भूमिका
छोटी यात्रा के बड़े सहयात्री सौर मंडल के ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा को छोड़ भी दें तो इस पृथ्वी पर समय के जीवन की भी बहुत लम्बी यात्रा है। विभिन्न कालखंडों में आए असंख्य लोगों के जीवन की छोटी ही यात्रा रही। सौर मंडल की तुलना में नगण्य। हर मनुष्य की जीवन-यात्रा छोटी होती है। मेरे पचहत्तर वर्ष के जीवन की यात्रा अभी पूरी हुई है। यह यात्रा कहाँ तक चलेगी, यह किसी को नहीं मालूम। लेकिन दो-तीन वर्ष की अवस्था से लेकर पचहत्तर वर्ष की अवस्था में अपने दोनों परिवारों मायका और ससुराल के लोगों के साथ समय बीताते हुए सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक जीवन में लाखों लोगों से मिलना हुआ। हजारों से बातचीत हुई। सैंकड़ों लोग समय-समय पर याद आते रहते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे रहे जो थोड़े या अधिक समय तक मिलकर ही जीवन की स्मृतियों में रूढ़ हो गए हैं। उनकी स्मृतियाँ मन से जाती नहीं। विभिन्न अवसरों पर वे पात्र नजर के आगे या शरीर के पीछे से संबल बनकर खड़े हो जाते हैं। निर्णय की कठिन घड़ियों में उनमें से किसी एक या अनेकों व्यक्तित्वों के कर्तृत्वों से ढूँढ़कर अपनी समस्या का समाधान और निर्णय ले पाती हैं। वे स्मृतियाँ गुदगुदाती, हँसाती, रूलाती और इस उम्र में भी कुछ-न-कुछ सीखाती रहती हैं। इनमें स्त्री और पुरुष दोनों पात्र हैं। काकी, माँ, चाचियाँ और भाभियों ने जीवन जीने के अनेकों सूत्र दे दिए। दादी सास ने अपने और परायों को एक समान समझने की सीख दी, तो सासु माँ ने अपनी सहृदयता एवं अपने उच्च व्यवहार से बहुत कुछ सीखाया। उसी प्रकार स्वर्गीय साहित्यकार महादेवी वर्मा ने अपने को पहचानने और महिलाओं की समस्याओं को समझने की एक अटल दृष्टि दे दी। सकती। मेरे मानस के पन्नों से वे खिसक कर बाहर नहीं निकलतीं, प्रेरित करती हैं। अँधेरे में चिंगारी के समान हैं ये स्मृतियाँ। सुखों के पल में आनन्द का रंग भर देती हैं। दुःख के समय हलराती दुलारती सहारा देती हैं। ये स्मृतियाँ अमूल्य निधि के समान मेरे अवचेतन और चेतन मानस पर अवस्थित हैं। सच्चाई तो यह है कि मेरी छोटी यात्रा की ये बड़े लोग मेरे लिए अभी जीवित ही हैं। इन संस्मरणों को पुस्तकाकार रूप में संग्रहित कराने का उद्देश्य यह है कि आज की और आनेवाली पीढ़ियाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में किस प्रकार से व्यवहार करती रहें, किस प्रकार इनके कदम 'सर्वे भवन्तु सुखीनः' को साकार करने की ओर बढ़े। मुझे प्रसन्नता है कि साहित्य जगत की प्रथम एवं सम्मानीय संस्था भारतीय ज्ञानपीठ ने इन संस्मरणों को पुस्तकाकार देने का निर्णय लिया। मैं आभारी हूँ कि उन्होंने समाज के कुछ चुनिन्दे व्यक्तित्व के व्यवहारों को पाठकों के बीच पहुँचाने का संकल्प लिया है। मैं संस्था के अधिकारियों के प्रति आभार प्रकट करती हूँ। पाठकों से अपेक्षा रखती हूँ कि इस पुस्तक के पन्नों पर अंकित अपने कार्यों से बड़े बने व्यक्तियों के बड़प्पन को समाज में फैलाएँ। आप सबके इस सहयोग से ही मेरी लेखनी धन्य धन्य होगी। लेखकीय श्रद्धांजलि देकर कृत-कृत होऊँगी।
पुस्तक परिचय
पश्चिमी सभ्यता की झहराती पछुआ हवा के झोंकों से भारतीय स्त्री समाज की मुट्ठीभर युवतियाँ जाने-अनजाने प्रभावित हुई हैं। पारिवारिक बन्धन की गाँठें ढीली हुई लगती हैं। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता की राह पर क़दम पड़े हैं, औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा में नैतिक शिक्षा के अभाव ने जीवन में उच्छृंखला घोल दी है। कर्तव्य से अधिक अधिकार की माँग बढ़ती जा रही है। जीवन में उपभोग की प्रधानता से स्वयं नारी व्यक्ति नहीं, वस्तु बनती या बनाई जा रही है। समाज को पुनः भारतीयता की ओर लौटाने और नारी को वस्तु नहीं व्यक्ति बनाने में विद्यापीठ का अपना अनोखा ढंग होगा। सादा जीवन, उच्च विचार को व्यवहार में ढालने का विद्यापीठ का अपना रंग रहा है, रहेगा। नारी समाज का 'पुरानी नींव, नया निर्माण' के आधार पर विकास ध्येय रहा है। यह रंग और गहरा हो जाये, भट्ठियों की घुलाई में भी फीका न पड़े, यह प्रयास करना होगा विद्यापीठ परिवार से जुड़े हुए समस्त परिवारजनों को। शरीर, मन, बुद्धि और व्यवहार से समाज रचना के लिए उद्धृत, भारतीय जीवन-मूल्यों के शाश्वत बीज तत्त्वों को अपनी पीड़ादायिनी सृजनशक्ति से पुनर्जीवन प्रदान करने, उनका पालन-पोषण करने हेतु मुट्ठीभर विद्यापीठ की छात्राएँ बढ़ेंगी, समाज ऋणी रहेगा। विद्यापीठ का प्रयास सागर में एक बूँद के बराबर ही हुआ तो क्या, बूंद-बूंद से ही तो सागर बनता है।
लेखक परिचय
मृदुला सिन्हा
मुज़फ्फरपुर ज़िला (विहार) के छपरा गाँव में 27 नवम्बर, 1942 को जन्मीं, श्रीमती मृदुला सिन्हा ने अपनी प्रारम्भिक छात्रावासीय शिक्षा बालिका विद्यापीठ, लखीसराय (बिहार) से प्राप्त की। उन्होंने बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ्फरपुर से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर एवं शिक्षा में स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। विश्वविद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद महिला कॉलेज, मोतिहारी (बिहार) में मनेविज्ञान के प्राध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया।
श्रीमती सिन्हा रेडियो, दूरदर्शन तथा निजी क्षेत्र के टेलीविज़न चैनलों द्वारा राजनैतिक मुद्दों तथा महिलाओं और बच्चों पर आयोजित विचार-विमर्श में नियमित रूप से भाग लेती रहीं। समय-समय पर उनके लेख-निवन्ध तथा विचारपूर्ण साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उन्होंने टेलीविज़न कार्यक्रमों के लिए बहुआयामी आलेख भी लिखे। विभिन्न विधाओं में 64 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित (1978 से लेकर अब तक) हो चुकी हैं। फीचर फ़िल्म 'दत्तक', 'खेल खेल में', 'ज्यों मेहँदी को रंग' पर इसी नाम से बना धारावाहिक अनेको बार दर्शाया गया है। विहार विश्वविद्यालय ने वर्ष 2015 में इन्हें डीलिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया। श्रीमती सिन्हा ने विभिन्न राजनीतिक पदों पर आसीन होकर दल के अन्दर और समाज में अपनी विशेष पहचान बनाई। देहावसान : 18 नवम्बर, 2020
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist