प्रस्तुत पुस्तक की रचना संस्कृत काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का मात्र परिचय देने के लिए नहीं, अपितु इस प्रश्न का उत्तर खोजने के उपक्रम में हुई है कि संस्कृत काव्यशास्त्र तथा संस्कृत काव्य दोनों कहां तक एक-दूसरे के साथ चल सके हैं। लेखक की दृष्टि में काव्यशास्त्र का सर्वोपरि लक्ष्य समकालीन तथा पूर्ववर्ती काव्य की व्याख्या करना तथा उसके आधार पर अपने लक्षणों को परिष्कृत बनाते हुए उसे सैद्धांतिक आधार प्रदान करना है। संस्कृत काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्यों ने इस उपपत्ति को अनेकशः स्वीकार किया है कि लक्षणों का निर्माण लक्ष्यग्रंथों (रामायण, महाभारत तथा कालिदास आदि समर्थ कवियों की रचनाओं) के आधार पर हुआ करता है। लेखक के मन में संस्कृत काव्यशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन के समय पिछले कुछ वर्षों से यह प्रश्न उठता रहा है कि संस्कृत का काव्यशास्त्र इस स्वप्रस्तुत निकष पर कहां तक खरा उतरा है।
दर्शन, वैचारिक उहापोह, टीका-टिप्पणी तथा भेदोपभेद के बीहड़ में काव्य के जो मूल निकष और तत्त्व पकड़ में आते-आते उलझ कर छूट गए, उन्हें, कविता का अथ जहां से हुआ है, वहीं से खोजने का उपक्रम प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। काव्य के स्वरूप तथा उसकी रचनाप्रक्रिया के विषय में काव्यशास्त्र की धारणाएं किन काव्यस्रोतों से किस प्रकार गढ़ी गई, यह पुस्तक का मूल विषय है। साथ ही किस प्रकार अलंकार, गुण तथा रस के तत्व काव्यचिंतन में वेद, महाभारत तथा रामायण के काव्यांशों से प्रेरित हुए इसका भी विवेचन किया गया है।
काव्यशास्त्र के सिद्धांतों के निर्माण और विकास की मूल भित्ति काव्य ही है, तथा काव्यशास्त्र का परम प्रकर्ष इसी में है कि वह काव्य से प्रेरित होता हुआ उसके उपस्कारक का कार्य करता रहे। यही काव्य तथा काव्यशास्त्र के संबंध तथा पारस्परिक आदान-प्रदान की भूमिका है। किंतु जब काव्यशास्त्र का आचार्य स्वयं को कवि का शास्ता मानकर काव्य को अपने शास्त्र का उपकरण बनाते हुए शास्त्र को ही उपक्रियमाण मानने लगता है, तो उससे शास्त्र में न केवल सैद्धांतिक अवगति तथा अवरोध की स्थिति होती है, अपितु काव्य को भी हीन बना दिया जाता है। कवि कालिदास को यही तो भय था कि वे (आचार्यों के सामने) कवि के यश के प्रार्थी होकर जाएंगे, तो उनकी हंसी होगी उन्हें ऊपर लगे फल को तोड़ना चाहने वाले बौने के समान छोटा बना दिया जाएगा। महाकवि भवभूति ने भी अपनी सबसे परिणत कृति में 'सर्वथा व्यवहर्तव्यं कुतो ह्यवचनीयता। यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः' के द्वारा अवचनीय कवि दचन को वचनीय बनाने वालों पर कटाक्ष किया है। भवभूति के ही समय की श्रेष्ठ कवयित्री विज्जिका ने भी रचना को वचनीय बनाने वाले पंडितों से घबरा कर ऐसे दुर्लभ सहृदय काव्यपारखी को प्रणामांजलि अर्पित की थी 'जो कवि के अशब्दगोचर अभिप्राय को समझकर रोमांचित देह से सूचित भर करता हुआ चुप होकर रह जाए।' कालिदास ने ऐसे सज्जनों या सहृदयों से ही काव्यपरीक्षा करवाने की बात 'सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते' तथा 'तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति' के द्वारा एकाधिक बार कही थी और संभवतः काव्यशास्त्र के दिग्गज पंडितों और आचार्यों से अपने काव्य को बचाना चाहा था।
संस्कृत कवि के लिए ऐसी स्थितियां क्यों आई कि उसने अपनी रचना को काव्य के महनीय आचार्यों के समक्ष सादर परीक्षणार्थ प्रस्तुत करने के स्थान पर उल्टे उनसे उसे बचाना ही चाहा? यही नहीं, किसी मनोरथ नामक कवि ने तो ध्वनि सिद्धांत के आचार्यों को उनकी मतिमंदता के कारण तीखी फटकार भी सुना डाली। इन तथ्यों को हम काव्य तथा काव्यशास्त्र के पारस्परिक टकराव का अध्ययन करके ही समझ सकते हैं। लेखक को पंडितजनों का यह निष्कर्ष अपने इस अध्ययन में विपरीत ही लगा है कि जब संस्कृत काव्यशास्त्र का चरम प्रकर्ष हुआ तब संस्कृत कविता का ह्रास होने लगा था। काव्य तथा काव्यशास्त्र परस्पर अनुबद्ध हैं : वे 'परस्परं भावयन्तः' की भावना छोड़ अपने-अपने खेमों में अलग-अलग रह जाते हैं, तो दोनों का एक साथ ही हास होता है। संस्कृत काव्यशास्त्र के उच्चतम सिद्धांत वेद, वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति की कविता से जन्मे और पनपे हैं।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist