जब हम समाज को, देश को देखते हैं उनमें चली आती हुई कुरीतियों को, समस्याओं को देखते हैं तो बरबस सन् 1936 में प्रेमचन्द्र द्वारा लिखी हुई गोदान की ओर हमारा ध्यान आकर्षित होता है। 'गोदान' गो-दान यह धर्माचार का शब्द है। गोदान इसलिए कराया जाता है कि मृत व्यक्ति आसानी से गो के माध्यम से असाध्य वैतरणी नदी पार कर स्वर्गलोक पहुँच जाए। तत्पश्चात् वह गाय ब्राह्मण को दान कर दी जाती है। यह है हिंदू समाज का कर्मकाण्डी रूप यह कर्मकाण्डी रूप अमीर गरीब ऊँच-नीच नहीं देखता। व्यक्ति जिसका पूरा जीवन अभाव में बीतता है कष्ट में बीतता है वह परलोक को सुखमय बनाना चाहता है। इन सब विधान से। यह कैसा विधान है? पूरा जीवन गाय पाने की साध मन में संजोए रख कर होरी का मरना और उसके मरणोपरान्त गाय के एवज में परिवार की एकमात्र संचित सम्पत्ति सवा रूपया ब्राह्मण को यह कहकर दान कर देना महाराज घर में न गाय है न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं यही उनका गोदान है।' यह व्यंग और करूणा से भरा एक आर्थिक शोषण का षड्यन्त्र नहीं है तो क्या है?
गोदान में भारत की संस्कृति गाँव-शहर और समाज का चित्रण है।
इस कृषि प्रधान देश में गाय जिसका धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व है, को पालने की साध हर किसान को रहती है वह गाय को दरवाजे की शोभा बनाकर रखना चाहता है। गाय महाशोभा ही नहीं आर्थिक धन भी है गोदान का चरित्र होरी भी पछाही गाय की अभिलाषा रखता है।
और इसी अभिलाषा से शुरु होती है होरी पर आनेवाली विपत्तियों का सफर बैल खुलना, गोबर का झुनिया से सम्बन्ध होना इत्यादि जिसके कारण 100/- तथा तीस मन अनाज का दण्ड लगाना, खेतीबाड़ी का चौपट होना, किसान से मजदूर बनना और जमीदार, साहूकार पुलिस, पुरोहित सभी के द्वारा शोषित होरी धीरे-धीरे मृत्यु का आलिंगन करता चला जाता है। अपना अन्त समय निकट कर धनिया अपनी पत्नी से याचना भी करता है-
'कहा सुना माफ करना धनिया अब जाता हूँ गाय की लालसा मन में ही रह गई है।'
ढकोसला षड्यन्त्र शोषण सभी पक्ष को दिखाती हुई कृति है-गोदान। कृषि संस्कृति के विनाश की रूपरेखा प्रेमचन्द्र ने पहले ही खींच दी थी। आज देश विकास के तेज कदम के अन्धी दौड़ में शामिल हो गया है और किसान पीछे छूटता चला गया है। सोना उगलने वाली मिट्टी पथरीली जमीन बन गई है। किसानों का स्वराज एवं सुराज का सपना सपना ही रह गया है। उनकी भूखमरी बरबादी तबाही और आत्महत्या की तरफ जब हम देखते है तो आजादी में किसानों के लिए बुलन्द जय जवान जय किसान और हरित क्रान्ति का नारा एक छद्म रूप धारण करता हुआ लगता है। आजादी में शामिल होने वाला किसान क्या इस आजाद देश के बने सिस्टम में अपना कुछ स्थान बना पाया है? उनके लिए खुले विभाग क्या किसानों तक पहुँच पाए हैं? क्या उनके लिए बनाई गई योजनाओं का उपभोग मंत्रालय एवं पंचायत ही कर रहे हैं? इन सभी हवा-हवाई बातों के बीच रहने वाले किसानों को उनका वाजिब हक कब मिलेगा? कब तक वह बदहाली का शिकार और प्रकृत्ति पर निर्भर रहेगा? कड़कड़ाती धूप, ठंड, तेज बारिस से बेखौफ पूरे देश का पेट भरने वाला किसान क्या स्वयं दाने-दाने के लिए मुहताज नहीं है, मिट्टी का सीना चीरकर अन्न पैदा करने वाला, खुद को मिट्टी में मिला देने वाले किसान का कभी सूखा जान सुखा देता है तो कभी बारिश इन्हें बहा ले जाती है। योजनाएँ घोषणाएँ कागजों पर होती चली जाती हैं और इनकी जिन्दगी अँधेरे में खत्म हो जाती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आज भी हमारी पुरानी शासन प्रणाली सुस्त रूप से चल रही है। झूठे वायदे एवं घोषणाओं की बौछार में राजनैतिक रोटियाँ सेकी जा रही है। सरकार खैरात तो दे देती है लेकिन उनकी मूलभूत समस्याओं का मूल रूप से निवारण नहीं कर पाती। आज जरूरत है चली आने वाली राहत घोषणाओं के पुराने ढरें को बदलने की जिससे चली आने वाली पुराने ढर्रे और शासकीय प्रवृत्ति से किसान निजात पा सके।
प्रेमचन्द्र ने गोदान में तत्कालीन जिस सामाजिक परिवेश का चित्रण किया है उसमें उन्होंने समस्याओं को केवल उठाया ही नहीं वरन् उसका निवारण भी किया है। बल्कि यूँ कहें कि निवारण का रास्ता भी सुझाया है। लेकिन आज स्वतन्त्रता प्राप्ति के 68 साल बाद भी हम उन समस्याओं को कमोवेश ज्यों का त्यों ही पाते हैं। किसान, मजदूर प्रशासन, महाजन, उद्योगपति, सामंतवाद, जजमानी, रागद्वेष, धर्म-भेद, ऊँच-नीच, विवाह में आने वाली कुरीतियाँ ज्यों की त्यों आज भी हमारे सामने उपस्थित हैं।
गोदान एक गाँव की ही त्रासदी नहीं है बल्कि भारत के लाखों गाँव एक साथ इसमें प्रतिबिम्बित होते हैं। अपनी व्याख्यात्मक शैली के द्वारा गाँव-घर, प्रकृति, उत्सव, त्योहार, लोक संस्कृति को भली-भांति प्रस्तुत करते हुए जीवन के प्रत्येक पक्ष का चित्रण हमारे सामने प्रस्तुत किया है। गाँव के साथ ही शहर और शहरी जीवन का भी यथोचित वर्णन किया है।
गोदान का रचनाकाल बहुत पुराना है लेकिन उसकी प्रासंगिकता आज भी है। आज भी हमें वहीं गाँव, वहीं शहर वही पात्र सभी जगह देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द्र के अनुसार साहित्य में तीन लक्ष्य हैं- परिस्कृति, मनोरंजन और उद्घाटन इन तीनों लक्ष्यों को पूरा करता हुआ गोदान उपन्यास है। प्रेमचन्द्र यथार्थवादी कथाकार थे और उन्होंने अपने साहित्य में कल्पना के स्थान पर भोगे हुए अनुभूत को महत्त्व दिया। उनकी दृष्टि में वह किसान जो समाज अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ है। वही कमजोर है और दुःखी है क्योंकि किसानों का हर प्रकार से शोषण हो रहा है। कर्ज किसानों की मूल समस्या है कर्ज में ही जन्म लेना और कर्ज में ही मर जाना उनकी बिडम्बना है नियति है उनके जन्म का हर एक पल हर एक साँस जमीदार एवं महाजनो के यहाँ गिरवी है और कर्ज वहीं खत्म नही हो जाता वरन् पीढ़ी दर पीढ़ी चलता जाता है।
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