। इस कृति ने उर्दू-उपन्यास को एक बिल्कुल नई दिशा दी और उसकी गिनती उर्दू के चोटी के उपन्यासों में की जाने लगी। परन्तु, फिर देश का बंटवारा हुआ, और देहली के दंगों के समय उन्हें अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चला जाना पड़ा। वहीं से वे इंग्लैंड गई और कुछ अर्से तक 'डेली टेलीग्राफ' के संवाददाता के रूप में कार्य करती रहीं। साथ ही बी.बी.सी. के उर्दू विभाग में रहीं, और कुछ समय तक 'हेदरलेज स्कूल ऑफ आर्ट' में कला में दीक्षित हुई।

कुरअतुलऐन हैदर 1961 में भारत लौटीं। वह 'इम्प्रिंट' के सम्पादक मण्डल की सम्मानित सदस्या रहीं। उनको अनेक सम्मान प्राप्त हुए। 'आग का दरिया' को ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। कुछ वर्ष पूर्व उनका दिल्ली में देहान्त हो गया। उनके प्राकाशित साहित्य में, उपन्यास 'मेरे भी सनमख़ाने', 'सफीनयेामेदिल' और 'आग का दरिया', छोटे-उपन्यास 'सीता हरण', 'चाय के बाग' और 'हाउसिंग सोसाइटी', कहानी-संग्रह-'सितारों से आगे', 'शीशे के घर' और 'पतझड़ की आवाज', रिपोर्ताज सितम्बर का चाँद', और कई अनुवाद, हेनरी जेम्ज की 'पोरट्रेट ऑफ ए लेडी' है।

अपनी बात

आग का दरिया' मैंने कोई दस बरस पहले लिखा, और उसमें भारतीय प्रतिभा के विकास की कथा को अपने ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की। लेकिन, 'आग का दरिया अपने-आप में कोई ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है। उसके मुख्य चरित्र अस्तित्व के अर्थ की खोज निरन्तर करते हैं। यही खोज तो मनुष्य व्यक्ति और साथ ही साथ समाज के एक अंग के रूप में-युग-युगों से करता रहा है. यानी अपनी यातनाओं, आशा-आकांक्षाओं और उपलब्धियों के बीच से अपने-आपको और अपने वातावरण को बराबर उभारता रहा है। मैंने भारत के लम्बे, उलझे हुए और प्रायः अटपटे इतिहास के चार विशेष युग इसी कार्य के लिए चुने हैं। ये काल है-

१. चौथी शताब्दी ईसापूर्व -

२. उत्तर पन्द्रहवीं शताब्दी और पूर्व सोलहवीं शताब्दी-

३. अठारहवीं शताब्दी का अत और उन्नीसवीं शताब्दी का अधिकांश-

४. वर्तमान काल-

चौथी शताब्दी मे विहारों में होने वाले नये बौद्धिक आन्दोलन के रूप मे बौद्ध-धर्म ने देश की प्राचीन विचारधारा को एक नई दिशा दी। पूर्व सोलहवीं शताब्दी में लोदी-शासन समाप्त हुआ और उत्तर भारत में मुग़ल-युग का उदय हुआ। इस काल में बहुत पहले ही मुसलमानों के साथ सस्कृति की एक नयी, प्रवाहपूर्ण धारा देश में आ चुकी थी, और भारतीय सभ्यता की शक्तिशाली सरिता के गले में अपनी बाहें डाल चुकी थी। यहाँ यह कह देना उचित ही होगा कि पश्चिमी और मध्य एशिया, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन के मुसलमानों ने कभी यूरोप के अंधकारयुक्त युग को ज्ञान का प्रकाश दिया था। आर्यों और दूसरी विदेशी जातियों की तरह जब मुसलमान भारत में आये तो उन्होंने इसे अपना घर जाना, माना, समझा। यो तो वे अपने साथ अपनी परिष्कृत संस्कृति और अपना निखरा हुआ बुद्धि-वैभव भी लाये, परन्तु उसको ही सब कुछ न समझ कर उन्होंने अनूठी, समृद्ध हिंदू-सभ्यता से भी बहुत कुछ ग्रहण किया, और, यह इतिहास की अनिवार्यता थी। यही कारण है कि जहाँ एक ओर लड़ाइयों हुई, खून की नदियाँ बहीं, बेशुमार बरबादी हुई, वहीं अनूठी भारत-इस्लामी सस्कृति का भी विकास हुआ। और, विविध कलाओं, दस्तकारियों, हिंदुस्तानी-शास्त्रीय संगीत, स्थापत्य के सार्वजनिक और घरेलू नमूनों, लिबास, खानपान, और, बंगाली समेत, आधुनिक भारतीय भाषाओं के रूप में यही संस्कृति है, जो हमें उत्तराधिकार में मिली है. जिसके हम वारिस हैं। इस सांस्कृतिक सहयोग को बहुत योग और बढ़ावा मिला सूफ्री और भक्ति-आन्दोलनों से। लेकिन, अकबर ने अपने समय से बहुत आगे तक नज़र दौड़ा कर जिस आधुनिक, धर्म निरपेक्ष राज्य के सपने देखे, वह बाद की शताब्दियों में कोई एक रूप ग्रहण न कर सका, क्योंकि विषमताएँ कुछ ज्यादा शहज़ोर हो गई, और बढ़ती हुई यूरोपीय शक्तियों भी सहसा ही हमारे औद्योगिक विकास के आड़े आ गई। फिर, जैसे कि आठ सौ वर्ष पहले गुप्त साम्राज्य के खंडन और हिन्दू-धर्म के बिखराव के कारण मुसलमानी हमले क़ामयाब हुए, ठीक वैसे ही अब मुगल-हुकूमत के तार-तार होने, और हिंदू-मुस्लिम समाज के ताल के बँधे हुए पानी की हालत में पहुँच जाने के कारण हम तेज-तर्रार यूरोपीयनों की चालों के शिकार हो गये।

कहना न होगा कि अठारहवीं शताब्दी भारत के लिए अँधेरे के बादलों पर बादल लेकर आई. और अंग्रेजों ने देश की व्यवस्था को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। यही चक्र लगभग पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में चलता रहा ।

जहाँ तक वर्त्तमान काल का प्रश्न है, उसने जो कुछ हमे दिया है, उसमें भारत-पाकिस्तान का अभागा बँटवारा भी शामिल है।

तो, कथा के इन घारों युगों के प्रतिनिधि चरित्रों के नाम एक ही है-गौतम नीलाम्बर, कमालुद्दीन, हरिशंकर, सिल ऐश्ले और चम्पा। कालान्तर में उनका उभर उभर कर बार-बार सामने आना केवल इतिहास की निरन्तरता का प्रतीक है, और इसका किसी तरह का कोई सम्बन्ध 'आवागमन' के सिद्धान्त से नहीं है। ये चरित्र रूपकात्मक या प्रतीकात्मक तक नहीं है। मैंने तो सहज रूप से एक उपन्यास लिखा है, और यह माना है कि ये सभी पात्र ज़िन्दगी जीते हैं, प्यार करते हैं और मर जाते है; और एक बार फिर जी उठते हैं। कारण साफ़ है। जिन्दगी की फ़तह यही है कि हम नेस्तनाबूद नहीं हो सकते। हमारे पूर्वज आज नये रूप में हममें जी रहे हैं, और हम नई शङ्गलो में अपने बाद आने वाली पीढ़ियों मे तो, कथा के इन घारों युगों के प्रतिनिधि चरित्रों के नाम एक ही है-गौतम नीलाम्बर, कमालुद्दीन, हरिशंकर, सिल ऐश्ले और चम्पा।

कालान्तर में उनका उभर उभर कर बार-बार सामने आना केवल इतिहास की निरन्तरता का प्रतीक है, और इसका किसी तरह का कोई सम्बन्ध 'आवागमन' के सिद्धान्त से नहीं है। ये चरित्र रूपकात्मक या प्रतीकात्मक तक नहीं है। मैंने तो सहज रूप से एक उपन्यास लिखा है, और यह माना है कि ये सभी पात्र ज़िन्दगी जीते हैं, प्यार करते हैं और मर जाते है; और एक बार फिर जी उठते हैं। कारण साफ़ है। जिन्दगी की फ़तह यही है कि हम नेस्तनाबूद नहीं हो सकते। हमारे पूर्वज आज नये रूप में हममें जी रहे हैं, और हम नई शङ्गलो में अपने बाद आने वाली पीढ़ियों में जियेंगे, और ज़िन्दगी की चुनौतियों का डटकर मुक़ाबला करेंगे।

हाँ, तो जहाँ मेरी चिन्ता का विषय मानवीय सम्बन्धों की रहस्यात्मकता है. वहीं जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति के भेदभाव के आधार पर अपनी दीवार खड़ी करने वाली विवेकहीन घृणा और तर्कहीन पूर्वाग्रहों से सम्बन्ध रखने वाली समस्याये भी मेरा ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। यों तो ये समस्याये आज दुनिया में कहाँ नहीं है, मगर हमारे देश में इन्होंने सुरसा का जो रूप धारण किया है, उसे देख-समझ कर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

जीवन में दो प्रवृत्तियाँ सदा रही हैं और दो प्रवृत्तियाँ सदा रहेंगी-एक शाति और सामंजस्य की, और, दूसरी हिंसा और विषमता की। भारत में शांति और सामंजस्य की प्रवृत्ति ने ही राष्ट्रीय जीवन का आँगन सर्वोत्कृष्ट निधियों से भरा है। लेकिन, प्रायः ऐसा भी हुआ है कि हिंसा और विषमता ने हर तरह सर उठाया है।

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