साहस मानव के अंतर की एक ऐसी भावना है जो मनुष्य के जीवन काल के हर एक क्षण को प्रभावित और नियंत्रित करता है। सामान्य शब्दों में हम इसे किसी भी मनुष्य के बल को प्रभावित करने वाला गुण कह सकते हैं। कहा जाता है कि 'कायर और आलसी' के लिये सबसे बड़ी अटक उसके अपने मन में साहस का अभाव होना है और जिनके मन में कोई अटक नहीं है और मन साहस से ओत-प्रोत है, उन्हें तो यमराज भी नहीं अटका सकता। साहस के सामने बड़ी से बड़ी विपत्ति भी घुटने टेक देती है। इसी संदर्भ में यह कहावत प्रचलित है 'हिम्मते मरदा, मददे खुदा'। यह कहावत साहस धारण करने वाले को सफलता का वरन करने का आश्वासन देती है। अगर इंसान के अंदर कुछ कर गुजरने का साहस हो तो ईश्वर के सहयोग के साथ ही हर मंजिलें उसकी सहगामी बन जाती हैं। यही नहीं राह में रोड़े अटकाने वाले भी मित्र बनकर सहयोग में लग जाते हैं। साहस के साथ प्रयत्नशील आदमी हजार बार असफल होने पर भी अपना प्रयत्न जारी रखता है और भगवान् भी उसकी अवश्य मदद करते हैं। अगर आदमी में साहस हो तो वो अपनी किस्मत खुद बदल सकता है।
बचपन से ही जिस किसी में साहस के गुण का विकास हो जाता है वो हर हाल में अपने लिए सफलता का मार्ग खोज लेने में सक्षम होता है। बच्चों में इस गुण को विकसित करने के लिए ही उन्हें साहसिक कारनामों से जुड़े प्रसंग पढ़ाये या सुनाये जाते रहे हैं। साहस केवल रणभूमि में शौर्य का प्रदर्शन करने लिये ही जरूरी नहीं है, बल्कि दैनिक जीवन में सच्चाई की राह पर चलते रहने के लिये भी मनुष्य में इस गुण का विकास होना जरूरी है। इससे जुड़ा एक प्रसंग काफी पहले चर्चा में आया था- ओशो उन दिनों जबलपुर के सागर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे। एक दिन वे नीतिशास्त्र पढ़ा रहे थे और कक्षा में फुसफुसाहट हो रही थी। ऐसा कभी नहीं होता था कि ओशो कक्षा में व्याख्यान दे रहे हों और कोई छात्र किसी दूसरे छात्र से बातों में लगा हो। लेकिन उस दिन सामने की बेंच पर बैठी दो छात्राएं आपस में बातें कर रहीं थीं। ओशो का ध्यान जब उन छात्राओं की ओर गया तो उन्होंने व्याख्यान बीच में रोक कर कहा- अब हम विराम लेते हैं और सामने बैठी छात्राओं की बातें सुनते हैं; क्योंकि मेरे व्याख्यान से भी अधिक महत्त्वपूर्ण इनकी बातें हैं, हमें इन्हें सुनना चाहिए। ओशो ने छात्राओं को इंगित कर कहा कि जिस विषय पर तुम बात कर रही हो, वह हम सबके साथ बांटों। ताकि हम भी उससे लाभान्वित हों। लेकिन ओशो की बात सुन कर छात्राएं चुप बैठी रहीं। कुछ पल के इंतजार के बाद ओशो ने छात्राओं को कहा- नीतिशास्त्र पढ़ती हो और इतना भी नैतिक साहस नहीं जुटा पा रही कि कुछ देर पहले जो बात तुम कर रही थी, उसे सभी के सामने कहने का साहस कर सको। इस घटना के बाद उन छात्राओं ने कक्षा में कभी व्याख्यान के समय आपस में बात न की।
पत्रिका प्रकाशन के उत्कृष्ट बाल साहित्य की श्रृंखला में प्रस्तुत पुस्तक 'साहस की कहानियां' पढ़कर न केवल बच्चों का मनोरंजन होगा, बल्कि उनमें साहस की भावना का संचार भी होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
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