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सुदर्शन मजीठिया के साहित्य में व्यंग्य- Sudarshan Majithiya Ke Sahitya Mein Vyangya

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Bhagwan Singh Solanki
Language: Hindi
Pages: 112
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 260 gm
Edition: 2012
ISBN: 9788188571536
HBM765
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Book Description

भूमिका

साहित्य समाज की संचेतना में पनपता है। हिन्दी साहित्य का इतिहास इसी बात की पुष्टि करता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी अपने ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' की भूमिका में लिखते हैं- "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।"

शुक्लजी ने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति पर निर्भर करती है। किन्तु साहित्य का अनुशीलन करते हुए यही देखा गया है कि, साहित्य पर दो ही परिस्थितियों का सीधा प्रभाव अधिक रहा है। एक समय था, जब राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों का प्रभाव अधिक रहा जब कि स्वतंत्रता आंदोलन से पहले तथा आंदोलन के दौरान के समय की राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य पर अधिक रहा था। स्वतंत्रता मिलने तक हिन्दी साहित्य की संचेतना में कई विद्वानों की साझेदारी रही जिसने गय को नये आयम दिये। परंतु स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य संचेतना में व्यंग्य की साझेदारी गद्य-विधा को सर्वथा-नये आयाम और एक गंभीर समझदारी प्रदान की है। गद्य की अनेकानेक विधाओं के अंतर्गत आज हिन्दी व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्वीकार कर लिया गया हैं। स्वातंत्र्योत्तर साहित्य में व्यंग्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सामयिक रचना प्रक्रिया में व्यंग्य का विशिष्ट योगदान रहा है, शायद उतना किसी अन्य विधा का नहीं रहा है।

आज व्यंग्य को स्वीकार कर लिया गया है। किन्तु आज से तीन दशक पहले हास्य और व्यंग्य में कोई निश्चित सीमांकन नहीं था। कुछ समय पहले हास्य अपनी सतही तथा विशुद्ध मनोरंजनात्मक वृत्ति और प्रकृति के कारण सहज ग्राह्य तो हो रहा था, किन्तु व्यंग्य की धारदार मार उसमें नहीं थी। परंतु आज हास्य और व्यंग्य की अलग-अलग पहचान हो गई है। आज साहित्य की सर्जनात्मक भूमिका में एक सार्थक बदलाव देखा जाता है। छठें दशक से साहित्य में व्यंग्य की साझेदारी बराबर बनी रही है। परंतु व्यंग्य की कोई निश्चित शैली नहीं थी। किन्तु सातवें और आठवें दशक में तथा उसके बाद हिन्दी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाओं में गद्य-विधा की लगभग सभी शैलियों में व्यंग्य निरूपण अनिवार्य बन गया है। आज कहानी हो, उपन्यास हो, नाटक हो, लेख या निबंध हो, संस्मरण, रिर्पोताज, सभी में व्यंग्य का साहचर्य देखा जाता है। यही कारण है कि हिन्दी गद्य लेखन में व्यंग्य का निरूपण एक आवश्यक शर्त बन गई है। जिसने व्यंग्य साहित्य की ओर प्रोत्साहित किया, और स्वतंत्रता के बाद हिन्दी व्यंग्यकारों ने अपनी साहित्य सर्जना के द्वारा अभूतपूर्व योगदान दिया है।

स्वातंत्र्योत्तर हास्य-व्यंग्य कवियों में बेढब बनारसी, काका हाथरसी, नागार्जुन, बरसानेलाल चतुर्वेदी, निर्भय हाथरसी, हुल्लढ़ मुरादाबादी, अशोक चक्रधर, बालेन्दु शेखर तिवारी तथा किशोर काबरा आदि उल्लेखनीय हैं। स्वातंत्र्योत्तर हास्य-व्यंग्य नाटककारों में चिरंजीत, काका हाथरसी, शंकर पुणतांबेकर, के०पी० सक्सेना, लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, राम किशोर मेहता, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विनोद रस्तोगी, बालेन्दु शेखर तिवारी, हरिशंकर परसाई, नागार्जुन, श्री लाल शुक्ल, सलमा सिद्दीकी, सरयूप्रसाद गौड़, मन्नू भण्डारी, बरसाने लाल चतुर्वेदी, राही मासूम रज़ा, कृष्ण चंदर तथा श्री सुदर्शन मजीठिया आदि हैं।

साहित्य की सभी विधाओं में व्यंग्य का निरूपण सर्वाधिक रूप से कहानियों एवं निबंधों में हुआ है। इन विधाओं में हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, लतीफ घोंघी, नरेन्द्र कोहली, घनश्याम अग्रवाल, सुदर्शन मजीठिया, बालेन्द्र शेखर तिवारी आदि ने व्यंग्य को कारगर साधन माना है। किन्तु इसके कारगर होने के लिए आवश्यक है कि व्यंग्य की धार तेज हो, उसकी मार सख्त हो। सफल व्यंग्यकार में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह पाखंडों का पर्दाफाश कर दे। दंभियों के चेहरे के मुखौटों को नोच कर रख दे। इसके लिए जिसकी भाषा में आक्रामकता, भाषा का साफ सधा हुआ, नपा-तुला प्रयोग तथा तर्क की अद्भुत शक्ति होगी। वही व्यंग्य लेखन में अधिक प्रभावी व सफल होगा।

आज हिन्दी व्यंग्य साहित्य ने अभूतपूर्व सफलता हासिल कर ली है। इतना ही नहीं कल तक जो सुधी समीक्षक इससे नाक-भौं सिकोड़ते थे, जो 'घर की मुर्गी दाल बराबर' मानते थे, वही आज उसकी ओर सम्मान की नज़र से देखने लगे हैं। आज हिन्दी व्यंग्य साहित्य की गुदड़ी के अनेक लाल हैं जिसमें व्यंग्य शलाका पुरुष हरिशंकर परसाईजी से लेकर बालेन्दु शेखर तिवारी तक हैं।

जानकारियों का एक हरसिंगार है जो हर समय सबके लिए सुवासित कुसुम बरसाता रहता है। एक आसमान है जो अनगिनत थके पैरों को बरसात की छिटकती बूँदों से धो डालता है। एक सागर है, जो दोनों से शीतलता लुटाता है। एक नया उमगा हुआ वटवृक्ष है, जिसके नीचे पहुँचकर कोई आतपग्रस्त नहीं रह जाता है। व्यंग्य-चर्चा की एक मीनार है जहाँ से एतद् विषयक अध्ययन और अनुसंधान का आलोक विकीर्ण होता है। सर्जना की हर दिशा में सहयोग के हर क्षेत्र में उत्साही, व्यंग्य के लिए समर्पित यह नाम अब किसी पहचान का मोहताज नहीं है। यह नाम है, डॉ० सुदर्शन मजीठिया जी का। डॉ० मजीठिया जी ने व्यंग्य को समाज का दर्पण कहा है- मुर्गे की बाँग माना है और नई स्थापनाओं के साथ अपनाया है।

मानव-मन बड़ा ही अगोचर है। कोई भी निश्चित निर्णय उसके लिए नहीं किया जा सकता। कब किस बात पर रीझ जाय क्या पता? तो कब हल्की-सी लकीर से वह तिलमिला उठे और कहे किसी को, सुनाये किसी को। प्राचीनकाल से मानव की वाक्-विदग्धता ने अनेक रूप-कुरूप उजागर किये हैं। बचपन से हास्य-जनित कार्यक्रमों में मेरी विशेष रुचि रही है। गुजराती साहित्य में जिसे 'लोक साहित्य' के नाम से जाना जाता है तथा आज के गण्यमान्य लोक साहित्यकारों को सुनते-सुनते कब मेरे अचेतन मन में व्यंग्य, व्यंजना ने विदग्धता से प्रीति कर ली, मुझे भी पता न चला। विद्यालय की शिक्षा में 'सदाचार का तावीज', 'इलाज का चक्कर' आदि कहानी नुमा निबंध एकांकी के अध्ययन से वह गुप्त प्रेम-धीरे-धीरे बलवत्तर बनता गया। तभी स्नातक कक्षा में परसाईजी का 'अपनी ही मौत पर' मेरे पढ़ने में आया। परसाईजी को पढ़ने के बाद व्यंग्य में मेरी रुचि और बढ़ी। तभी मुझे डॉ० सुदर्शन मजीठियाजी को सुनने का मौका मिला। बाद में मेरा एम०ए० का अध्ययन भी भावनगर विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। अध्यापन काल के दौरान दो वर्षों में डॉ० मजीठियाजी से बार-बार मिलने से उनके व्यंग्य की पैनी धार भी बराबर चुभती रही, व्यंग्य के जरिये डॉ० मजीठियाजी ने बहुत कुछ कह डाला एवं कहना चाहा है। तब से मन में निश्चय कर लिया कि कभी शोध निबंध लिखूँगा तो मजीठियाजी पर और जो व्यक्ति मुझे अभिभूत कर गया उसी के कृतित्व की जाँच-पड़ताल करूँ तथा कृतित्व में व्यक्तित्व को पाऊँ।

आखिरकार मेरा स्वप्न मेरे गुरुवर वंदनीय डॉ० एस०पी० शर्मा साहब ने साकार कर दिया। एम० फिल० में मैंने जब पंजीकरण कराके दाखिला लिया, तभी से द्विधा की स्थिति थी। किन्तु जम्हाई ले रहा था कि बताशा मुँह में आ गिरा। मेरे आदरणीय श्रद्धेय गुरुवर शर्मा साहब ने लघु-शोध प्रबंध के विषय के रूप में मजीठियाजी पर काम करने को कहा। प्रस्तुत प्रयास उन्हीं के आशीर्वाद का सुफल है।

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