| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author Narayan Lal Kachhara | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 251 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 8.5x5.5 inch | |
| Weight 390 gm | |
| Edition: 2017 | |
| ISBN: 8126312238 | |
| HBX448 |
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भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। प्रधानतया आध्यात्मिक होते हुए भी इसमें लौकिक उन्नति की उपेक्षा की गयी है। यह संस्कृति मनुष्य के अभ्युदय और निःश्रेयस पर समान बल देती है। निः श्रेयस की प्राप्ति के लिए भारतीयों ने जिस आध्यात्मिक ऊँचाई को प्राप्त किया, वही उँचाई मनुष्य के लिए प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में किए गये अनुसन्धानों में भी दिखाई देती है। जीवन को भौतिक दृष्टि से समुन्नत और परिष्कृत बनाने की विधाएँ और कलाएँ उसमें समग्र रूप से विकसित हुई, परन्तु इस भौतिक अभ्युत्थान का भी अन्तिम चरण अध्यात्म से ही जुड़ा है।
प्राचीन भारतीय विज्ञान की अन्य विशिष्टता यह है कि किसी भी धार्मिक, साम्प्रदायिक आस्था से मुक्त होकर तथ्यों के विश्लेषण और उनके निष्कर्षों के निगमन पर यह समान बल देता है। फलतः आध्यात्मिकता की अपेक्षा इहलौकिकता पर बल देनेवाले वैज्ञानिकों को भी ऋषि के रूप में उतना ही सम्मान प्राप्त हुआ, जितना आध्यात्मिक और अलौकिक विषयों पर उपदेश करनेवाले विद्वानों को। इसके विपरीत यूरोप में 16वीं शताब्दी तक धार्मिक आस्था से अलग हटकर वैज्ञानिक तथ्यों की स्थापना करनेवाले विद्वानों को धार्मिक प्रताड़ना और राजा के द्वारा दण्ड दोनों का भागी बनना पड़ा।
भारत में वैज्ञानिक दृष्टि, वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं चिन्तन का इतिहास विश्व में सबसे प्राचीन है। कुछ पाश्चात्य विद्वान एवं उनके विचारों का अनुसरण करनेवाले भारतीय विद्वान यह सामान्य धारणा रखते हैं कि भारत की उपलब्धि केवल दर्शन और धर्म के ही क्षेत्र में रही है, अन्य प्राकृतिक विज्ञान में नहीं। परन्तु वास्तविकता यह है कि जब विश्व के अन्य भागों में प्राकृतिक परिवर्तन, प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और जीव-जगत के रहस्यमय और रोमांचकारी घटनाओं को समझने के लिए केवल कल्पनाओं का सहारा लिया जा रहा था, तब भी भारत में उन समस्त वैज्ञानिक विधाओं और वैज्ञानिक निकायों पर उत्कृष्टतम विचार आकार ग्रहण कर विज्ञान, दर्शन के स्तर पर स्थापित हो चुका था।
जीवन दोनों तरफ फैला है बाहर भी और भीतर भी। इसलिए जीवन, विज्ञान और धर्म दोनों से जुड़ा है। दोनों को समझने से ही सत्य का सम्पूर्ण उद्घाटन हो सकता है। यह विचारधारा कि विज्ञान प्रकृति के सभी रहस्यों को उद्घाटित करने में सक्षम है, एकांगी है। अलबर्ट आइंस्टाईन का भी मानना था कि सारी प्रकृति में चेतना काम कर रही है। हम सापेक्ष सत्य को ही जान सकते हैं, पूर्ण सत्य को सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। सर ए.एस. एडिंगटन का भी कहना है कि कुछ अज्ञात शक्ति काम कर रही है, हम नहीं जानते वह क्या है? मैं चैतन्य को मुख्य मानता हूँ, भौतिक पदार्थ को गौण। इस प्रकार धर्म और विज्ञान परस्पर पूरक हैं, दोनों एक-दूसरे की सहायता करते हैं और दोनों का ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति करा सकता है।
दर्शन के क्षेत्र में मुख्य दो परम्पराओं का विकास हुआ, श्रमण परम्परा और वैदिक परम्परा। श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध परम्पराओं को माना जाता है। परन्तु जैन परम्परा अति प्राचीन है। इसके प्रणेता प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने वर्तमान संस्कृति के प्रारम्भ में ही जीवनयापन के लिए आवश्यक विद्याओं और शिक्षाओं की स्थापना की। वर्तमान जैनधर्म अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के उपदेशों पर आधारित है। जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। चेतन, अचेतन, सभी द्रव्यों के व्यवहार की व्याख्या कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर की गयी है। किसी परम सत्ता के पृथक अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए समस्त ब्रह्माण्ड और लौकिक, अलौकिक जीवों के व्यवहार के मूल में इनके स्वयं के स्वभाव और कर्म को पर्याय-परिवर्तन का कारण माना गया है। अरिहन्तों ने जीव और पुद्गल कर्म परमाणुओं के संयोग को समझाने के लिए एक ओर तो जीव के स्वभाव की व्याख्या की वहीं दूसरी ओर पुद्गल के गुणागुण की भी विस्तृत विवेचना की और यही विज्ञान का मूल है। इस विज्ञान का उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा संरक्षण और संवर्द्धन किया गया। यह विज्ञान सूत्र-रूप में उपलब्ध है और इसे आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में परिभाषित और व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। जैन शास्त्रों और आगमों में कर्म सिद्धान्त, मनोविज्ञान, आत्मविज्ञान, सापेक्षविज्ञान, पर्यावरण, रसायनशास्त्र, भौतिकी, प्राणीविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, आहारविज्ञान, चिकित्साविज्ञान, गणित, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, शिल्प आदि पर विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।
जैन-शास्त्रों में प्राप्त विज्ञान को तत्कालीन सन्दर्भ में उपलब्ध कराने तथा उसे सर्वसुलभ बनाने के लिए वैज्ञानिक धर्माचार्य कनकनन्दी एक अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं। आप वैज्ञानिक संगोष्ठियाँ आयोजित कर विद्वानों को इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। इसी क्रम में अक्टूबर 2002 में प्रतापगढ़ (राजस्थान) में धर्मदर्शन सेवा संस्थान, उदयपुर और धर्मदर्शन विज्ञान शोध संस्थान, बड़ौत द्वारा पंचम वैज्ञानिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में विद्वानों द्वारा मनोविज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, आहारशास्त्र, जीवविज्ञान, चिकित्साविज्ञान, कर्मसिद्धान्त, गणित, भौतिकी, ब्रह्माण्ड आदि विषयों पर शोध पत्र प्रस्तुत किए गये। इनमें से कुछ चयनित शोध-पत्र सम्पादित लेख के रूप में इस पुस्तक में प्रकाशित किये जा रहे हैं। कुछ शोध-पत्र मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गये थे उनका हिन्दी अनुवाद किया गया है।
संगोष्ठी के आयोजन में सर्वश्री अमृत लाल जैन, हनुमान सिंह वर्डिया, प्रभातकुमार जैन आदि संस्थान के कार्यकर्ताओं और प्रतापगढ़ के सकल जैन दिगम्बर समाज का उत्साहपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। संगोष्ठी के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक आचार्य कनकनन्दी का आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा, उनकी प्रेरणा से ही यह कार्य सफल हो सका। हम उनके कृतज्ञ हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ने इस पुस्तक को प्रकाशित कर जिनवाणी की महती सेवा की है, एतदर्थ उन्हें धन्यवाद। पाठकों से आशा है कि वे इस पुस्तक से प्रेरित होकर जैनधर्म के वैज्ञानिक पक्ष को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने में अपनी प्रतिभा का उपयोग करेंगे।
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