पुस्तक के विषय में
हमारी ही चेतना में संचित है हमारा काल-आयाम ! हम हैं, क्योंकि धरती है, धूप ही, जल है और आकाश ! इसलिए हम जीवित हैं ! भीतर और बाहर-सब कहीं-सब कुछ को अपने में संजोए ! विलीन हो जाने को पल -पल अनन्त में ...!
पुरानी और नै सदी के दो-दो छोरों को समेटा 'समय सरगम' जीए हुए अनुभव की तटस्था और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास है; और फिर भारत की बुजर्ग पीढ़ियों का एक ही साथ नया-पुराना आख्यान और प्रत्याख्यान ! संयुक्त परिवारों के भीतर और बाहर वरिष्ठ नागरिकों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता 'स#2350;य-सरगम' की बंदिश में अनिर्निर्हित हैं! आज के बदलते भारतीय परिदृश्य में यह उपन्यास व्यक्ति की विश्वव्यापी स्वाधीनता, उसके वैचारिक विस्तार और कुछ नए संस्कार-संदर्भों को प्रतिध्वनित करता है! दूसरे शब्दों में, इससे उत्तर-आधुनिक काल की संभावनाओं को भी चीन्हा जा सकता है; और उन मूल्यों को भी जो मानवीय विकास को सार्थकता प्रदान करते हैं! ईशान और आरण्या जैसे बुजुर्गो परस्परविरोधी विश्वास और निजी आस्थाओं के बावजूद साथ होने के लिए जिस पर्यावरण की रचना करते हैं, वहाँ न पारिवारिक या सामाजिक उदासीनता है और न किसी प्रकार का मानसिक उत्पीड़न!
कृष्णा सोबती की प्रख्यात कलम ने कथाकृति में अपने समय और समाज को जिस आंतरिकता से रचा है, वह वर्तमान सामाजिक यथार्थ को तात्विक ऊचाइयों तक ले जाता है, और ऐसा करते हुए वे जिस भविष्य की परिकल्पना या उसका संकेत करती हैं, उसी में निहित है एक उद्भास्वर आलोक-पुंज!
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