सृष्टि रचना प्रकरण पर विचार करते समय जब वेदान्ती भाईयों के सिद्धान्तों का अवलोकन करते हैं तो उनके अद्वैतवाद के अनुसार वे प्रकृति और जगत के अस्तित्व को नकारते हैं। वैदिक मान्यता अनुसार प्रकृक्ति सृष्टि रचना का उपादान कारण है। बिना कारण से कोई कार्य नहीं होता और कारण के नाश होने से कार्य का भी नाश हो जाता है। किसी भी अवस्तु से वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए प्रकृति सृष्टि रचना में उपादान कारण है और ईश्वर सृष्टि के रचने वाला निमित्त कारण है। जीवात्मा प्रकृति के कार्यरूप फल का भोग करने वाला है और भोगों से विरत होने पर मुक्ति को भी प्राप्त करता है। वैदिक सिद्धान्त के अनुसार तीन सत्ताएँ अनादि हैं:- ईश्वर, जीव और प्रकृति।
अन्य अनेक मतावलम्बियों की विभिन्न विचार धाराएँ हैं, जिनमें कोई एक सत्ता मानता है और कोई दो ही सत्ताओं को मानता है। ये मान्यताएँ तर्क एवं प्रमाणों की कसौटी पर पूर्ण नहीं उतरती। इन तीन अनादि सत्ताओं से ही सृष्टि की रचना हुई है जिस का विस्तार से विवरण स्वामी दयानन्द सरस्वती के मुख्य ग्रन्थों- सत्यार्थ प्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में दिया गया है। इस पुस्तक में इन तीन सत्ताओं-ईश्वर, प्रकृति व जीवात्मा को देखते हुए, इस सृष्टि एवं समाज की संरचना में तीन व्यवस्थाओं की आधारभूत भूमिकाओं के उदाहरण देने का प्रयास किया गया है। जैसे सृष्टि रचनाकार ओ३म् तीन अक्षर अ, ऊ, म से बना हुआ है जिसमें असंख्य गुणों का समावेश है। सृष्टि रचना के भी तीन मुख्य कारण हैं- निमित्त कारण, उपादान कारण और साधारण कारण। मूल प्रकृति तथा इसके चौबीस कार्यरूप तत्वों में तीन गुणों, सत्व, रजस् और तमस् का समावेश है। जीव भी कमों के अनुसार तीन व्यवस्थाओं- योनि, आयु और भोग को पाता है। ईश्वर के भी तीन मुख्य गुण- सत्, चित् व आनन्दस्वरूप और तीन मुख्य कर्म सृष्टि रचना, पालन करना और प्रलय करना हैं। ईश्वर ने सृष्टि में तीन ही लोकों का निर्माण किया- भू, अन्तरिक्ष और द्युलोक। तीनों लोकों में तीन मुख्य शक्तियों- अग्नि, विद्युतमिश्रित वायु आदित्य या सूक्ष्मतम ऊर्जा का आवागमन किया है। तीन ही काल हैं- वर्तमान, भूत और भविष्य। शरीर की रचना को भी तीन भागों में बांटा है जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर हैं। मानव शरीर भी तीन अवस्थाओं में रहता है- जम्मत, स्वप्न और सुषुप्ति। तीन ही अवस्थाओं में जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध होता है- समाधि, सुषुप्ति और मुक्ति की अवस्थाएँ। अन्तःकरण के तीन मुख्य दोष- मल, विक्षेप और आवरण। इन को दूर करने के भी तीन मुख्य उपाय दर्शाए गये हैं-सत्य कर्म, उपासना और ज्ञान। ब्रह्मज्ञान प्राप्ति में भी तीन मुख्य कामनाएँ बाधक-पुत्रेषणा, विर्तषणा और लोकेषणा; संस्कारों के अनुसार मानव भी तीन प्रकार के हैं- पामर, विषयी और मुमुक्षुः मुमुक्षु की भी तीन श्रेणियां बनाई। ईश्वर की आनन्दमयी तरंगें भी तीन प्रकार से विभाजित हैं- सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम। मानव को तीन ही प्रकार के दुःखों का सामना करना पड़ता है, वे हैं, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक; आध्यात्मिक दुःख भी तीन प्रकार का शारीरिक रोग, मानसिक रोग; आत्मिक रोग; शारीरिक रोग भी तीन ही वात, पित्त व कफ की नयूनाधिकता के कारण होता है। शारीरिक रोग को दूर करने के भी तीन मुख्य उपाय आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य का पालन; मानसिक व आत्मिक रोग दूर करने के भी तीन आधारभूत उपाय, ईश्वर स्तुति, प्रार्थना और उपासना हैं। मन की शुद्धता स्थिर रखने के भी तीन मुख्य उपाय हैं- शुद्ध अन्न, शिव संकल्प और सत्य का आचरणः मुमुक्षु को पहली मंजिल मन की एकाग्रता को प्राप्त करने के तीन आधारभूत उपाय हैं-प्राणायाम, सृष्टि रचना का चिन्तन ओ३म् या गायत्रीमंत्र का जप। मुमुक्षु को मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बनने के तीन मुख्य उपाय, वे हैं विवेक द्वारा अविद्या आदि क्लेशों को दूर करना, वैराग्य वृत्ति बनाना और षट्क सम्पत्ति अर्थात् शम, दम, उपरति-तितिक्षा श्रद्धा व समाधान।
उपर्युक्त आधारभूत तीन व्यवस्थाओं के अतिरिक्त हमारे ऋषि मुनियों एवं वेदाचार्यों ने समाज में तीन व्यवस्थाओं का पालन करने का आह्वान किया। जैसे देवयज्ञ या अग्निहोत्र द्वारा तीन लोकों में व्याप्त तीन प्राण, प्राण, अपान व व्यान की शुद्धता का प्रावधान किया। इसी प्रकार तीन सूत्रों का यज्ञोपवीत धारण कर तीन मुख्य ऋण पितृऋण, आचार्य, ऋषि या सामाजिक ऋण को उतारने के लिऐ सचेत किया। वैदिक सन्ध्या के मन्त्रों में भी तीन मुख्य कर्त्तव्यों का चिन्तन करने का प्रावधान किया वे हैं अपने प्रति, समाज के प्रति और ईश्वर के प्रति कर्त्तव्य। राज धर्म को निभाने एवं शासन व प्रशासन को सुदृढ़ करने के लिए तीन सभाओं का प्रावधान किया वे हैं, विद्या सभा, धर्म सभा, और राज सभा और राज सभा को सुचारू ढंग से चलाने के लिए राजनीतिज्ञों ने भी राज शक्ति को तीन भागों में विभाजित किया, वे हैं, विधायिका, कार्य पालिका और न्यायपालिका।
यह त्रिविध सृष्टि रचना एवं समाज में तीन व्यवस्थाओं की भूमिका का जो विवरण दिया गया है, यह मैंने वैदिक ग्रन्थों, दर्शन, उपनिषदों, स्वामी दयानद सरस्वती की कृतियों सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों, महात्मा आनन्द स्वामी की पुस्तक तत्त्वज्ञान, अन्य अनुभवी योगियों, वेदाचार्यों के सहयोग से संकलन किया हैं। कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर गुरु महानन्द सरस्वती के अनुभूत विचारों का सहयोग लिया है। इन सब का मैं बहुत आभारी हूँ। यह जो संकलन किया गया है, इस में मेरा उद्देश्य हमारी वेदिक धरोहर के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त एवं मान्यताएं जो विभिन्न ग्रन्थों में संस्कृत या गूढ़ हिन्दी भाषा में विद्यमान हैं, उनको साधारण एवं सरल शब्दों में व्यक्त करके सामान्य व्यक्तियों तक पहुँचाने का है ताकि वह अपनी प्राचीन संस्कृति एवं मान्यताओं के कुछ अंशों से जानकारी प्राप्त करके लाभान्वित हों। इस में मेरा कोई आर्थिक ध्येय नहीं हैं।
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