आगमों का संक्षिप्त परिचय
किसी ग्रन्य की प्रस्तावना लिखते समय हमारे सामने उसके दो रूप आते हैं बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग। बहिरङ्ग रूप का अर्थ है उस ग्रन्य के रचनाकाल, कर्ता, भाषा, एवं बाह्य आकार से सम्बन्ध रखने वाली अन्य बातों का निरुपण। उपासकदशाङ्ग सूत्र सातवां अङ्ग है और सभी अङ्ग श्री सुधर्मा स्वामी की रचना माने जाते हैं। उनका निरुपण प्रस्तावना के पहले खण्ड में किया जाएगा।
ग्रन्द का दूसरा रूप अन्तरङ्ग है। इसका अर्थ है उसमें प्रतिपादित विषयों का निरूपण। उपासकदशाङ्ग में दस आदर्श गृहस्थों का वर्णन है, जिन्हें श्रावक कहा जाता है। जैन धर्म में श्रावक का पद जीवन की उस भूमिका को प्रकट करता है जहां त्याग और भोग, स्वार्य और परमार्थ, प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय है, अतः समाज रचना की दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
उपासकदशाङ्ग में ई. पू. ६०० का सांस्कृतिक चित्र है। आनन्द का जीवन तत्कालीन वाणिज्य-व्यवसाय पर प्रकाश डालता है। राजा, ईश्वर, तलवर आदि नाम राज्याधिकारियों के परिचायक है। गोशालक का निर्देश धार्मिक स्थिति की ओर संकेत करता है। चम्पा, राजगृह आदि नगरियों तथा राजाओं के नाम मगध तथा आस-पास के जनपदों का भौगोलिक परिचय देते हैं। इन सबका निरूपण विविध परिशिष्टों में किया गया है।
आदिकाल
महावीर से पहले का साहित्य-
जैन-साहित्य का प्राचीनतम रूप चौदह पूर्व माने जाते हैं। उनका परिचय आगे दिया जाएगा। यद्यपि इस समय कोई पूर्व उपलब्ध नहीं है, फिर भी उस साहित्य में से उद्धृत या उस आधार पर रचे गए ग्रन्य विपुल मात्रा में आज भी विद्यमान हैं।
पूर्वी की रचना का काल निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। 'पूर्व' शब्द इस बात को सूचित करता है कि वे भगवान महावीर से पहले विद्यमान थे।
भगवती सूत्र में जहां भगवान की परम्परा के साधुओं का वर्णन आता है, वहां उनके ग्यारह एवं चारह अङ्ग पढ़ने का उल्लेख है और जहां उनसे पूर्ववर्ती परम्परा वाले साधुओं का वर्णन आता है वहां ग्यारह अङ्ग तथा पूर्वी के अध्ययन का निर्देश है। जिनभद्र ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है कि साधारण बुद्धि के लोगों के लिए चौदह पूर्वी में से निकालकर अड्गों की रचना की गई। इन सब प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर से पहले का श्रुत-साहित्य ग्यारह अङ्ग तथा पूर्वी के रूप में था। महावीर के पश्चात् कुछ समय तक बारह अङ्ग और चौदह पूर्व दोनों प्रकार का साहित्य चलता रहा। क्रमशः पूर्व साहित्य तुप्त हो गया और अङ्ग-साहित्य पठन-पाठन में चलता रहा। भगवान पार्श्वनाथ ईसा से ८५० वर्ष पहले हुए। उनमें यदि ईसा के बाद की बीस शताब्दियां मिला दी जाएं, तो कहा जा सकता है कि लगभग ३००० वर्ष पहले जैन परम्परा में 'पूर्व' नाम का विपुल साहित्य विद्यमान था। उसका आदिकाल इतिहास की पहुंच से पहले का है। उसका माप वर्षों की संख्या द्वारा नहीं, किन्तु कालचक्र के युगों द्वारा ही किया जा सकता है।
भगवान महावीर के बाद का श्रुत-साहित्य अङ्ग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, प्रकीर्णक आदि में विभक्त है। उसकी संख्या के विषय में विभिन्न परम्पराएं है, जिनका परिचय आगे दिया जाएगा। उससे पहले यह जानने की आवश्यकता है कि जैन परम्परा में शास्त्रीय ज्ञान का क्या स्थान है।
जैन दर्शन में ज्ञान के पांच भेद किए गए हैं। शास्त्र या व्यक्ति द्वारा सीखी गई बातों को दूसरे भेद में गिना गया है। इसका शास्त्रीय नाम है श्रुत-ज्ञान। इसका अर्थ है, सुना हुआ ज्ञान। ब्राह्मण परम्परा में जो महत्व श्रुति या वेद का है, जैन-परंपरा में वही महत्व श्रुतज्ञान को दिया गया है। किन्तु दोनों के दृष्टिकोण में भेद है।
मीमांसादर्शन वेद को अनादि मानता है। उसका कहना है कि वेद किसी का बनाया हुआ नहीं है। वह गुरु और शिष्य की परंपरा में अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। उसकी परम्परा न कभी प्रारम्भ हुई और न कभी समाप्त होगी।
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