संस्कृत साहित्य अपने आख्यानों और उपाख्यानों की समृद्ध परंपरा के कारण विश्व में महनीय है। रामायण और महाभारत ये दोनों इतिहासग्रन्थ इन आख्यानों और उपाख्यानों के भंडार हैं। उपाख्यान और आख्यान का वैशिष्ट्य भोज ने अपने शृङ्गारप्रकाश में बताया है। इसके अनुसार उपाख्यान किसी प्रबन्ध के भीतर एक पात्र के द्वारा दूसरे के प्रबोध के लिये की गई कथा है। यही कथा प्रथक् रूप से गद्य और पद्म के मिश्रण के साथ कहीं पाठ करते हुए तो कहीं गायन करते हुए अभिनय पूर्वक प्रस्तुत की जाये तो वह आख्यान बन जाती है।
नलसावित्रीषोडशराजोपचारवत् प्रबन्धान्तः ।
अन्य प्रबोधनार्थमुपाख्याति तदुपाख्यानम् ।
आख्यासत्तां तल्लभते यद्यभिनयन् पठन् गायन् ।।
ग्रन्थिक एकः कथयति गोविन्दवदवहिते सदसि ।।
आख्यान प्राचीन भारत में निश्चय ही एक लोकप्रिय विधा थी। पतंजलि ने ग्रन्थिकों का उल्लेख किया है, जो ग्रन्थ से पाठ कर के किसी आख्यान को सुनाते थे। बाणभट्ट ने भी ग्रन्थिक का वर्णन किया है, जो कथाग्रन्थ या आख्यान को जनसमाज के समाने पढ़ कर सुनाता था। जिस प्रकार कवि के द्वारा अपनी रची कविता का पाठ यदि अच्छे स्वर और रमणीय नाद के साथ किया जाये, तो वह श्रोताओं को रसविभोर कर देता है, उसी प्रकार ग्रन्थिक भी आख्यान को केवल पढता नहीं था, वह काकु, स्वर के उतार चढाव, नाद की गम्भीरता और वाचिक अभिनय की सारी प्रविधि का उपयोग कर कथा को जन-समाज में सजीव बना देता था। अतः काव्य रच लेना ही पर्याप्त नहीं, उसका सही पाठ कर पाना भी बड़ी कला है। पाठ की इस महिमा को देख कर राजशेखर ने उचित ही कहा है-
करोति काव्यं प्रायेण संस्कृतात्मा यथातथा। पठितुं वेत्ति स परं यस्य सिद्धा सर पाठ करने की या काव्य प्रस्तुत करने की कला का विकास भी तभी हो सकता है, जब कविता में भी पाठ-सौन्दर्य हो-वह पाठ के लिये प्रेरित करे और पाठ करने पर उसका सौन्दर्य उसी प्रकार खुल जाये, जिस प्रकार नाटक मंच पर प्रस्तुत होने पर अपना वास्तविक सौन्दर्य खोलता है। चम्पू-काव्य में पाठसौन्दर्य का प्रकर्ष हम पाते हैं, क्योंकि इसका सीधा संबंध आख्यान और उपाख्यान की उपर्युक्त परंपरा से जुड़ता है। जो चम्पू सर्वप्रथम हमें प्राप्त होते हैं- त्रिविक्रम भट्ट का नलचम्पूः या भोज का रामायण चम्पूः वे आख्यानों और उपाख्यानों के ही रूपान्तर हैं। रामायण चम्पू में रामकथागायन की या ग्रन्थिकों के पाठ की समकालीन परम्परा स्पष्ट झलकती है।
रामायण का गद्य-पद्यात्मक प्रस्तुतीकरण जिस प्रकार ग्रंथिकों या पौराणिकों के द्वारा किया जाता रहा होगा, वह इस चम्पू की रचनाप्रक्रिया में अन्तर्गर्भित है। आरम्भ में भोजराजस्वयं इसका संकेत देते भी हैं-
गद्यानुबन्धरसमिश्रितपद्यसूक्ति-हृद्या हि वाद्यकलया कलितेव गीतिः । तस्माद् दधातु कविमार्गजुषां सुखाय चम्पूप्रबन्धरचनां रसना मदीया।
गद्य और पद्म का मिश्रण इसी तरह होता है जैसे गायन और वादन का सम्मिश्रण। भोज के ही रामायणचम्पू का इस दृष्टि से परिशिलन किया जाए, तो उसके गद्यात्मक भाग में कथागायान करने वाले कथक या ग्रंथिक की पाठशैली झलकती है। इस शैली में नाटकीयता, गेय तत्त्व और संवादों की रुचिरता रहती है। उदाहरण के लिये अरण्यकाण्ड में विराध का राम और लक्ष्मण से यह कथन-
कौ युवां युवानौ, कुतस्त्यौ, वामाचरवत् प्रतिभाति वामाचारः।
चीरं वपुषि, जटोः शिरसि, करे च कोदण्डः ।
क्वायमाकल्पः, क्व च कल्पलताकल्पेयमल्पाभरणा तरुणीति ।
(रामायणचम्पूः, निर्णयसागर संस्करण, 1939, पृ० 158)
नलचम्पूः, रामायणचम्पूः, भारतचम्पूः, आदि चम्पुओं के लेखकों ने मूल कथा में इसीलिये विशेष परिवर्तन नहीं किये, क्योंकि आख्यान की परम्परा के समान चम्पूकाव्य मूलतः जनसमाज के सम्मुख पाठ और गायन के साथ प्रस्तुत करने के लिये रचा जाता था।
चम्पू लोक से जुड़ी विधा है। जिस प्रकार लोक में सभी कुछ समाया हुआ है, उसी प्रकार चम्पू में समस्त साहित्यविधाओं का वैशिष्ट्य समाहत हो जाता है।
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