प्रस्तुत ग्रन्थ 'अध्यात्म स्वास्थ्य की संस्कृत पृष्ठभूमि एक समीक्षात्मक अध्ययन' (Sanskrit Foundation of Spiritual Health: A critical Study) का उद्देश्य वेद, उपनिषद्, षड्दर्शन, महाकाव्य, धर्मशास्व, भागवतमहाष्ट्राराण, भगवद्गीता, संहिता साहित्य तथा आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान आदि भारतीय प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के आधार पर अध्यात्म स्वास्थ्य की खोज करना है। यद्यपि यह विषय हमारी भारतीय जीवन परम्परा में अज्ञात काल से स्थापित और जीवन पद्धति से अन्योन्याश्रित है उस पर अनुसन्धान परक अध्ययन की संभावना सदैव है। पुनश्च विश्व-मानव सभ्यता के विकास के समानान्तर अतीत को पुनः व्याख्यायित करना समय की मांग है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य खोज के साथ-साथ पुनर्मूल्यांकन एवं मूल्यप्रदायी अध्ययन है।
विश्व का सामान्य तात्पर्य सब को विदित है। भारतीय अध्यात्म चिन्तन में सर्व प्रथम स्थान निसर्ग को दिया गया है; जो दो रूपों में अभिव्यक्त है 1. जीव-संसार एवं 2. उद्भिद संसार। ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं। जहाँ ये दोनों परस्परापेक्षी हैं अर्थात् एक दूसरे के अस्तित्व के साथ अनन्य रूप से जुड़े हैं दूसरी ओर दोनों में जैविकता विद्यमान है। दोनों चेतन हैं। किन्तु दोनों की चेतनता में थोड़ा सा अन्तर है। जीव-संसार की अभिव्यक्ति के लिए वाणी और चिंतन की ऊर्जा प्राप्त है जो उद्भिद को नहीं। चिंतन की व्याख्या और परिभाषा अनेक हैं। उनमें से आत्मा और परमात्मा संबन्धी विशिष्ट चिंतन को अध्यात्म कहा जाता है। यह भी सब को विदित है कि शरीर, मन और आत्मा का समवायी संबन्ध है। अर्थात् तीनों एक दूसरे से अनन्य रूप से जुड़े हैं। शरीर अभिव्यक्त बिन्दु है। मन और आत्मा जो शरीराश्रयी हैं वे अनुभवगम्य हैं। विश्व में ऐसे अनेक पक्ष हैं जिनमें देहानुभूति का अभाव है। फिर भी मन और आत्मा अनुभवगम्य और अनुमान सापेक्षी हैं।
मानव सभ्यता के इतिहास में यह एक सुखद प्रसंग है कि भारत में देह, मन और आत्मा को बराबर महत्त्व दिया गया है। अदृष्ट को दृष्ट के रूप में संकल्पित करने का समस्त श्रेय भारतीय ऋषियों तथा संहिताकारों को जाता है जिह्नने दैहिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य का भी अनुशीलन किया है।
भारतीय मानव-सभ्यता के विकास के इतिहास में संभवतः यह सबसे दुःखद प्रसंग है कि संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए भारतीय ऋषियों द्वारा प्रणीत अमूल्य 'अध्यात्म स्वास्थ्य विज्ञान' की सर्वाधिक उपेक्षा हुई है।
आधुनिक काल में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का जन्म हुआ है जिसकी दिशा-दृष्टि भारतीय जीवन पद्धति से संपूर्ण भिन्न है। यह उल्लेखनीय है कि जहाँ भारतीय साहित्य में उपलब्ध 'अध्यात्म स्वास्थ्य-प्रविधि' प्रेम, अहिंसा, त्याग, सहिष्णुता सेवा, तपस्या, आत्मसंयम आदि पर बल देता है, दूसरी ओर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान मानवीय मूल्यबोध से बहुत दूर है। इसका आधार पूर्णतः भौतिक और व्यावसायिक है।
मानव-स्वास्थ्य की कई शाखाएँ हैं कायिक, मानसिक और आत्मिक। दुःखों के निवारण हेतु कई सरल और सहज उपाय हैं; जैसे- योगाभ्यास, सात्त्विक जीवन, ईश्वरप्रणिधान, निष्काम-भक्ति, ज्ञान-साधना, समाज-सेवा आदि। इन सब का विस्तृत वर्णन संस्कृत वाङ्मय में विखरा पड़ा है। हमने प्रस्तुत अध्ययन के सिलसिले में इन्हें बटोरने का यथासाध्य प्रयास किया है। यहाँ कई प्रश्न उठते हैं।
क्या 'अध्यात्म स्वास्थ्य विज्ञान' एक प्रामाणिक चिकित्सा विज्ञान है? क्या इस के आधार पर राष्ट्र की स्वास्थ्य सेवा की बृहत् योजना का निर्माण हो सकता है? संप्रति राष्ट्र के कितने प्रतिशत लोग इसको समझते हैं? और समझ कर आचरण करते हैं? आध्यात्मिक उपचार से प्राप्त लाभका दस्तावेज राष्ट्र के पास है? ये सारे प्रश्न उन्हीं को है जो देश के बुद्धिजीवी हैं, राजनेता हैं, प्रज्ञापुरुष हैं और कथित साधुसंत हैं। हमने अपने अध्ययन के दौरान उल्लिखित प्रश्नों से बचने का प्रयास किया है, क्यों कि यह हमारे शोध अध्ययन का उद्देश्य नहीं है।
यह कहना अनावश्यक है कि हमारे अध्ययन का विषय बहुत बड़ा और विस्तृत है। हजारों वर्षों की ज्ञानराशि, चिंतन और अवदान को एक शोध प्रबन्ध में समाहित करना दुरुह कार्य है। फिरभी हमने दो बिन्दुओं को सामने रखा है। एक है आध्यात्मिक जीवन दर्शन के रहस्य को खोलना और दूसरा सांप्रतिक बेहद बेचैनी से मुक्त रहना। यह सबको ज्ञात है कि अद्यतन जीवन शैली में आयातीत भौतिक कामना अपरिमित है, और इसी कामना ने अपरिमित तनाव पैदा किया है। आदमी खाता है पर पेट नहीं भरता। विपुल धनराशी इकठ्ठा करता है सन्तोष नहीं होता। परिवार है पारिवारिक सुख नहीं है। सदैव सुख और धन की तलाश है। परिणाम स्वरुप आज प्रत्येक व्यक्ति तनावग्रस्त है। हर व्यक्ति बेचैन है। हमने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की तरह आध्यात्मिक उपचार को सीमित नहीं पाया। यह असीमित है। नींद की गोली की जरुरत नहीं है। अस्पताल तो अर्थहीन है। अपने दायरे में, घर में, अपने मन में समाधान खोजने का जितना सारा उपाय हैं उस के तहतक जाने का प्रयास यह शोध प्रबन्ध है।
प्रत्येक शोध प्रबन्ध के प्रसंग में शोध प्रविधि का प्रश्न उठाया जाता है। यह कहना अनावश्यक है कि मान्य शोध प्रक्रिया के अनुसरण में शोध कार्य अनुशासित होता है और उसकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। हमने शोधप्रविधि को ध्यान में रख कर यह शोध कार्य संपन्न किया है। संस्कृत वाङ्मय में बौद्धिकता को महत्त्व देते हुए चिंतन और संदर्भ को प्रासंगिक माना गया है। इसलिए साहित्य, दर्शन, नैतिकता, इतिहास, भूगोल आदि एक प्रकरण में मिलजाते हैं। यह भारतीय सामासिक संस्कृति का लक्षण है।
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