राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी, की वार्षिक शोध पत्रिका 'संस्कृति संधान' का प्रस्तुत अंक भारतीय इतिहास, कला, साहित्य, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, सामाजिक एवं आर्थिक आदि विविध विषयों पर शोध के माध्यम में बहु-आयामी भारतीय संस्कृति के कुछ नये तथ्यों को उद्घाटित करने का एक अल्प प्रयास है।
'संस्कृति' ('सम्' उपसर्ग 'कृ' धातु एवं 'क्तिनृ' प्रव्यय) का अर्थ है परिष्कार, तैयारी, पूर्णता एवं मनोविकास आदि। संस्कृति समस्त सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति है। बहु आयामी संस्कृति मानव-जीवन के आचार-विचार का संशुद्धिकरण अथवा परिमार्जन है। 'संस्कृति' सूक्ष्म एवं स्थूल, मन एवं कर्म, आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन को परिष्कृत कर कल्याणकरी मार्ग प्रशस्त करती है। 'संस्कृति' मानव जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला-साहित्य आदि इहलौकिक एवं पारलौकि उपलब्धियों का आधार स्तम्भ है। संसार के जो भी सर्वोत्तम संस्कार अथवा नियम-संयम हैं उनसे अपने आपको परिचित कराना ही 'संस्कृति' है। 'संस्कृति' मानव-जीवन की सजी-संवरी अंतः स्थिति है। वह मानव समाज की परिमार्जित मति, रुचि एवं प्रवृत्तिपुंज का नाम है। 'संस्कृति' जन्म से लेकर मुत्यु पर्यंत समस्त संस्कारों द्वारा जीवन को परिमार्जित कर पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष जिनमें धर्म, अर्थ एवं काम को इहलौकिक अर्थात् प्रवृत्ति मूलक एवं मोक्ष को पारलौकिक अर्थात् निवृत्ति मूलक) की सिद्धि का मूलाधार है।
संस्कृति' से ही मिलता-जुलता अथवा यों कहिए कि 'संस्कृति' का पूरक 'सभ्यता' (सभ्य तल+टाप, त्व वा) का अर्थ है विनम्रता, सुशीलता, कुलीनता एवं अच्छे तहजीब वाला। ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पूरक होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किये जाते हैं। 'सभ्यता' मनुष्य को आदिम जंगली स्थिति से सामाजिक जीवन की ओर प्रगति के पथ पर ले जाती है। जब कि 'संस्कृति' उसी प्रगति की 'सत्यं, शिवं एवं सुंदरं (रुचिरं)' परंपरा का नाम है। 'सभ्यता' सामाजिक व्यवहार तथा प्रगति के बाह्य तत्वों को सुदृढ़ बनाती है; जबकि 'संस्कृति' अंतः चेतना एवं परंपराओं को परिमार्जित करती है। 'संस्कृति' जीवन का आंतरित सौंदर्य है तो 'सभ्यता' उसके बाह्य साधनों की सुविधा। 'सभ्यता' एवं 'संस्कृति' के विकास-क्रम के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों ही मानव विकास के दो पहलू हैं। 'संस्कृति' मानव विकास की अंतस् चेतना, सौंदर्यानुभूति, आनन्द तथा उल्लास के आभ्यंरिक तत्वों को परिष्कृत कर उसे सजाती-संवारती है, जब कि 'सभ्यता' उसकी स्थूल एवं भौतिक सुख-सामग्री के संयोजन एवं उसके लिए आवश्यक संगठित प्रयत्नों की ओर संकेत करती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि 'संस्कृति' का सम्बन्ध मानव की आंतरिक परिष्कृति तथा अंतस् चेतना से रहता है। किन्तु 'सभ्यता' सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों से बंधी रहती है। इसी बात को स्पष्टतया इस प्रकार कहा जा सकता है कि 'सभ्यता' को मानव जीवन की विकास यात्रा में उसके (मानव के) बाह्य प्रयोजनों को सहज लक्ष्य बनाने का विधान तथा 'संस्कृति' को मानव जीवन की अतिशय आनंद की अभिव्यक्ति माना जा सकता है। 'सभ्यता' एवं 'संस्कृति' के अंतर को स्पष्टतया 'साध्य' एवं 'साधन' के रुप में समझा जा सकता है। 'सभ्यता' वह 'साधन' है जिसके द्वारा 'संस्कृति' रुपी 'साध्य' की प्राप्ति की जा सकती है। 'संस्कृति' के क्षेत्र में आने वाले आदर्श, विश्वास एवं परंपराएं आदि जीवन के लक्ष्य अथवा साध्य बन जाते हैं। जब कि मानव जीवन के भौतिक प्रगति की दिशा में अग्रसर कर उसे सुख-समृद्ध एवं सम्पन्न बनाने वाले 'सभ्यता' के उपकरण 'साधन' रुप में आते हैं। इस प्रकार 'संस्कृति' एवं 'सभ्यता' मानव जीवन के सर्वांगीण (आंतरिक एवं बाह्य) विकास के लिए क्रमशः 'साध्य' एवं 'साधन' के रुप में परस्पर एक-दूसरे के पूरक एवं सहायक है।
संस्कृति संधान के प्रस्तुत अंक के प्रकाशनार्थ 'भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्', नई दिल्ली, द्वारा दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। इसके लिए हम उक्त संस्था के अध्यक्ष, निदेशक, सदस्य सचिव एवं शोध अधिकारियों के आभारी हैं। हम अपने समस्त सहयोगियों, शोध निबन्ध लेखकों, संस्था के पदाधिकारियों, सदस्यों, परामर्शदात्री समिति के सदस्यों तथा सम्पादक मण्डल के सदस्यों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। आगामी अंके के समय से नियमित प्रकाशनार्थ हम उन सभी के सहयोग, सुझाव एवं आशीष की कामना करते हैं। संस्कृति संधान के प्रस्तुत अंक के विलम्ब से प्रकाशन एवं भूल से रह गयी त्रुटियों के लिए हम सभी पाठकों से क्षमा प्रार्थी हैं।
आगामी अंकों के प्रकाशन, संपादन एवं उच्चस्तरीय शोध निबन्धों पर सभी विद्वत्जने के सुझाव सादर आमंत्रित हैं।
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