| Specifications |
| Publisher: Bloomsbury Publishing India Pvt. Ltd | |
| Author: Sheila Dikshit | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 202 (B/W Illustrations) | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 8.5x5.5 inch | |
| Weight 240 gm | |
| Edition: 2019 | |
| ISBN: 9789389351903 | |
| HBA176 |
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पुस्तक परिचय
एक बिल्कुल नयी लड़की जो लुटियंस, दिल्ली के छायादार रास्तों पर साईकिल चलाने की शौकीन थी, उसने कभी नहीं सोचा था कि यो पाँच दशक बाद मुख्यमंत्री के रूप में दिल्ली पर शासन करेगी, उसके विकास को उंचाइयों तक लेकर जायेगी और ऐसा एक बार नहीं लगातार तीन बार होगा। शीला दीक्षित जैसी राजनीतिज्ञ जिन्होंने अपने तीन दशकों के राजनीतिक करियर के साथ-साथ अपने जीवन के सफर को पाठकों के सामने रखना चाहा है तो निश्चित ही इसमें कुछ न कुछ चौंकाने वाले तथ्य तो सामने आयेंगे ही। अपनी जिन्दगी के दिलचस्प किस्सों के साथ-साथ देश और अपनी पार्टी के कठिन समय को उन्होंने बेहद संजीदगी और खूबसूरती से व्यक्त किया है, अपने इन शब्दों के सफर में वो कहीं भी ठहरती नहीं है, उनकी ये यात्रा घर से निकल कर सत्ता के गलियारों तक और भूतकाल से निकलकर वर्तमान तक निर्वाध रूप से चलती है।
चाहे राजनीति का सामना करना हो अथवा गृहस्थी के उतार-चढ़ाव उनकी शब्दावली में जिन्दगी की खूबसूरती कहीं गुम नहीं होती, उनकी यही शक्ति उन्हें एक ऐसी सशक्त आधुनिक नारी के रूप में प्रस्तुत करती है जो हर घटना का पूरे साहस और कर्तव्य भाव से डट कर मुकाबला करती है।
दिलचस्प बात ये है कि वे कभी राजनीति में नहीं आना चाहती थीं लेकिन भाग्य ने उनके लिए कुछ और ही चुन रखा था, ये नियति ही थी कि पंजाबी परिवार की इस बेटी का पालन-पोषण ऐसा हुआ जिसमें वे पूरी स्वतंत्रता के साथ विकसित हुई, साथ ही उन्होंने एक ऐसे जीवनसाथी को चुना जो भारत के ऐसे हिस्से से आता था जिसकी उन्होंने कभी झलक भी नहीं देखी थी और यहीं से शुरू हुई उनकी नियति।
एक आईएएस अधिकारी की पत्नी और ऐसे प्रतिष्ठित स्वतंत्राता सेनानी, ख्यातिप्राप्त राजनेता उमाशंकर दीक्षित की बहू बनीं जिनका गाँधी-नेहरू परिवार से लम्बा और घनिष्ठ सम्बन्ध था, उन्होंने दोनों सिरों से शासन को देखा, समझा था। 1969 में जब उन्होंने अपने ससुर का सहयोग करना शुरू किया तो उनका राजनीतिक दृष्टिकोण उनके भविष्य की ओर स्पष्ट संकेत था, जो कि दिसम्बर, 1984 में जाकर उजागर हो गया, उन्होंने अपने तीस साल के राजनीतिक जीवन की पहली सीढ़ी चढ़ी। ये जीवनवृत्त न केवल लेखक के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करता है बल्कि प्रश्न भी उठाता है कि शासन के निर्देशों और पूर्वाग्रहों से ग्रसित तथा पार्टी, पॉलिटिक्स के निरन्तर झगड़ों के बीच कैसे पेश आयें?
1938 में कपूरथला पंजाब में जन्मीं शीला दीक्षित ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया। उन्होंने 1984 में इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की कार्यकर्ता के रूप में चुनावी राजनीति में प्रवेश किया, उत्तर प्रदेश के कन्नौज से संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ीं और जीतीं। राजीव गाँधी सरकार में केन्द्रीय मंत्री रहीं। बाद में, दिल्ली में लगातार तीन बार कांग्रेस सरकार का नेतृत्त्व किया और 1998 से 2013 तक सबसे लम्बी अवधि तक मुख्यमंत्री पद रहने वाली महिला बनीं।
वर्ष 2006 में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने आपको डी. लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
दिल्ली के कायाकल्प करने का श्रेय आपको ही जाता है, आपने हमेशा संकीर्ण और साम्प्रदायिक मुद्दों से उठकर उठकर नागरिकों पर केन्द्रित और खुली प्रशासनिक व्यवस्था को महत्व दिया। 'भागीदारी' योजना के द्वारा आपने सरकार और नागरिकों के बीच महत्वपूर्ण सम्बन्धों का तानाबाना बुना, इस योजना के माध्यम से आपको पूरी दुनिया में सम्मान मिला। 2014 में आप केरल की राज्यपाल रहीं। 2016 में सक्रिय राजनीति में फिर लौटीं और उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के प्रचार अभियान का हिस्सा बनीं।
जनवरी 2019 में आप को एक बार फिर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। वह अंतिम समय तक काँग्रेस को पहले की तरह सक्रिय बनाने के काम में जुटी रहीं। और अंतिम समय तक सक्रिय रहकर आपने यह साबित कर दिया कि सफर वाकई खत्म नहीं होता....
मेरा परिवार, खासतौर पर मेरी बहनें वर्षों से मुझे मेरी जिन्दगी के सफर को शब्दांकित करने के लिये कह रही थीं। परन्तु मैं उन्हें हमेशा मुस्कुराते हुये अपनी व्यस्तता बता देती थी और फिर काम में जुट जाती लेकिन जब किसी कार्य का समय आता है तो स्थितियाँ अपने आप आकार लेने लगती हैं। जब मैं केरल की राज्यपाल थी, तब महसूस हुआ कि मुझे अपने परिवार के सुझाव की तरफ गौर करना चाहिये और मैंने जिन्दगी को पलटकर देखना शुरू किया संस्मरण, घटनायें, मुलाकातें सबकुछ संक्षेप में डायरी में लिखना शुरू किया।
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