प्राक्कथन
वेदों में परमपिता परमात्मा की अनन्त एवम् अद्भुत सृष्टि का ज्ञान व विज्ञान ओतप्रोत है जिसको सृष्टि के प्रारम्भ से ही मुक्त आत्माओं ने अनुसरण करते हुए इस यज्ञमयी स्वरूप को गतिशील बनाने में यज्ञ के माध्यम से बाह्य जगत का साकार रूप दशति हुए आन्तरिक जगत में प्रवेश होने की प्रेरणा दी है। जिससे की मानव निरन्तर अपने जीवन में मोक्ष की पगडण्डी की ओर अग्रसित होता रहे। आत्माओं के बारम्बार अनुरोध पर ही परमपिता परमात्मा इस सृष्टि का सृजन करते है जिससे कि विच्छेद हुई आत्माएँ पुनः से परमापिता से मिलन का प्रयास इस आत्म-लोक में आकर कर सकें क्योंकि कर्म करने के लिए आत्म-लोक में आना अति अनिवार्य हो जाता है। ऋषि मुनियो ने मानव के जीवन के उत्थान के लिए योग-मुद्रा में प्रवेश होकर वेद मन्त्रों की व्याख्या करते हुए उसके ज्ञान विज्ञान को सँहिताओं में निहित किया है और उसके कर्मकाण्ड को ब्राह्मण ग्रन्थों में विस्तार से लेखनीबद्ध करते हुए अनुसन्धान के अन्तिम चरण की सीमा के दर्शन कराए हैं। दिव्य आत्माएँ राष्ट्र व समाज कल्याण के लिए इस ज्ञान को निरन्तर प्रवाहित रखती हैं और जब भी मानव की अज्ञानता से यह ज्ञान सूक्ष्मता की ओर जाने लगता है उसका पुण्य आत्माएँ पुनः से उत्थान करते हुए स्थापित कर जाती हैं। उसी परम्परा को चिरस्थायी रखते हुए महाभारत काल के पश्चात् समाज में आए अज्ञान को दूर करने के लिए आदि गुरु ब्रह्मा जी महाराज के ज्येष्ठ एवम् परमप्रिय शिष्य शृङ्गी ऋषि महाराज की दिव्य आत्मा ने पूज्यपाद ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के रूप में अवतरित होकर वैदिक सम्पदा को पुनः से यज्ञ के माध्यम से अपने योग-मुद्रा में दिए गए प्रवचनों में देश, काल व परिस्थिति के अनुसार प्रचलित भाषा में प्रसारित करके राष्ट्र व समाज के उत्थान के लिए स्थापित किया है।
प्रस्तुत पोथी में सँग्रह की गयी अमृत वर्षा में पूज्यपाद-गुरुदेव ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज ने यज्ञ की विस्तार से व्याख्या करते हुए उसकी महत्ता पर प्रकाश डाला है। महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज के मुखारविन्द से याग के कर्मकाण्ड की विवेचना कराते हुए याग के होताओ, अध्वर्यु एवम् उद्गाताओं का वर्णन किया है। याग के स्वरूप को विस्तार प्रदान करते हुए भगवान् कृष्ण के नाग-याग को और उनके यज्ञमयी जीवन को विचित्र एवम् महानता प्रदान करते हुए महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए मानव को प्रेरित किया है जिससे कि आत्मा के प्रकाश में मानव प्रकाशित होने की राह में सँलग्न हो जाए। आत्मा के प्रकाश के दर्शन कराने के लिए महाराज जनक और उनकी धर्मपत्नी का विचार-विनिमय महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज से कराया है।
विष्णु सूक्तों का वर्णन करते हुए विष्णु के पर्यायवाची शब्दों पर महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज के आश्रम में चिन्तन कराते हुए महर्षि भारद्वाज, महर्षि शिकामकेतु उद्दालक और भगवान् राम द्वारा विष्णु की विवेचना करायी है जिसमें कि विष्णु के विस्तृत स्वरूप का दर्शन होता है। मानवीय दर्शन को उर्ध्वा में गति प्रदान करते हुए गुरुत्व के चिन्तन में मानव के शरीर की चार प्रकार की अवस्थाओं की मीमांसा महात्मा कुक्कुट मुनि महाराज और रावण के सम्वाद में मार्मिक रूप से स्पष्ट की है। जीवन में संस्कारों की महत्ता की प्रतिभा दशति हुए ब्रह्मा जी के पुत्र अथर्वा, माता कौशल्या जी के जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है। संस्कार, तप, पर्व और प्रेरणाओं को जीवन का आधार सिद्ध किया है।
प्रस्तुत ज्ञानगङ्गा को जन-कल्याण के लिए श्रीमति रविला गुप्ता सुपुत्री स्वर्गीय श्री मदनगोपाल खोसला निवासी हौजखास नई दिल्ली के परिवार ने प्रकाशित करने भार वहन किया है।
लेखक परिचय
उत्तर-प्रदेश के गाजियाबाद जनपद में मुरादनगर के निकट स्थित खुरर्मपुर-सलेमाबाद गाँव में एक निर्धन, अशिक्षित, कबीर पन्थी जुलाहे के घर इनका जन्म हुआ। उल्टी प्रक्रिया में अर्थात् उल्टे पैरों पैदा होने पर नाम रखा गया कृष्णदत्त । गाँव के अशिक्षित परिवेश में इनके जन्म समय का कोई निश्चित संकेत नहीं मिलता। फिर भी उनके परिवार के सदस्यों, उनके गाँव के समवायी शिक्षित महानुभावों के संकेतों और अन्य तथ्यों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि इनका जन्म सन् 1942 के उत्तर चातुर्मास्यकाल आश्विन कृष्ण पक्ष तृतीया में हुआ। इनके पिताजी का नाम श्री नानक चन्द व माता जी का नाम श्रीमति सोना देवी था।
कहते हैं, जब पूज्य ब्रह्मर्षि जी लगभग दो मास की अवस्था के ही थे, एक दिवस इनकी माता जी ने इन्हें श्वासन में लेटा दिया। कुछ समय उपरान्त शिशु की गर्दन दोनों ओर हिलने लगी और होठ फड़फड़ाने लगे। इस अवस्था में शिशु को पाकर परिवार के सदस्य चकित हुए। इस क्रिया की पुनरावृत्ति होने पर गाँव के ओझा-पंडित का सहारा लिया गया और भूत-प्रेत का प्रभाव मानकर तदनुरूप शिशु का उपचार प्रारम्भ हो गया। अनेक प्रकार से यातनाएँ दी जाने लगीं। परन्तु उस विशेष अवस्था में जाने की घटनाएँ बढ़ती रहीं आयु बढ़ने के साथ वाणी स्पष्ट होने पर बाल्य ब्रह्मर्षि जी उस विशेष अवस्था में जाते तो मन्त्र-पाठ और कथा वाचन स्पष्ट सुनाई देते। आश्चर्य चकित ग्रामवासी गर्दन हिलने और कथा सुनने के इस विचित्र अनुभव को अपने-अपने आधार पर ग्रहण करने लगे।
छः वर्ष की आयु में इन्हें भयानक चेचक निकली। इन्हें श्वासन में लिटाए रखा जाता और विशेष उस अवस्था में जाकर इनके प्रवचन होते ही रहते थे। दोनों ओर हिलने से इनका पूरा मुख-मण्डल और सिर डिल-खिल कर फोड़े की तरह बन गए थे। पड़ोस के बूढ़े लोगों को अभी भी वह समय याद है और कोई यह नहीं कहता था कि बालक कृष्णदत्त बच जाएगा। परन्तु प्रभु की कृपा से उसकी अमूल्य निधि मानव-कल्याण के लिए सुरक्षित रही।
सामान्यतः इन्हें करवट से ही सुलाया जाता था, लेकिन जब कभी श्वासन की स्थिति बनती तो कुछ समय के पश्चात् उसी प्रकार गर्दन हिलने लगती और कथा प्रारम्भ हो जाती। धीरे-धीरे गाँव के लोगों को इनकी कथाएँ समझ आने लगीं। इनके पिता जी इनके इस अवस्था में जाने से बहुत चिन्तित रहते थे। जब ये 7 वर्ष की अल्पायु के ही थे, तो इनके पिता जी ने अपने गाँव के चौधरी खचेडू सिंह और चौधरी इन्द्रराज सिंह त्यागी जी के यहाँ इन्हें नौकर रख दिया। वहाँ ब्रह्मर्षि जी, पशुओं को जंगल में चराना, घास लाना, पशुओं का चारा, पानी भरना मेहमानों की सेवा करना, हुक्का भरना, और पैर दबाना, कोल्हू में गन्ना डालना, गुड़ बनाना आदि काम करते थे। वहाँ भी जब कभी वह विशेष अवस्था बनती तो कथा प्रारम्भ हो जाती थी। इस प्रकार इनका सामान्य जीवन औपचारिक शिक्षा से वंचित रहा।
पशु चराते हुए साथी ग्वाले, बालक ब्रह्मर्षि की इच्छा न होते हुए
भी बल से, हाथ, पैर तथा सिर पकड़कर सीधा लेटाते और अपेक्षित रूप से गर्दन हिलाने एवम् कथा सुनने का मनोरंजन करते थे। धीर-धीरे गाँव के आस पास के अन्य गाँवों में इस विचित्र बालक का तथाकथित परिचय बढ़ने लगा। ग्राम के विवाहादि उत्सवों में विचित्र बालक को बुलाया जाने लगा और इस दिव्य प्रवचन क्रिया को मनोरंजन का साधन बनाया जाने लगा।
अन्य लोगों की तरह ब्रह्मर्षि जी भी इस अवस्था को व्याधि अथवा अन्य प्रभाव पश्चात् पिता जी द्वारा आत्याधिक पिटाई किए जाने पर इनके मन में विचार आया कि यहाँ कष्ट पाते रहने से तो अच्छा है कारें जाकर अपना इलाज कराया जाए, अन्यथा जीवन समाप्त कर दिया जाए। लगभग 15 वर्ष की अवस्था में शीत-काल की मध्य रात्रि में, लगभग एक बजे, अपने परिवार और गाँव को छोड़ कर भाग खड़े हुए। उपचार की आशा में एक-डेढ़ मास इधर-उधर भटकते हुए, बरनावा में श्री धर्मवीर त्यागी जी के घर पर पहुँचे। त्यागी जी इनके पूर्व नियोक्ता इन्द्रराज सिंह त्यागी जी से सम्बंधित थे और उनका परिवार इन्हें जानता था। यहाँ इनकी कथा होती रहती। कई मास कथा चलती रही। ग्रामीण लोग आते और सुनते रहते थे। कुछ श्रद्धा से समझते हुए सुनते और अन्य कौतुहल से।
बरनावा (वारणावत) मेरठ जनपद के हिण्डन और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित है। यहीं महाभारत काल का ऐतिहासिक 'लाक्षागृह' (लाखामण्डप) का टीला है, जहाँ कौरवों ने पांडवों को अग्नि में जलाने का शड्यंत्र रचा था और सौभाग्य से पांडव वहाँ से बच निकले थे। यह टीला बड़े विशाल रूप में आज भी विद्यमान है। इसी स्थान से जीवन मुक्त महर्षि महानन्दजी (सूक्ष्म शरीरधारी त्रेतायुगीन शिष्य) का सम्बंध ब्रह्मर्षि जी के भौतिक-पिण्ड से हुआ, ऐसा बरनावा निवासियों से मालूम हुआ। उनका कथन है कि जिस समय प्रारम्भ में यहाँ 5-6 मास तक कृष्णदत्त जी की कथा हुई तो कभी कथा में महानन्द मुनि का कोई संकेत, अथवा नामोचारण नहीं हुआ था। एक दिन ब्रह्मर्षि जी अपने चार साथियों के साथ घूमते हुए इस लाखामण्डप को देखने गए। थोड़ी देर घूम फिर कर आ गए और उसी दिन रात्रि की कथा में महानन्द जी ने यह कहा कि 'गुरू जी आज तो आप हमारे आश्श्रम में गए थे।
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