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वैदिक जीवनपद्धति का वैज्ञानिक मूल्याङ्कन- Scientific Evaluation of Vedic Way of Life (With Special Reference to Dharma Sutras)

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Specifications
Publisher: Abhyudaya Prakashan, Delhi
Author Divya Tripathi
Language: Sanskrit and Hindi
Pages: 431
Cover: HARDCOVER
8.5x6 inch
Weight 570 gm
Edition: 2018
ISBN: 9788193433881
HBU031
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Book Description

प्राक्कथन

मानव, स्रष्टा की सर्वोत्तम कृति है। इसका कारण उसके विकसित मस्तिष्क, उर्वर कल्पनाशक्ति तथा विवेक-बुद्धि में निहित है जो उसे तिर्यक् योनियों से अलग ठहराता है। वास्तव में मानव आध्यात्मिक जीव है। उसमें एक दिव्य चेतना है जो उसे उच्च से उच्चतर बनने की प्रेरणा देती है। इसी कारण उसके जीवन की पूर्णता श्रेय-प्रेय के साधन 'विद्या-अविद्या' की समन्वित प्राप्ति में माना गया है। उसके जीवन का प्रयोजन धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष द्वारा अभ्युदय व निःश्रेयस् की प्राप्ति है और जो मानव के आचार-विचार, उसकी दिनचर्या, शिक्षा, संस्कार, जीवन-दर्शन तथा उसकी जीवन-पद्धति पर पूर्णतः निर्भर है।

वैज्ञानिक समुन्नति के अभूतपूर्व आविष्कारों के कारण यद्यपि आज विश्व-सभ्यता को भौतिक सुख साधन प्राप्त हो गए हैं तथापि आज मानव अनेक विसंगतियों से असन्तुष्ट है। वह जीवन-मूल्यों से हीन होता हुआ पाशविक वृत्तियों का अनुसरण कर रहा है। फलस्वरूप मानव का सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत जीवन विविध प्रकार के दोषों से युक्त हो गया है। आज विचारों का बाहुल्य है पर आचार की अवनति दिखाई देती है। सुख-साधन विद्यमान हैं पर सुखशान्ति नहीं, प्रभूत भौतिक सम्पदा है पर नैतिक मूल्य अत्यल्प। आज चिकित्सक, अभियन्ता, वैज्ञानिक, वाणिज्य-विशारद, प्रबन्धकला-निष्णात तो बढ़ रहे हैं किन्तु आत्मवान् नैतिक व्यक्तियों के निर्माण की प्रक्रिया शिथिल हो गई है, संस्कारों एवं संस्कारी मानवों के अभाव की चुनौती प्रतिदिन उभर रही है। आज शिक्षा के अवसर एवं शिक्षितजनों की संख्या में वृद्धि होने पर भी मानवता का मान नहीं है, शिक्षार्थी में शारीरिक तेज नहीं है, नैतिक बल नहीं है। बस, तनाव, अशान्ति, अनैतिकता, भौतिकता एवं बौद्धिकता का चाकचिक्य बढ़ रहा है। मानवीय मूल्यों के ह्रास के कारण राजद्रोह, आतंक, भ्रष्टाचार, अनाचार, असहिष्णुता, असमान धन-वितरण से उत्पन्न निर्धनता, पर्यावरण असन्तुलन, शोषण तथा दूषण वृत्ति, स्वार्थ-परायणता का बोलबाला है।

फलतः सर्वत्र हाहाकार व अशान्ति दृष्टिगत होती है। आज का व्यक्ति प्रायः जीवन के प्रति असन्तुष्ट है और अपनी-अपनी परिस्थितियों के साथ स्वयं को समायोजित कर पाने में अक्षम है। प्रश्न उठता है ऐसा क्यों हो रहा है? भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति में भी उसका जीवन विपन्न क्यों है? आनन्दमय क्यों नहीं है?

इस प्रकार की विसंगतियों व दोषों का कारण मनुष्य के व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव डालने वाले संस्कारों का अभाव है, मनुष्य को मानवता सिखाने वाली, उसका सर्वाङ्गीण विकास करने वाली शिक्षा 'अर्थवती' न होकर 'अर्थकरी' मात्र बनकर रह गई है, मनुष्य अपने कार्य-क्षेत्र के धर्मों व कर्मों का परित्याग कर मनमाने ढंग से व्यवहार करता हुआ सारी व्यवस्था को शनैः शनैः नष्ट कर रहा है। चूँकि संस्कार, शिक्षा, आचार-विचार आदि सभी जीवन पद्धति के अन्तर्गत समाहित महत्त्वपूर्ण घटक हैं अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि वर्तमान जीवन-पद्धति दोषाभिभूत है, तभी मनुष्य उच्च जीवन-मूल्यों और सुसंस्कारों से हीन हो पारलौकिक कल्याण तो दूर ऐहलौकिक सुख से भी वञ्चित हो रहा है।

ऐसी विषाक्त स्थिति से उभरने के लिए दुर्धर्ष तार्किक स्वामी विवेकानन्द की घोषणा 'वेदों की ओर' पर आज पुनः विचार करने की आवश्यकता है। आज प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए प्राचीन वैदिक ज्ञान की शरण में जाने की प्रवृत्ति दृश्यमान है। योगाभ्यास के प्रति आकर्षण, आयुर्वेद का पुनः प्रचलन, प्राचीन वास्तु पर आस्था आदि इसका प्रमाण है।

आर्ष संस्कृति मानव के अभ्युदय और निःश्रेयस् के लक्ष्य को सामने रखकर अनेकानेक साधनों से सम्पन्न जीवन पद्धति का पालन करती रही, जो परम वैज्ञानिक, उन्नत व अपने चतुर्वर्ग फल प्राप्ति रूप लक्ष्य पाने में शतशः सफल थी। अतः निःसन्देह विश्वात्मभाव, राष्ट्रीयता, भ्रातृभाव, उदारता, त्याग, संतोष आदि जीवन के महनीय मूल्यों से परिपूर्ण, संस्कारों, सुशिक्षा तथा वर्णाश्रम-व्यवस्था से परिष्कृत वैदिक जीवन पद्धति का विवेकपूर्ण अनुसरण ही उक्त समस्याओं के समाधान में संजीवनी प्रदान करने की क्षमता रखता है।

अब प्रश्न उठता है कि समय के थपेड़ों से परिवर्तित तथा विकृत हुई प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति का सम्यक् शुद्ध ज्ञान कैसे हो?

समीक्षकों ने साहित्य को जीवन का प्रतिबिम्ब कहा है। इसलिए यह अनिवार्य हो जाता है कि उसमें जीवन के विभिन्न पक्षों का वर्णन हुआ हो। वास्तव में साहित्य जीवन के विभिन्न मनोवेगों, अन्तः प्रवृत्तियों, भावों, आचार-विचारों की व्याख्या है। अतः वैदिक जीवन पद्धति का ज्ञान तत्कालीन भाषा-संस्कृत में निबद्ध प्राचीन वाङ्मय के अवलोकन तथा आलोडन से अर्जित किया जा सकता है।

'सिन्धु घाटी की सभ्यता' प्राचीनतम कही जाती है, किन्तु प्रागैतिहासिक होने के कारण उस समय के खान-पान, रहन-सहन, आमोद-प्रमोद पर खुदाई से प्राप्त भग्नावशेषों से प्रकाश तो पड़ता है, किन्तु तत्कालीन संस्कृति, आचार-विचार अस्पष्ट ही रह जाते हैं।

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