'सारस्वत-सङ्गम' एक प्रकार का अभिनन्दन ग्रन्थ है जिस का मूल आधार 'घाघरा से सिप्रा' को मानना चाहिये। आचार्य बच्चूलाल अवस्थी 'ज्ञान' का जन्म विशाल घाघरा नदी की छड़ान के तट पर होने पर भी आज नदी को ही जन्मस्थान मानना चाहिये क्योंकि आज उस भूमि का कोई अता-पता नहीं है। दूर-दूर तक घाघरा ने उस क्षेत्र को अपने में समाहित कर लिया।
आचार्य ज्ञान की घाघरा से सिप्रा तक होने वाली भौगोलिक यात्रा में अनेक ऐसे पड़ाव है, जहाँ से उन्होंने सारस्वत-वैभव प्राप्त किया, सरस्वती की उपासना करते रहे और बढ़ते रहे। आज वार्धक्य में वे सिप्रा के तट पर महाकालवन में स्थायी हो कर रह रहे है।
आचार्य जी के अभिनन्दन का, जब प्रायः चार वर्ष पूर्व, प्रस्ताव किया गया था तब वे पहले कुछ अन्यमनस्क रहे। जीवन में अन्तिम सम्मान लेने में उन को क्यों हिचक थी, यह उन्होंने स्वयं स्पष्ट किया। सामग्री सङ्कलन में आने वाले व्यवधान, सङ्कलित सामग्री का साधु विनियोजन, शुद्ध मुद्रण, क्रम-निर्धारण आदि ऐसे प्रश्न होते है जिनके लिये उत्कृष्ट मेधा की अपेक्षा होती है। इस सब के अतिरिक्त सङ्कोच की बात यह भी थी कि आज वे राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित संस्कृत के मनीषी विद्वान् है, ऐसा न हो कि सम्मान में कहीं अवमानना की निगूढ सत्ता पीडित करे। जिन संस्कृत विद्वानों ने अलग-अलग समय-समय पर उन्हें सम्मान दिया है और आज भी देते हैं, उन के द्वारा प्रस्तुत सामग्री ही ग्रन्थ के नाम को सार्थक कर सकती है। वह सामग्री कहाँ-कहाँ से किस-किस प्रकार बुलायी जाएगी, यह भी सन्दिग्ध था। लघुकाय ग्रन्थ नाम को सार्थक नहीं कर सकता, यह भी कारण रहा होगा।
कुछ भी रहा हो, कुछ एक पत्रों से ऐसा लगा कि ज्ञान जी को बड़े कृती के रूप में देखा जाता है या देखा गया है, तब उन्होंने मनोयोग-पूर्वक सम्मान ग्रन्थ को स्वीकृति दी। अनेक प्रकार की सामग्री पहले ही एकत्र कर ली गयी जिस में घाघरा से सिप्रा तक का भाग और आचार्य परम्परा मुख्य है। गुरुवर की दृष्टि में, जो भी सम्मान, कहीं भी, किसी के द्वारा भी, किसी प्रकार के पाण्डित्य को लक्ष्य बना कर किया जाता है वह सम्मान दैहिक व्यक्तित्व का न हो कर सूक्ष्म संस्कारों में निहित विशाल परम्परा होती है। यह परम्परा दो वंशों से बनती है- जन्मवंश और विद्यावंश। ये दोनों ही जीवनवृत्त के भाग होते है, इन्हें छोड़ कर कोई जीवनी बन नहीं सकती और इन दोनों के बिना जो व्यक्ति का सम्मान होता है उसे वे उन दोनों वंशों से मिले हुए सम्प्रदाय की अवमानना मानते है। यह अवमानना व्यक्ति को सर्वथा 'खर्व' बना देती है। इस खर्वीकरण से ज्ञान जी ने अपने को बचाना चाहा, इसीलिए 'घाघरा से सिप्रा' के साथ 'आचार्य-परम्परा' को आग्रहपूर्वक जोड़ने का प्रस्ताव किया। उस के जुड़ जाने पर उन्होंने होने वाले सारस्वत सम्मान की सार्थकता स्वीकार की।
इतने से स्पष्ट है कि अवस्थी जी अपने जीवनवृत्त का प्रकर्ष सामने लाना चाहते थे। सम्पादक मण्डल तथा सभी सम्पादकों ने इस विषय में योगदान किया। उन से परिचित जनों ने जो प्रशस्तियाँ लिखी और जो संस्मरण प्रस्तुत किये उन से स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ उन की विस्तृत जीवनकथा है जो दोनों वंशों से निर्मित हुई और सम्मानग्रन्थ के रूप में स्तुत्य बनी।
ज्ञान जी ने उनतीस वर्षों तक हिन्दी का अध्यापन किया, फिर भी हिन्दी में उन्हें वैसा सम्मान नहीं मिला। कहना चाहिये कि उस सम्मान में उन का संस्कृतज्ञ होना बाधक था, अत एव सभी सम्पादकों ने; जिन में बहुधा उन का शिष्यवर्ग है, यही विचार किया कि इस में संस्कृत की सामग्री का प्राचुर्य हो। विद्वानों ने एतदर्थ विशाल योगदान किया कि ग्रन्थ का नाम सार्थक हो गया। अधुनातन संस्कृत कवियों की रचनाएँ सारस्वत-सङ्ङ्गम का अङ्ग है। प्रतिनिधि रचनाओं में एक कथानिका (कहानी) को भी जोड़ा गया है। रचनाएँ ऐसी है जो सनातन भाषा में अधुनातन प्रवृत्तियों के साथ शाश्वत सारस्वत वैभव को समाहित करती है। पढ़ने से ऐसा लगता है कि यह सब ज्ञान जी के ज्ञान-वैभव से परिपूर्ण जीवन-चरित का भाग है। भारतीयदर्शन-बृहत्कोश आदि ग्रन्थों को रच कर गुरुवर ने जिस सर्वतोमुखी प्रतिभा का दिग्दर्शन कराया था उसे विविध शास्त्रीय निबन्धों में उपनिबद्ध करने वाले लेखको ने सार्थक कर दिया। यथाशक्य शास्त्रीय लेख जोड़े गये, उन के साथ उनके ग्रन्थों की यथालब्ध समीक्षाएँ भी संयोजित की गई। यह ऐसा संयोजन है जो एक व्यक्ति के स्वरूप को रेखाङ्कित करता है।
सामग्री के सङ्कलित होने से एक चिन्ता होना स्वाभाविक था कि इसे प्रकाशित कैसे किया जाएगा। उस समय प्रो. प्रभातकुमार भट्टाचार्य कालिदास अकादेमी, उज्जैन के निदेशक थे, उन से बात की गई। उन्होंने कम्प्यूटर का नया 'अक्षरालय' स्थापित किया था। वे गुरुजी के भक्त रहे है, उन्हों ने लागत के मूल्य पर कम्प्यूटर फिल्म निकलवा देने की बात की और बड़े प्रसन्न हुए। उन के रहते हुए जब डॉ. रमेश आर्य से बात की गई तो उन्होंने भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी हामी भर दी। आचार्यकुल और आचार्य अवस्थी के प्रति प्रो. भट्टाचार्य की एकान्तनिष्ठा आज भी यथावत् है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ में परिव्याप्त है। कालिदास अकादेमी के वर्तमान निदेशक प्रो. कृष्णकान्त चतुर्वेदी ने नूतन आयाम दिये। उनके निदेशकत्व में इस ग्रन्थ का अक्षरालय से निर्गमन हुआ, एतदर्थ वे सम्मान के योग्य है।
अक्षरालय के कम्प्यूटर विभाग के कम्प्यूटर ऑपरेटर तथा अक्षर संयोजक श्री सञ्जय चौहान ने जिस तत्परता से इस कार्य को आगे बढ़ाया और सम्पूर्णता तक पहुँचाया, इस कं लिये उन्हें साधुवादपूर्वक कल्याणकामना से अभिषिक्त करना सम्पादकीय कर्तव्य है।
इस ग्रन्थ के स्वरूप लेने में अकादेमी के श्री आर.जे. पानड़ीवाल का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने अक्षरालय के लिये टङ्कित प्रति प्रदान की। गुरुजी के प्रति उन का सम्मान अप्रतिम है। नवीन तन्त्र के आने तक वे आचार्यकुल में बैठ कर महाभारत का श्रवण करते थे। वे बराबर निष्ठा के साथ काम को आगे बढ़ाते रहे।
इस प्रकार ज्ञान जी का जीवनवृत्त आध्यात्मिक स्वरूप ले कर इस ग्रन्थ में उभरा है। सम्पादकीय प्रयास तो अपने स्थान पर है ही। उन सभी लेखकों और सहयोगदाताओं के प्रति आभार व्यक्त करना प्रसङ्गप्राप्त है। आश्चर्य तो संस्मरणों को पढ़ कर होता है कि लेखको ने किस समझदारी के साथ छोटी-छोटी बातों को सैंजोये रखा जो सम्माननीय पुरुष के निर्माण में सहकारी रही है।
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