पुस्तक परिचय
हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य 'साकेत' की कथावस्तु भारत की पुरानी कहानी है जिसमें वाल्मीकि और तुलसी ने पूर्ण रीति से आर्य संस्कृति का प्रतिफलन कर उसे हमारे नित्य प्रति के जीवनादर्श का प्रतीक बना दिया है। मैथिलीशरण गुप्त जी ने यद्यपि अपने पूर्ववर्ती कवियों से बहुत कुछ ग्रहण किया है, परंतु फिर भी इस कथा में अनेक मौलिक उद्भावनाएं भी की हैं। सबसे प्रधान बात तो यह है कि साकेत में आ कर राम और सीता की कहानी प्रधानतः उर्मिला की कहानी बन जाती है और उसी रूप में उसका विकास और संघटन (राम कथा की पृष्ठभूमि पर) होता है। डॉ. नगेन्द्र का ऐसा मानना है कि साकेत के सृजन के मूल में दो प्रेरणाएं थीं (1) रामभक्ति, और (2) भारतीय जीवन को समग्र रूप में देखने और समझने की लालसा। उसकी सफलता का मूल्यांकन भी इन्हीं दो रेखाओं द्वारा होना चाहिए। रामभक्ति स्वभावतः राम-काव्य की ओर संकेत करती है और जीवन-दर्शन की लालसा जीवन-काव्य (प्रबंध-काव्य) की ओर। इनकी सापेक्षता में ही हमें 'साकेत' को देखना होगा। निष्र्कषतः यह माना जा सकता है कि मानव-मानव के पारस्परिक संबंध संसर्गों का व्याख्यान 'साकेत' की अक्षय विभूति है। हमारा आज पूर्व का ही प्रतिफलन है और आज और पूर्व दोनों में आत्मा की तरह बैठा हुआ जो भारतीय जीवन है उसी की व्याख्या साकेत में है। उसमें प्राचीन का विश्वास और नवीन का विद्रोह दोनों समन्वित हो कर एक हो गये हैं। इसलिए साकेत में वर्तमान की सभी समस्याएं देखने को मिलती हैं, परंतु साथ ही उनका समाधान भी मौजूद है-"व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर"। इस दृष्टि से यह महाकाव्य भारतीय जीवन का एक प्रतिनिधि ग्रंथ बन गया है। प्रस्तुत पुस्तक 'साकेत एक अध्ययन' में वरिष्ठ आलोचक डॉ. नगेन्द्र ने इस महाकाव्य के प्रत्येक पहलू का योजनाबद्ध तरीके से विस्तृत विवेचन किया है। निःसंदेह, उनकी यह आलोच्य कृति हिंदी के प्राध्यापको एवं विद्यार्थियों में अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक बन गयी है, जिसके अब तक अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
भूमिका
इस अवधि में नवीन शोध के आलोक में मेरी कतिपय मान्यताओं में भी परिवर्तन हुआ है। उदाहरण के लिए, 'साकेत की कथावस्तु में मौलिक उद्भावनाएं' शीर्षक के अंतर्गत मैंने लिखा है कि लक्ष्मण की शक्ति का समाचार सुन कर साकेतवासियों की रणसज्जा का प्रसंग गुप्त जी की अपनी कल्पना है। परंतु डॉ. रमाकांत शुक्ल ने अपने शोध-प्रबंध में यह उद्घाटित किया है कि ईसा की सातवीं शताब्दी के जैन कवि रविषेण अपने काव्यग्रंथ 'पद्मपुराण' में इस मार्मिक प्रकरण की उद्भावना कर चुके थे और गुप्त जी ने मूल घटना ही नहीं वरन् उसका वर्णन-विस्तार भी प्रायः वहीं से ग्रहण किया है।
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