मानव जाति की उत्पत्ति का प्रश्न वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम आदमियों को बराबर लुभाता रहा है। लेकिन यह प्रश्न उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक एक रहस्य ही बना रहा। उस समय टी. एच. हक्सले और चार्ल्स डार्विन ने पहली बार बंदरों और मानवों के बीच एक युक्तियुक्त संबंध का उल्लेख किया। यद्यपि यह बात रूढ़िवादी आस्तिकों के गले नहीं उतर सकी, किंतु धीरे-धीरे यह विचार पुरा-जीवावशेष विज्ञानियों अर्थात जीवाश्म अस्थियों का अध्ययन करके मानव पुरखों के बारे में खोज करने वाले वैज्ञानिकों के कार्यों से धीरे-धीरे दृढ़ होता चला गया। जैसे-जैसे जीवाश्मों के नये-नये प्रमाण मिलते गये, वैसे-वैसे मानव उत्पत्ति की पहेली सुलझती गयी। आज तस्वीर काफी स्पष्ट हो चुकी है, हालांकि अभी भी कुछेक कड़ियां अज्ञात हैं।
अब तक जो कुछ भी सामने आया है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि लगभग 80 लाख वर्ष पहले पेड़ों पर रहने वाले बंदर जैसे प्राणी से लेकर आश्चर्यजनक असाधारण कार्य कर सकने वाले बुद्धिमान प्राणी, मानव के विकास तक की यात्रा निर्विघ्न नहीं रही है। इस यात्रा के दौरान बहुत से महापरिवर्तन हुए और बहुत सी चरमांत की स्थितियां उत्पन्न हुई। किंतु उससे भी अधिक मंत्रमुग्ध करने वाली कहानी उन मुट्ठी भर पुरुषों और महिलाओं की है जो अपने जीवन के सब सुखों को त्यागकर गरम ऊष्णकटिबंधीय अफ्रीका में और अन्य स्थानों पर हमारे प्राचीन पुरखों की तलाश में निकल पड़े। वे चिलचिलाती धूप में दृढ़ निश्चय के साथ अपने काम पर डटे रहे। कभी वे बिखरे हुए पत्थरों, या पत्थरों की छाया में किसी दांत को तलाशते, तो कभी किसी जबड़े के एक टुकड़े को या फिर किसी हड्डी के एक टूटे हुए कोने को। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि उन्हें कोई चीज मिल भी पायेगी। उनकी सफलताओं और असफलताओं की कहानी किसी सनसनीखेज जासूसी कहानी से कम उत्तेजक और मनमोहक नहीं है। जबड़े या टांग की किसी हड्डी का टुकड़ा किसी बंदर का है या मानव जैसे किसी प्राणी का, यह पहचानने के लिए, या फिर जिस प्राणी की जीवाश्म खोपड़ी उनके पास थी, वह बोल सकता था या नहीं, यह पता लगाने के लिए वे जिन विलक्षण तरीकों का इस्तेमाल किया करते थे, वे किसी शरलक होम्स को भी शर्मिंदा करने के लिए काफी थे।
मानव विकास में मेरी रुचि केवल कुछ वर्ष पहले तब उत्पन्न हुई जब मैं इस विषय पर एक रेडियो धारावाहिक तैयार करने के काम से जुड़ा। कथा लेखकों के लिए मुझे कुछ पृष्ठभूमि संबंधी सामग्री तैयार करनी थी। जब मैंने सारी सामग्री एकत्र कर ली, तो उस समय जो सूचना-भंडार मेरे सामने था उसे देखकर में भौंचक्का रह गया। यह सूचना उससे कहीं अधिक थी, जो एक रेडियो धारावाहिक के कुछेक कथांशों में पेश की जा सकती थी। यह सूचना ऐसी थी जिसे एक अधिक स्थायी कृति में स्थान मिलना चाहिए था। हालांकि धारावाहिक को बहुत बड़ी सफलता मिली, किंतु उसे एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का विचार मेरे मन से कभी नहीं गया। इसका अवसर मुझे तब मिला, जब नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से मुझे इस आशय का अनुरोध प्राप्त हुआ कि उन्हें उक्त विषय पर लोकोपयोगी विज्ञान पुस्तकमाला के लिए एक पुस्तक चाहिए।
किंतु पुस्तक लिखना उतना आसान नहीं साबित हुआ, जितना मैं समझता था। जब मैंने उपलब्ध सामग्री को अद्यतन करने की कोशिश की, तो मुझे यह देखकर बेहद घबराहट हुई कि लगभग हर रोज नये-नये जीवाश्म और नये-नये मत सामने आ रहे थे। इन सबके कारण, मैंने जो कुछ पहले लिखा होता था, वह अप्रासंगिक हो जाता था। नयी खोजों के साथ कदम मिलाते हुए, मूल पाठ में परिवर्तन करना एक भयानक स्वप्न सा लगने लगा। इसके बावजूद एक निश्चित समय के भीतर मुझे अपना काम पूरा करके देना था। अंततः इस मामले में मुझे एक समझौता करना पड़ा और हारकर मुझे एक आखिरी तारीख निश्चित करनी पड़ी। यह तारीख थी जुलाई, 1996। यदि उसके बाद कोई ऐसा नया तथ्य सामने आया है, जो मेरी पुस्तक में दिये गये विवरण से भिन्न है, तो मुझे आशा है कि पाठकगण उसके लिए मुझे क्षमा करेंगे।
मेरे बहुत से मित्रों और सहयोगियों ने इस कार्य के लिए मुझे प्रोत्साहित किया; उन सबका आभारी हूं। विशेषकर डा. जी.पी. फोंडके के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूं, जो मानव विकास पर रेडियो धारावाहिक के मुख्य प्रेरणा स्रोत थे। प्रारंभिक प्रारूपों को पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे जो अमूल्य सुझाव दिये, उनसे मुझे पुस्तक को अंतिम रूप देने में बहुत मदद मिली। मेरी मित्र शकुंतला मट्टाचार्य ने मुझे अपनी पुस्तकें उधार देने की कृपा की, जिनसे मुझे मूल्यवान संदर्भ सामग्री उपलब्ध हो पायी। नेशनल बुक ट्रस्ट की श्रीमती मंजु गुप्ता की निरंतर सतर्कता के बिना, मैं इस पुस्तक को कभी पूरा नहीं कर पाता। वह मुझे निरंतर अंतिम तारीख की याद दिलाती रहती थीं (हालांकि मैं मूलतः तय की गयी अंतिम तारीख तक अपना काम पूरा नहीं कर पाया)। मैं श्री सी.जी. रफेल को विशेष रूप से धन्यवाद देता हूं जिन्होंने कंप्यूटर पर मूल पाठ को टाइप किया और बाद में जो-जो परिवर्तन करने चाहे उन्हें उदारतापूर्वक किया। मैं अपनी पत्नी आलोका से मिली सतत् सहायता को भी नहीं भूल पाऊंगा। उन्होंने वक्तबेवक्त मुझे न जाने कितनी बार चाय बनाकर दी जिसकी बदौलत मैं अपने लेखन की गति को बनाये रख पाया।
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