हिन्दी गद्य के अन्य विधाओं की भांति आत्मकथा की भी शुरुआत आधुनिक युग में ही हुई है। जब कोई लेखक अपनी लेखनी से स्वयं की जीवनी लिखता है तब उसे 'आत्मकथा' कहते हैं। आत्मकथा लेखन का कार्य अतिशय चुनौतीपूर्ण माना जाता है। क्योंकि अपने चरित्र का विश्लेषण करना सदैव जोखिम-भरा होता है। यदि आत्मकथाकार सिर्फ अपने गुणों का वर्णन करता है तो उसे आत्मप्रशंसक कहा जाता है। दूसरी ओर यदि वह केवल दोषों का वर्णन करता है तो पाठकों की श्रद्धा से हाथ धो बैठने का भय रहता है। कहने का आशय यह है कि आत्मकथा-लेखन दुधारी तलवार की तरह है जिसमें सम्पूर्ण तटस्थता का निर्वाह कर पाना बेहद कठिन है। हिन्दी आत्मकथा का आरम्भ बनारसीदास जैन की पद्यात्मक रचना 'अर्द्ध-कथानक' (1641 ई.) से माना जाता है, किन्तु गद्य विधा में इसकी प्रतिष्ठा सत्यानंद अग्निहोत्री कृत 'मुझ में देव-जीवनी का विकास' (1910) तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत 'जीवन-चरित्र' (1917) द्वारा होती है। इस परम्परा का सम्यक् विकास छायावाद-युग में हुआ जिसे छायावादोत्तर युग में विशेष उत्कर्ष प्राप्त हुआ।
डॉ. हरिवंशराय 'बच्चन' का नाम हिन्दी के श्रेष्ठतम आत्मकथा लेखकों में शुमार है। इनकी आत्मकथा 'क्या भूलूं क्या याद करूं' (1969), 'नीड़ का निर्माण फिर' (1970), 'बसेरे से दूर' (1977) तथा 'दशद्वार से सोपान तक' (1985), शीर्षकों से चार खंडों में प्रकाशित हुई है। लेखक ने इन खंडों में अपने प्रदीर्घ जीवन के घटनाओं को वाणी दी है। इनमें घर-परिवार, नगर-गांव, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक परिवेश, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य-जगत के यथार्थ को बड़ी प्रामाणिकता के साथ चित्रित किया गया है। इनमें एक अतिशय लोकप्रिय कवि-लेखक का भौतिक तथा मानसिक संघर्ष अपने वास्तविक रूप में कलात्मक अभिव्यक्ति पाता है। इन चारों खंडों में बच्चन जी के पारिवारिक, निजी एवं एकांतिक जीवन के साथ-साथ अध्ययन-अध्यापन तथा कार्यक्षेत्र संबंधी प्रकरणों का भी प्रमुखता से चित्रण हुआ है। इनमें पारिवारिक विवाह, विवाहेत्तर संबंध तथा विद्रोह का अत्यंत आकर्षक वर्णन मिलता है। शिल्प की दृष्टि से बच्चनजी की आत्मकथाएं एक अभिनव प्रयोग हैं। इनमें यथासंभव तटस्थता तथा प्रामाणिकता सुरक्षित है।
डॉ. दृगेश यादव बच्चन साहित्य के गहन अध्येता हैं। इन्होंने बच्चन के गद्य साहित्य पर विस्तृत समीक्षा-पुस्तक लिखने के उपरांत उनकी आत्मकथा के अनछुए संदभों को उद्घाटित करते हुए यह दूसरी पुस्तक लिखी है। यह इस बात का द्योतक है कि लेखक बच्चन-साहित्य के प्रति कितनी गहरी संलग्नता रखता है। डॉ. यादव की ख्याति एक समर्थ कवि, समीक्षक, शोधार्थी उद्यमी और राजनेता की है। इन्होंने न केवल कई बार बच्चन की आत्मकथाएं पढ़ी हैं अपितु इन्हें अधिकांश प्रसंग कंठस्थ हैं। ऐसी स्थिति में बच्चन की आत्माभिव्यक्ति पर इनका लेखन निरंतर चिंतन का परिणाम है। इन्होंने विवेच्य पुस्तक के प्रथम अध्याय में आत्मकथा के उद्भव और विकास का परिचय उपलब्ध कराया है। इसमें वैदिक काल से लेकर बच्चन की आत्मकथा तक का ऐतिहासिक क्रम में विश्लेषण है। द्वितीय अध्याय में हिन्दी आत्मकथा की सामाजिक चिंतनात्मकता का विश्लेषण किया गया है। लेखक ने बड़े मनोयोग से तृतीय अध्याय के अंतर्गत बच्चनजी के समूचे व्यक्तित्व एवं कृतित्व का निर्वचन किया है। जबकि चतुर्थ अध्याय के अंतर्गत बच्चन की आत्मकथा के चारों भागों का विशद-विवेचन किया गया है। डॉ. यादव के विवेचन में एक सुव्यवस्था एवं अनुसंधित्सु प्रवृत्ति पाई जाती है। यही कारण है कि लेखक ने बड़ी सजगता से बच्चन की आत्मकथा की अनसुनी अनुगूंजों को सुनने-सुनाने का कार्य किया है। बच्चन की आत्मकथा में वैयक्तिक जीवन तथा तत्कालीन युगबोध की कश्मकश जिस बारीकी और बेबाकी से उभरती है, उसका बेहद मार्मिक उद्घाटन इस पुस्तक की अपनी निजी विशेषता है। फलतः यह पुस्तक विद्वानों, समीक्षकों, शोधार्थियों तथा सामान्य पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। पुस्तक रोचक है, पठनीय है, इसकी विषयवस्तु संग्रहणीय है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी जगत इस सारस्वत उपलब्धि का खुले मन से स्वागत करेगा।
डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने विश्वनाथ सचदेव को दिए गए एक साक्षात्कार में यह स्वयं कहा था कि 'आधुनिक युग गद्य का है।' यह सच भी है क्योंकि हम दूसरी भाषाओं के साहित्य को छोड़ भी दें और केवल हिन्दी साहित्य पर ही विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाती है कि आधुनिक लेखन का बहुलांश गद्यमय ही है। मैं जब स्नातक कक्षा का विद्यार्थी था तभी से मेरे मन में बच्चन साहित्य के प्रति एक विशेष आकर्षण पैदा हुआ और मैंने एम.ए. में गहराइयों तक महसूस किया कि बच्चनजी जितने श्रेष्ठ और लोकप्रिय कवि हैं उससे बढ़कर अपेक्षाकृत बेहतर गद्यकार हैं। उस समय उनके कथित वक्तव्य ने मुझे विशेष रूप से उत्साहित किया था। मैंने अनुभव किया कि बच्चन की आत्मकथाएँ विश्वसाहित्य की श्रेष्ठतम आत्मकथाएँ हैं और उनकी गद्य शैली भी लाजवाब है। बच्चनजी को समग्रता में जानने के लिए यह जरूरी है कि उनकी स्वतः स्फूर्त कविता तथा गीतियों के साथ-साथ उनके गद्य साहित्य की इंद्रधनुषी छटा का भी अवलोकन किया जाये क्यों कि उनका काव्य एवं गद्य साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे का प्रति-संतुलन हैं। बच्चनजी कितने बड़े विचारक हैं इसे उनके गद्य साहित्य के अवगाहन द्वारा ही समझा जा सकता है। बच्चन का गद्य साहित्य संवेदनात्मक अनुभूतियों तथा परिपक्व चिंतन का समुच्चय है जिसे हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर माना जा सकता है।
जब हम डॉ. बच्चन पर लिखे गये अद्यतन समीक्षा साहित्य पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि उनके काव्य साहित्य को विश्लेषित करने वाली विपुल सामग्री उपलब्ध है। जबकि उनके गद्य साहित्य पर एक भी सुचिंतित, सुव्यवस्थित तथा स्तरीय समीक्षा पुस्तक उपलब्ध नहीं है। हिन्दी आलोचना के इस अभावात्मक पक्ष ने मेरे मन को झंझावात की तरह झकझोर दिया और मैंने तय किया कि मैं बच्चनजी के आत्मकथा साहित्य पर स्वतंत्र रूप से पुस्तक लिखूंगा। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप मैंने बच्चनजी के आत्मकथा साहित्य के महासागरीय फैलाव तथा गहराई को मापने का विनम्र एवं श्रमसाध्य प्रयास किया है। मुझे इस कार्य में कितनी सफलता मिली है तथा मैं कितने रत्न निकाल सका हूँ इसका निर्णय तो जौहरी की पारखी दृष्टि रखने वाले पाठक गण ही करेंगे।
मेरा स्पष्ट अभिमत है कि बच्चनजी का काव्य साहित्य उनके व्यक्तित्व के एक आयामी पक्ष को ही उद्घाटित कर पाता है। जब कि उनका आत्मकथा साहित्य उनके संपूर्ण व्यक्तित्व बहुआयामिता का निदर्शन करता है। ऐसी स्थिति में आलोचकों द्वारा अल्प चर्चित तथा विश्लेषित होने के बावजूद उसकी उपादेयता बहुत ज्यादा है। मैंने बच्चनजी को समग्रता में उद्घाटित करने तथा उनके बहुमुखी अवदान का सटीक विश्लेषण करने के उद्देश्य से बच्चनजी के गद्य साहित्य का गहन अनुशीलन किया है। वर्तमान उत्तर आधुनिक दौर में यह सिद्ध हो चुका है कि साहित्य काव्य सरिता से निकलकर गद्य के महासागर के समान विस्तीर्ण रूप धारण कर रहा है।
इस पुस्तक में बच्चन जी हिन्दी के शिखर आत्मकथाकार माने जाते हैं। इनकी चार भागों में प्रकाशित आत्मक्या अपनी साहसिक और स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए ख्यात है। इन्होंने अपनी आत्मकथाओं में न केवल अपने जीवन के सत् असत् शुभ-अशुभ पक्षों का खुला और निर्भात चित्रण किया है, अपितु अपने समय, समाज तथा साहित्य की गतिविधियों का भी आकलन किया है। यहाँ तक कि प्रवास की डायरी में तो इंग्लैण्ड के साहित्यिक, शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। कहने का आशय यह है कि बच्चन जी ने अपनी आत्मकथाओं में जीवन और जगत के बृहत्तर संदर्भों को दुबारा रच दिया है। उसमें इनके निजी और एकांतिक जीवन प्रसंगों से लेकर समय और समाज की अधिकतम चित्त-वृत्तियों का निर्वचन किया गया है। इनकी आत्मकथाएं अपनी अभिव्यंजना में अत्यधिक सटीक, पाठकीय रोचकता से भरपूर तथा संवेदनात्मक औदात्य और भाषिक संप्रेषणीयता से अनुप्राणित है। यही कारण है कि हिन्दी आत्मकथा साहित्य के इतिहास में बच्चन की आत्मकथाएं ऐतिहासिक महत्व की अधिकारिणी हैं। मैंने अपने विश्लेषण को उद्घाटित किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी जगत् मेरे इस नूतन और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को खुले मन से अपनी स्वीकृति प्रदान करेगा।
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