भूमिका
कहीं हम भूल न जाए मेरी जिंदगी में उन तमाम मदों का इस देश की फौज से ताल्लुक रहा है, जिनसे मुझे बेहद मुहब्बत रही है। वे चाहे मेरे पिता हों, जो अपने समय के शानदार पैराट्रपर सैनिक थे, या मेरे भाई, जो खुद भी एक पैराटूपर सैनिक हैं, से मेरे पति तक जो फौज में बतौर इंजीनियर काम करते हैं। हालांकि 12 साल का मेरा बेटा, सारांश, फिलहाल तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ पहलवान बनने के मंसूबे बांधे हुए है, लेकिन मुझे और मेरे पति को इस बात पर बेहद गर्व होगा अगर वो आगे चलकर देश की खिदमत के लिए फौज में भर्ती होने का फैसला करता है जब से मैंने होश संभाला है, खुद को जैतूनी हरी फौजी वर्दी पहने नौजवानों के बीच पाया है। वे मेरे आसपास हमेशा मौजूद रहे। कभी डीएमएस (डेज़र्ट माउंटेन बूट्स) बूट पहने मेरे खूबसूरत कालीन को गंदा करते हुए, तो कभी ओल्ड मंक रम की चुस्कियां लेते हुए। वे कभी अपने अप्रत्याशित व्यवहार से मुझे पागल बनाते, तो कभी अपने फौजी अंदाज़ के अभिवादन और मुस्कान से मेरे रोम-रोम को पिघला देते। ये मेरे दोस्त, परिवार वाले, और मेरे भाई थे। भारतीय फौज के इन सलीकेदार और खूबसूरत नौजवानों को मेरी जिंदगी में लाने के लिए में शायद कभी भी वाजिब तौर पर फौज का शुक्रिया अदा नहीं कर पाऊंगी। बहादुर और आकर्षक, गर्वीले लेकिन विनम्र । ऐशोआराम के पीछे भागती दुनिया के बीच मुश्किल से मुश्किल दौर में भी इज्ज़त के साथ जीना जारी रखते हुए ये नौजवान। क्योंकि उन्हें जीने का यही तरीका आता है। शूरवीर इन तमाम नौजवानों को समर्पित है। भूमिका इस कहानी की शुरुआत एक शाम तब शुरू हुई जब में फिरोजपुर में भौल रोड पर टहल रही थी. जहां बच्चे साइकिलों पर मटरगश्ती कर रहे थे और सड़क के किनारे पॉपी के पौधों में लाल-लाल फूल लहलहा रहे थे। फिरोजपुर भारत-पाक सीमा पर आखिरी छावनी है। जब मैंने ऊपर की तरफ देखा तो मेरी नज़र 4 ग्रेनेडियर के कंपनी हवलदार मेजर अब्दुल हमीद परम वीर चक्र विजेता, से टकराई। सड़क के किनारे पर लगे एक पोस्टर से उनकी आंखें जैसे मुझे ही तक रही थीं। अब्दुल हमीद 1965 की लड़ाई में पाकिस्तानी बैटन टैंक को खेमकरन सेक्टर में अपनी आर. सी. एल गन से उड़ाने के दौरान शहीद हुए थे। मुझे किताब लिखने का पहला कॉन्ट्रैक्ट मिला था और मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। ऊपर देखते हुए मैंने जैसे घोषणा कर दी 'अब्दुल हमीद, आपकी कहानी मैं बयान करूंगी।' अब्दुल हमीद ने मुझे कोई जवाब नहीं दिया लेकिन मेरे पति लेफ्टिनेंट कर्नल मनोज रावत, जो मेरे साथ-साथ चल रहे थे, मुस्कुराए और दौड़ लगाने के लिए निकल पड़े, मुझे इशारा करते हुए कि सड़क के दूसरे छोर पर मिलते हैं। मुझे एक साल लगा लेकिन हम सड़क के दूसरे छोर पर मिले जरूर। यह किताब सड़क के उस दूसरे छोर को दर्शाती है, जो मुझे युद्ध से जिंदा लौटे और अब रिटायर हो चुके सिपाहियों की तलाश में पीले सरसों और धूप में पक रहे सुनहरी गेहूं के खेतों तक ले गई। पेड़ की छांव के नीचे खटिया पर बैठकर, मैंने उनके साथ उनके विचारों और भोजन को बांटा। यह किताब मुझे तवांग में सेला दरें के पार ले गई, जहां सर्दियों में पूरी की पूरी झील जम जाती है। मैं बुमला गई, जहां सूबेदार जोगिंदर सिंह ने 1962 की लड़ाई में गोलियां खत्म होने पर संगीनों से मुकाबला किया था|
पुस्तक परिचय
भारत में वीरता के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सैन्य पदक परम वीर चक्र को हासिल करने वाले 21 जांबाज फौजियों की हैरतअंगेज़ कहानियां। 20,000 फुट की उंचाई और शून्य से कहीं नीचे तापमान पर लड़ना कितना मुश्किल होता है? कैप्टन विक्रम बत्रा ने यह क्यों कहा कि ये दिल मांगे भोर? जो फौजी लौट कर नहीं आ पाते उनकी बीवियां और प्रेमिकाएं किस तरह इस सदमे को बर्दाश्त कर पाती हैं? क्या होता है जब वही आपका दुश्मन हो जाए, जिसे आपने ट्रेनिंग दी हो? उत्तर प्रदेश के एक देहाती ने टैंक उड़ाने में कैसे महारत हासिल की? रोचक और प्रेरित करने वाली, शूरवीर परम वीर चक्र विजेताओं पर एक बेहद दिलचस्प किताब है। 'हमारे सर्वोच्च वीरों की कहानियां लोग कहते हैं, वे सरकारी दस्तावेज़ों में मिलती हैं, कभी कभी अखबारों में आती हैं, लेकिन एक रोचक शैली में किताब कभी नहीं लिखी गई। मैं रचना जी की तारीफ करता हूं कि उन्होंने देश के हित में बहादुरी की इन कहानियों को पेश किया है' जनरल वी.के. सिंह 'ये किताब पाठक को बांधे रखती है-लड़ाई के बहुत बाद भी, आख़िरी गोली चलने के बाद, आख़िरी आदमी के रहने तक और आख़िरी पन्ने के ख़त्म होने के बहुत बाद तक' द हिंदू |
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