प्रस्तावना
विनोबाजी ने भारत की सभी भाषाओं के संत साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। उसके लिए वे विविध भाषाएं सीखे। असम प्रांत की भूदान-पदयात्रा होनेवाली थी तब की बात है। असम पहुंचने के लगभग दो-ढाई माह पहले उन्होंने असमीया भाषा सीखना शुरू किया। वहां के प्राथमिक स्कूलों की भाषाविषयक पाठ्यपुस्तकें मंगवायीं। फिर असम की एक ज्येष्ठ कार्यकर्ता बहन विनोबाजी के इस अध्ययन में सहायक हो सके, इस दृष्टि से पदयात्रा में कुछ दिन रहीं। स्कूल की कुछ कक्षाओं तक ही उनकी पढ़ाई हुई थी। 'मैं कैसे बाबा की मदद कर सकती हूं?' यह प्रश्न उन्हें सतत तकलीफ देता रहता। लेकिन बाबा ने बडी कुशलता से उनकी मदद जहां चाहिए वहां खुद सवाल पूछकर, उनके जवाब के द्वारा प्राप्त कर ली। बाबा ने प्रश्नों के जवाब देने के बाद बहन राहत महसूस करती कि 'मैं कुछ तो बता सकी'। फिर एक प्राध्यापक कुछ दिन इस काम के लिए आकर रहे। वापस जाते समय उन्होंने कहा, असमीया भाषा की कुछ विशेषताएं तो मुझे ही उनसे मालूम हुई। असम पहुंचने तक विनोबाजी असमीया भाषा में निपुण बन गये थे। असम की पदयात्रा में वे असम के महापुरुष श्रीशंकरदेव और श्रीमाधवदेव के साहित्य में और सान्निध्य में निमग्न थे। मानो उन महापुरुषों के साथ ही उनकी यात्रा हो रही थी। श्रीमाधवदेव का नामघोषा ग्रंथ असम के घर-घर में पढ़ा जाता है। विनोबाजी ने उन घोषाओं (पद्मों) का चयन किया और 'नामघोषा-सार' नाम से देवनागरी लिपि में पुस्तक प्रकाशित की। उससे समूचे भारत को असम के इस सत्ग्रंथ का परिचय हो सका। विनोबाजी इन कामों को भूदान-यात्रा का 'बाय-प्राडक्ट' कहते थे। दरअसल समन्वय के कार्य में उनका यह चिरकालीन, बहुत बडा योगदान है। संतों ने अस्पृश्य माना नहीं है। अध्यात्म में किसी भी प्रकार की स्पृश्यास्पृश्यता नहीं होती। संत समाज-जीवन को उसके सर्वांगों के साथ देखते थे। संत-साहित्य में समाज-परिवर्तन की शक्ति भरी हुई है। संत समाज-विमुख नहीं थे, समाजाभिमुख थे, यह तो है ही; लेकिन वे अत्यंत क्रांतिकारी थे। किसी भी प्रकार की बाहरी सत्ता को माननेवाले नहीं थे। सर्व सत्ता आली हाता, नामबाचा खेचर दाता (नाम. 293) संत नामदेव कह रहे हैं कि पूरी की पूरी सत्ता हाथ में आ गयी है, नामदेव के (गुरु) खेचरदास दाता हैं। संत केवल स्व-सत्ता, अर्थात् व्यावहारिक स्तर पर लोकसत्ता यानी जनता-जनार्दन की सत्ता, माननेवाले थे। इस संदर्भ में विनोबाजी का एक वचन उधृत करने जैसा है। उनके सहकारी, गांधी विचार के चिंतक श्री अप्पासाहब पटवर्धन को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं, "हमारे संतों के साहित्य का मनन करने पर उसमें एक असाधारण बात मुझे दिखायी दी कि उन्होंने सरकार नामक वस्तु का अस्तित्व ही मान्य नहीं किया है। खुदको अराजकवादी कहलानेवाले भी इतने अराजकवादी नहीं होते, यह बात अपने चित्त का निरीक्षण करते हुए मेरे ध्यान में आयी। उससे मुझमें बडा परिवर्तन हुआ।" संतों के जीवन के इस क्रांतिकारी पहलू की प्रतीति विनोबाजी ने अपने साहित्य से बडी खूबी से करवायी है। प्रस्तुत पुस्तक में विनोबाजी ने श्रीज्ञानदेव के चारित्र्य-गुणों का गौरवपूर्ण अप्रतिम वर्णन किया है। 'माउली' (मां), ज्ञानियों का राजा, ज्ञानेश्वरी का कर्ता, संजीवन समाधि लेनेवाला योगी, यह श्रीज्ञानदेव की सार्वत्रिक पहचान है। परंतु इस पुस्तक में विनोबाजी ने उनका जो परिचय करा दिया है,
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