भारतीय संस्कृति को जीवित जाग्रत रखने में भारतीय सन्तों का एक महान् योगदान है। उन्होंने अपनी दिव्यशक्ति, प्रभाव-शाली जीवन और अलौकिक प्रतिभा से तत्कालीन जनता के हृदयों में जहाँ धर्म की भावना को अक्षुण्ण बनाये रखा, उसके साथ ही कालचक्र के प्रभाव से तथा अविद्या आदि अन्य कारणों से आई हुई बुराइयों को दूर करने में भी बड़ा योग दिया है।
इस सन्त-परम्परा के अधिकतर सन्त कवि भी हुए हैं। उन्हों ने अपनी कविता के हृदयंगम भावों के द्वारा जनता को मुग्ध बनाये रखा ।
सन्त ज्ञानेश्वर 'महाराष्ट्र' के 'आपे गाँव' में उत्पन्न हुए । वैराग्य और भक्ति इन्हें विरासत में मिली थी। इनके पिता विठ्ठल पंत गृहस्थ का परित्त्याग करके संन्यासी बन गये थे। परन्तु रामानन्द जी के आदेश से जब वे फिर गृहस्थ में लौट आए, तो तत्कालीन समाज ने उनका सामाजिक बहिष्कार करके उन्हें बड़ा तंग किया। अपने भाइयों सहित सन्त ज्ञानेश्वर ने भी अपने कुल को यह दुरवस्था अनुभव की और इसके विरुद्ध विद्रोह किया।
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