जी हाँ। क्यों नहीं? जब श्री लंका समेत सारी दुनिया के बौद्ध धर्मावलम्बी भारत आकर बोधगया, सारनाथ, श्रावस्ती आदि की यात्रा कर सकते हैं, तो हम भारतवासी श्रीलंका में नैना तिवु पर देवी नागपूषनी अम्मन के दर्शन के लिए क्यों नहीं जा सकते !
पौराणिक मिथक के अनुसार जब भगवती सती की मृत्यु से शोकाकुल शिव उनके शव को कंधे पर लिए आकाश में ताण्डव करते फिर कर रहे थे, तब ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए सती के शव को विष्णु के चक्र ने काटना आरंभ किया; देवी के अंग एवं आभूषण उप-महादेश के अलग-अलग स्थानों पर गिरे और समय-क्रम में उन सभी बावन जगहों को देवी के सिद्धपीठ की मान्यता प्राप्त हुई। नैना तिवु पर स्थित नागपूषणी अम्मन का मंदिर भी उन सिद्धपीठों में से एक है।
नैना तिवु जाफ़ना के उत्तरी समुद्र तट से थोड़ी दूर पर एक छोटा-सा द्वीप है। जाफना श्रीलंका के दुर्दम आतंकियों का केंद्र रह चुका है और पंद्रह वर्षों पूर्व तक विदेशियों का उस क्षेत्र में जाना वर्जित ही न था, बेहद ख़तरनाक भी माना जाता था। हम ऊहापोह में हैं, जाएँ कि न जाएँ, किंतु हमारे श्रीलंकाई मेज़बान कहते हैं- अब कोई ख़तरा नहीं, बेशक चले जाइए। अंततः हमने जाने का निर्णय कर लिया है।
हमारे मेज़बान हमें राय देते हुए कहते हैं- वापसी में सीगिरिया जरूर जाइएगा; सीगिरिया के शिला-शिखर पर और उसके आस-पास श्रीलंका के सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवशेष हैं; लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराने। बात निकली तो वे प्राचीन बौद्ध पुराण 'महावंश' में वर्णित सीगिरिया की कथा का सार भी बताते हैं। दिल दहला देनेवाली कहानी है। सीगिरिया के अवशेष को देखने की उत्सुकता और बढ़ जाती है।
देवी नागपूषणी के दर्शन के बाद हम जाफ़ना नगर के दर्शनीय स्थल देखते हुए जाफ़ना सार्वजनिक पुस्तकालय के पास स्थित क्लॉक टावर पर पहुँचते हैं। वहाँ से निकलने वाली सड़कों के सिरों पर प्राचीन योद्धाओं की प्रतिमाएँ लगी हैं। यह देख कर थोड़ी हैरानी-सी होती है कि उनमें से एक एलारा की है- हाथी पर सवार, मूँछों पर ताव, हाथ में तलवार। मैं जानता हूँ कि एलारा कौन है क्योंकि इस यात्रा से पहले मैंने सिंहल के प्राचीन इतिहास का थोड़ा अध्ययन कर लिया है। यह देख कर अच्छा लगता है कि जाफ़ना में एलारा की मूर्ति अब भी लगी हुई हैः वर्तमान व्यवस्था ने भी दुतुगेमुनु जैसी उदारवादी नीति अपनाई है।
जाहिर है आप सोच रहे होंगे- ये किन प्रसंगों व नामों का उल्लेख किए चला जा रहा हूँ मैं। बस, अभी बताता हूँ।
उत्तरी श्रीलंका में तमिलों की महत्वाकांक्षाएँ पिछली शताब्दी की नहीं; दो हजार साल पुरानी हैं। एलारा दो सहस्राब्दी पहले का तमिल सेनानायक था, जिसने लगभग पूरे सिंहल द्वीप को अपने आधिपत्य में लेकर दो दशकों तक राज किया, और दुतुगेमुनु वह सिंहली वीर जिसने एलारा को पराजित कर उसका वध किया। सिंहल के प्राचीन इतिहास में दोनों दुर्धर्ष योद्धाओं के रूप में विख्यात हैं, लेकिन तब तक इनके बारे में इतना ही मालूम था। बाक़ी का विवरण तो सीगिरिया पहुँचने पर सिंहगिरि ने दिया। जी, उसके बारे में भी अभी विस्तार से बताता हूँ।
जी हाँ, हमने अपने मेजबान की राय का सम्मान करते हुए सीगिरिया भी जाने का निर्णय कर लिया है। तदनुसार वापसी में रात्रि विश्राम के लिए हम हेबराना में ठहर जाते हैं।
सीगिरिया मध्यवर्ती श्री लंका के एक समतल से इलाके में क़रीब छः सौ फ़ीट ऊँचा, खड़े पाश्वर्थों वाला एक विराट शिला-समूह है। मुख्य शिला-शिखर पर लगभग पंद्रह एकड़ की पथरीली उपत्यका पर पाँचवीं शताब्दी के महलों के अवशेष हैं। बिल्कुल खड़ी चढ़ाई, पत्थर की ऊबड़-खाबड़ सीढ़ियाँ और उसके बाद लोहे के पिंजड़े-नुमा गोल घूमते जीनों से सीगिरिया पर चढ़ना बच्चों का खेल नहीं, और बूढ़ों का तो क़तई नहीं, किंतु फिर भी मन में ललक है कि शिला-शीर्ष नहीं तो कम से कम सिंह-पाद तक ही हो आएँ।
शिखर से एक तिहाई पहले विश्व विख्यात अप्सरा भित्ति चित्र, दर्पण दीवार और लायन्स पॉ यानी सिंह-पाद हैं।
आप कहेंगे- ये महाशय तो एक पर एक और अनचीन्हे नाम गिनाए चले जा रहे हैं! थोड़ा-सा धैर्य रखिए, अभी स्पष्ट हुआ जाता है।
आखिरकार लगभग पाँच सौ सीढ़ियों की खड़ी चढ़ाई के बाद हाँफता-काँपता मैं सिंह-पाद के सामने पहुँच गया हूँ और बड़ी मिन्नतों से पूछ रहा हूँ- भाई सिंह-पाद, इस कड़ी मेहनत का कुछ तो मुआवजा दो; कुछ बताओ यहाँ के इन खंडहरों के बारे में।
पत्थरों को कभी बोलते सुना है आपने? शायद नहीं। लेकिन कभी-कभी पत्थर भी बोलते हैं।
मैं सिंहगिरि हूँ। सैकड़ों सदियों से लोगों की बोली पर तुड़ता-मुड़ता अब सीगिरिया हो गया हूँ। वैसे देखा जाए तो मेरे लिए देवासुर-गिरि अधिक सटीक नाम होता, क्योंकि सहस्त्राब्दियों पहले मेरी उत्पत्ति देवताओं और असुरों की उस अल्प-अवधि सामूहिक उद्यम के फलस्वरूप हुई थी जब दोनों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया था। समुद्र तल से कई योजन नीचे किसी गंभीर भूगर्भीय उथल-पुथल से खौलता हुआ लावा कुछ ऐसे भड़क उठा कि धरा की कोख को चीर कर पृथ्वी की सतह पर उबल आया। उबलते हुए लावा के थक्के और आग की धधकती हुई लाल-नीली-पीली लपटें और धुआँ आकाश छूने लगे। दामिनी चौंकी, और कड़क कर बादलों से बोली, शीतल करो इन्हें तत्काल, बरसते रहो जब तक ठंडा न पड़ जाए... मेरी सखी वसुंधरा की छाती चीर डाली इसने तो! मूसलाधार बरसने लगे मेघ, बड़ी-बड़ी शीतल बूँदें। ग्यारह दिनों तक बरसते रहे निरंतर। उबलता हुआ लावा जहाँ का तहाँ ठंडा और ठोस हो गया, और मैं भीमकाय शिला-खंडों पर टिका एक पथरीला पठार बन गया। मेरी तलहटी जगह-जगह गुफ़ाओं और कंदराओं से कटी-छिली रह गई।
हजारों बरस तक मेरी कंदराएँ और शिला-खंडों की ओट कठोर तप करनेवाले रमते जोगियों. भिक्षुओं, और साधुओं की शरण-स्थली रहीं, किंतु फिर एक राजा ने उन तपस्वियों को निकाल बाहर करके मुझे प्राचीरों और नरभक्षी मगरमच्छों से भरी जलबाधाओं से घेर लिया और एक अजेय दुर्ग-प्रासाद परिसर में बदल डाला। अक्ष-पर्वत के बदले उसने मेरा नाम सिंहगिरि रख दिया और त्रि-सिंहल का राजपीठ अनुराधापुर से सिंहगिरिपुर स्थानान्तरित कर दिया। मेरी तलहटी को अद्भुत स्वचालित फ़व्वारों और नयनाभिराम उद्यानों और जलाशयों से सजाया। मेरे पार्श्व को तराश कर उसे पुष्प वर्षा करती अप्सराओं के भित्ति चित्रों से अलंकृत करवाया। चूनम के सिद्धहस्त कलाकारों से दर्पण दीवार, और नये नाम के अनुरूप प्रासाद-परिसर के द्वार पर सिंह की विशाल प्रस्तर प्रतिमा बनवाई। मेरे शिखर पर नक्काशीदार झरोखों और खंभों वाले भवनों, जलकुंडों और फ़व्वारों से सजे ऐश्वर्यपूर्ण महल-चौबारों, रंग-मंच तथा उद्यानों का निर्माण करवाया, किन्तु सच पूछिए तो उस राजा ने एक ऐश्वर्य-पूर्ण कारागार बनवा कर अपने आपको उसमें बंद कर लिया था, और वह कारागार था मैं-सिंहगिरि।
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