आधुनिक युग में योग कन्दराओं और गुफाओं से निकलकर सामाजिक एवं व्यावसायिक जगत तक विस्तारित हो गया है। प्राचीन समय में योग को केवल मोक्षमार्ग के पथिकों के लिए ही सेवनीय माना जाता था। किन्तु, वर्तमान समय में योग की उपयोगिता केवल उतनी नहीं है, जितनी कभी मोक्षमार्ग के अनुयायियों के लिए थी। आज योग केवल जीवात्मा और परमात्मा का मिलन नहीं है बल्कि स्वास्थ्य प्राप्ति का भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है और यदि कहें कि पूर्ण स्वास्थ्य-प्राप्ति केवल योग द्वारा सम्भव है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आयुर्वेद ऋषि सुश्रुत ने स्वस्थ पुरुष की जो संकल्पना की है, जिसमें वे कहते हैं समदोषः समाग्निश्च समधातुमलः क्रियाः प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इति यभिधीयते। (सु०सं०-15.41) अर्थात्, जिसके त्रिदोष सम अवस्था में हों, जिसकी शरीरस्थ अग्नियाँ सम हों, धातुएँ भी समान हों, मलों के विसर्जन की से क्रिया भी सुचारु रूप से हो रही हो, साथ ही जिसके मन, इन्द्रियाँ और आत्मा भी प्रसन्नता का अनुभव करती हों वास्तव में वही स्वस्थ पुरुष है। स्वास्थ्य की इस अवधारणा को यदि कोई पूर्ण करता है तो वह योग ही है।
जहाँ महर्षि पतंजलि एवं महर्षि व्यास समाधि की अवस्था को योग कहते हैं वहीं हठयोगियों ने समाधि की प्राप्ति से पूर्ण इसके साधन शरीर को स्वस्थ करने के लिए 'हठयोग' का निर्माण किया। हठयोग की यात्रा शरीर से मन और आत्मा तक की यात्रा है। महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि जब तक इस घटरूपी शरीर को योग की अग्नि में तपाकर परिपक्व नहीं बनाया जायेगा तब तक योग के अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी।
महर्षि घेरण्ड योग-साधना में सर्वप्रथम शरीर की शुद्धि को आवश्यक मानते हैं और उसके लिए वे धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक तथा कपालभाति इन छः क्रियाओं का वर्णन करते हैं जिनके द्वारा एक योगी शरीरस्थ विकारों को दूर कर निर्मल शरीर को प्राप्त कर आगे की योगयात्रा को सुगम बनाता है।
हमारा शरीर आयुर्वेद के अनुसार त्रिदोषों से बना हुआ है। जब ये त्रिदोष शरीर में सम अवस्था में होते हैं तो हम स्वस्थ होते हैं। आचार्य सुश्रुत हैं भी स्वास्थ्य का सबसे पहला लक्षण त्रिदोषों की साम्यावस्था को ही मानते हैं और हठयोगियों के द्वारा वर्णित षट्कर्म त्रिदोषों की साम्यावस्था का ही कार्य करते हैं। इनके अभ्यास से दूषित वात, पित्त, कफ शरीर से निष्कासित हो जाते हैं जिससे स्वास्थ्य-प्राप्ति की यात्रा आसानी से पूर्ण होती है।
मनुष्य शरीर को सुचारु रूप से गतिशील बनाये रखने में इसके विभिन्न तन्त्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। षट्कर्मों का पाचनतन्त्र, श्वसनतन्त्र, रक्त-परिसंचरणतन्त्र, उत्सर्जनतन्त्र, तन्त्रिकातन्त्र आदि मुख्य संस्थानों के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। षट्कर्मों के अभ्यास से इन सभी संस्थानों की कार्यप्रणाली सुचारु रूप से कार्य करती है। इन प्रणालियों में शिथिलता आने से शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग होते हैं। यदि उन सभी रोगों को समूल नष्ट करना है तो उसमें षट्कर्म क्रियाओं की भूमिका अत्यन्त प्रभावशाली है। विभिन्न प्रकार के रोग षट्कर्म क्रिया के अभ्यास से आसानी से दूर हो जाते हैं।
उपर्युक्त सभी बातों की चर्चा के साथ-साथ इस ग्रन्थ में षट्कर्मों के वैज्ञानिक प्रभावों के ऊपर भी विचार किया गया है। हमने विभिन्न रोगियों के ऊपर चिकित्सा करते समय उनके शारीरिक संस्थानों के ऊपर उनकी व्याधियों के निवारण का विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से जो निष्कर्ष प्राप्त किया उन सब तथ्यों का सरलीकरण कर इस पुस्तक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मुझे आशा है कि यह पुस्तक जहाँ योगसाधकों एवं जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगी वहीं यह स्वास्थ्य-प्राप्ति की आशा रखनेवाले रोगियों के लिए भी बहुत ही लाभकारी होगी। मेरी इस पुस्तक को सकलित करने का यह प्रयास कितना सफल हुआ है यह तो पाठकगण ही निर्णय करेंगे।
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