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सर्ववेदान्त-सिद्धान्त सार-संग्रहः- Sarva Vedanta Siddhanta Saar-Samgraha

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Specifications
Publisher: BHARATIYA BOOK CORPORATION
Author Sri Shankaracharya
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Pages: 316
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 550 gm
Edition: 2025
ISBN: 9788121702225
HBU296
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Book Description

प्रस्तावना

सम्पूर्ण वेदान्त के सिद्धान्त के सार का इस ग्रन्थ में संग्रह होने से श्रीभगवत्पाद आचार्य श्रीशङ्कर ने इस ग्रन्थ का नाम "सर्ववेदान्त-सिद्धान्त सार-संग्रह" रखा है। जीवकरुणापरायण भारतीय मनीषियों का सङ्कल्प अद्भुत है कि किसी भी कार्य में या चिन्तन में मुक्ति को ही प्रधान लक्ष्य बनाया है। शास्त्रों में उन्होंने इसी उद्देश्य से जीव को परमात्मा द्वारा मनुष्य का शरीर पुरस्कृत किया गया वर्णित है। इसीलिए मनुष्य शरीर शास्त्रों में सम्पूर्ण शरीरों में श्रेष्ठ माना गया है। मनुष्य शरीर से सम्पन्न जीव को पुरुष की संज्ञा दी गयी। यद्यपि पुरुष का मुख्य प्रयोजन मुक्ति है, तथापि शरीर निर्वाहार्थ अन्य व्यवहार भी आवश्यक होने से सामाजिकता एवं सेवा की दृष्टि से पुरुषार्थचतुष्टय धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का वर्णन है। जीवत्व भी मुक्ति में कम बाधक नहीं है, एतावता उसे बहला-फुसलाकर सही मार्ग (मुक्तिपथ) पर ले जाने के लिए ही अन्य पुरुषार्थों की संघटना है, अन्यथा उनकी कोई सार्थकता नहीं है। यदि जीव स्वभावतः संस्कारवशात् मुक्ति पथ पर आरूढ़ है, तो उसे अन्य (शेष) पुरुषार्थों की कोई सार्थकता ही नहीं है।

मुक्ति क्या है ? आत्मसाक्षात्कार। 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः' यहाँ ज्ञान से अभिप्राय आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार से ही है।

'आत्मा' का निर्वचन एवं आत्मसाक्षात्कार का वर्णन जिन ग्रन्थों में है, उन्हें शास्त्र या दर्शन कहते हैं। यहाँ दर्शन शब्द से आत्मा के बोधक (अनुभव-साक्षात्कार कराने वाले) शास्त्र ही अभिहित हैं। यह आत्मसाक्षात्कार ही वेद का अन्तिम (चरम) लक्ष्य होने से उसे वेदान्त कहा गया है।

इसका मूल वेद है। वेद में आत्मविषयक चर्चा होने से ही 'वेदान्त' नाम की सार्थकता है। यों तो सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय, संस्कृति एवं ज्ञान का मूल स्रोत वेद ही है, यह अद्भुत बात है। वेद ही हमारा परम प्रमाणभूत है।

'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदः' - वेद मन्त्रात्मक (संहिता) एवं ब्राह्मण ग्रन्थ के भेद से दो प्रकार का है। मन्त्रात्मक वेद (संहिता) में संगृहीत मन्त्रों का उपयोग यज्ञसम्पादन एवं सम्पूर्ण जीवन व्यवहार में होता है। ब्राह्मण ग्रन्थ आत्मसाक्षात्कारार्थ चिन्तनपरक होने से वेदान्त नाम से अभिहित है। अरण्य में यह उद्भुत हुआ, इसलिए इसे आरण्यक कहते हैं तथा यज्ञातिरिक्त, उपासना से अतिरिक्त समय में ऋषिमण्डल द्वारा इनका मन्थन कर, उसको अवगाहन करने से इनका नाम उपनिषद् पड़ा। आत्मनिरूपण य आत्मविषयक चिन्तन द्वारा आत्मसाक्षात्कार ही इनका परमप्रयोजन है।

यों तो संहिता के मन्त्रों द्वारा यज्ञ का सम्पादन होता है। यज्ञों का फल स्वर्गादिप्राप्ति वर्णित है, तथापि 'रोचनार्था फलश्रुतिः' यह वस्तुतथ्य ही व्यासादि द्वारा शास्त्रों में बहुशः वर्णित है।

पूर्व में कहा जा चुका है कि जिन शास्त्रों में आत्मस्वरूप का निश्चय एवं उपलब्धि का प्रकार प्रत्यक्ष वर्णित है, उन्हें दर्शनशास्त्र कहते हैं। ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- आस्तिक एवं नास्तिक। आस्तिक दर्शन उन्हें कहते हैं, जिनमें परमात्म (आत्म) तत्त्व की तथा तद्वारा प्रसृत वेद एवं स्वर्ग-नरकादि की मान्यता हो तथा वेद की प्रामाणिकता हो। यद्यपि प्रत्येक दर्शन अपनी प्रामाणिकता के लिए श्रुतियों (वेदों) का ही आश्रय लेते हैं, तथापि वे वेद में वर्णित आत्मतत्त्व में एवं स्वर्ग-नरकादि में श्रद्धा नहीं रखते हैं। उनके लिए परलोक एवं नियन्ता परमेश्वर नहीं है। अस्तः वे दर्शन नास्तिकदर्शन कहलाते हैं। फलतः वेदानुमोदित परमात्मतत्त्व (आत्मतत्त्व) एवं उक्त स्वर्ग नरकादि, परलोक पुनर्जन्मादि की स्वीकार्यता जिनमें है, वे आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। आस्तिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, साङ्ख्य, योग तथा वेदान्त दर्शन आते हैं। अन्य अनेक दर्शन भी भारत में उपलब्ध हैं, तथापि इन्हीं छः दर्शनों में सबका अन्तर्भाव हो जाता है। इस प्रकार यह निश्चय (मीमांसा) हुआ कि वेदान्त एक दर्शनशास्त्र को कहते हैं। जिसमें मुख्यतया श्रुतियों (वेद) के आधार पर आत्मतत्त्व का निश्चय किया गया है एवं आत्मसाक्षात्कार के विषय में निर्देश दिये गये हैं। उपनिषद्-सिद्धान्त ही वेदान्त के सिद्धान्त हैं। अतः 'उपनिषद्' को वेदान्त कहते हैं। वस्तुतः दर्शनों की अभिवृद्धि काल में उपनिषद्-वर्णित विषय वेदान्त कहलाते हैं। अतः वेदान्त से अभिप्राय है एक विशेष दर्शनशास्त्र।

नीरक्षीरविवेक की दृष्टि से विचार करने पर वेदान्त दर्शन में ही दर्शनत्व पूर्णरूप से परिलक्षित होता है; क्योंकि न्यायदर्शन में 'प्रमाण प्रमेय' सूत्र द्वारा वर्णित सोलह तत्त्वों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन है एवं वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थों के ज्ञान से। कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त न्यायसूत्र वर्णित सोलह पदार्थों में एक 'प्रमेय' है। प्रमेय के अन्तर्गत पदार्थ, पदार्थों के अन्तर्गत द्रव्य एवं दव्य के अन्तर्गत 'आत्मतत्त्व का वर्णन है। इस प्रकार आत्मतत्त्व अत्यन्त गौण हो जाता है। वैशेषिक की भी यही स्थिति है। मीमांसा कर्म को ही परमात्मा मानता है। अतः आत्मतत्त्व सर्वथा तिरोहित है। एक तरह से यह नास्तिक को ही आस्तिक कहता है। स्वर्ग ही उसका परम पद है, जो वस्तुतः अविशुद्ध अतिशययुक्त ही है। साङ्ख्य दर्शन में भी २५ तत्त्वों के ज्ञान से मुक्ति वर्णित है। इसका पुरुष कथञ्चित् आत्मतत्त्व का अहसास कराता है। परन्तु यह कुछ भी करता नहीं है। प्रकृति ही सब कुछ करती है। एक तरह से यह नपुंसक ही है। योग शास्त्र में २६वाँ तत्त्व ईश्वर - सर्वसमर्थ स्वीकृत है। इसलिए इसे सेश्वरसाङ्ख्य भी कहते हैं। बस दर्शनशास्त्रों में एक वेदान्त ही ऐसा दर्शन है, जो डंके की चोट पर आत्मतत्त्व का उ‌द्घोष करता है तथा आत्मसाक्षात्कार से मुक्ति की घोषणा भी। आत्मसाक्षात्कार ही इसकी मुख्य वस्तु है। यह इसीलिए सर्वातिशायी है

कि योगशास्त्र वर्णित ईश्वर वेदान्त में समष्ट्यज्ञानोपहित चैतन्य रूप से वर्णित है। तत्त्वमस्यादि महाकाव्यों में 'जहदजहल्लक्षणा द्वारा अभिव्यक्त निरवच्छिन्न शुद्धचैतन्य स्वयं ज्योतिः स्वरूप, आत्मतत्त्व का ज्ञान सर्वत्र एकरूप से निर्बाध अनुभव होने से 'आत्मैवेदं जगत् सर्वं नेह' 'नानास्ति किञ्चन' यह आत्मानुभव वेदसमर्थित 'एकमेवाद्वितीयम्' निरन्तर निर्बाध अनुभव ही परमवेदान्त सिद्धान्त तत्त्व है। यही मुक्ति है। यही परम वेदार्थ एवं परम पुरुषार्थ अहमेवास्मि सम्पूर्णम् सर्वत्र ।

नास्तिक दर्शनों में चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शन आते हैं। इन्हें वस्तुतः दर्शन तो कहना नहीं चाहिए, ये दर्शनाभास हैं, परन्तु आत्मतत्त्व का विवेचन जिस ग्रन्थ में हो, उसे दर्शन कहते हैं, तो वे दर्शन सिद्ध होते हैं, क्योंकि आत्मा का निर्वचन इन दर्शनों में भी हुआ है। जैसे जैनधर्म में पुद्गल (जीव) ही चैतन्य (आत्मतत्त्व) है। वही सबका मूल है। सर्वं दुःखम्, सर्वं क्षणिकम् इस सिद्धान्त के कारण इसे क्षणिकवाद (या क्षणिकदर्शन) कहते हैं। इस दर्शन की अनिश्चतता भी एक अनुपम तत्त्व है। "स्याद् अस्ति, स्यान्नास्ति" अतः इसे स्याद्वाद भी कहते हैं। इसी अनिश्चय के चलते यह अनेकान्त दर्शन भी कहलाता है। चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा मानता है। इसका सिद्धान्त तमसाविष्ट संसार या जीव को सर्वथा रुचिकर (चारु) प्रतीत होता है। अतः इस दर्शन का नाम (चारु वाक्) चार्वाक है। यावद् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य 'देहस्य पुनरागमनं कुतः। यह कथनं चार्वाक दर्शन का बहुत ही प्रसिद्ध है। बौद्ध दर्शन में 'शून्य' ही आत्मा है। "सुखमहमस्वाप्सम्, न किञ्चिदवेदिषम्"। वेदान्त दर्शन की यह युक्ति सटीक एवं सहज है-कि आखिर यह जो अनुभवकर्ता है, वह तो है ही, अन्यथा शून्यता का किञ्चिदपि अवेदन का अनुभव कौन करेगा।

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